• सुमन सिंह
" अरे दिनेश, ओ दिनेश'"!! कन्धे के पीछे से आती उसके दोस्त दीपक की आवाज से
वो ठिठक गया, दीपक ने पास आकर हाथ मिलाया और उसकी बुझती आँखों में झांक कर
पूछा- "का हो काम मिलल?" दिनेश दूर कहीं शून्य में ताकता वस ना में सिर हिला सका,
"भाभी त तोहार परेसान होइहैं, रोज ताना मिलत होई न हो भाय?"
दिनेश सुस्त सा चुपचाप उसकी बातों को सुनता चलता रहा, महानगर की बड़ी-बड़ी
बिल्डिंगें ताकता, रास्ते पर लोगों की खुशियों से लबरेज देखकर उसे अपने भीतर कुछ और
सिकुड़न सी महसूस होती, दीपक भी तो मस्ती में ही है, एक कम्पनी में गार्ड है, कम्पनी का
कमरा, अच्छी तनख्वाब, मन लायक पत्नी, एक प्यारी बच्ची और क्या चाहिये उसे, क्यों
"भगवान उसकी ही परीक्षा लेता है, थक गया है वो, कभी-कभी लगता है समुन्दर में जाकर
सो जाय, लेकिन अम्मा-बाबू का खयाल आते ही वो सजग हो जाता है।
'आवा तोके चाय पियाई" पास की गुमटी से गुजरते दीपक ने उसके कन्धे पर हाथ
रख उसे खींचा, उसे लगा कि चाय की तलब तो कब की उठकर बन्द हो चुकी थी लेकिन
नाम सुनते ही फिर जग गयी। वो उसके साथ दुकान की एक हिलती-डुलती कुर्सी पर बैठ
गया, दीपक उसका बचपन का दोस्त है, पूर्वांचल से पहले उसका परिवार ही मुंबई आया था
फिर उसके सहारे और भी कई परिवार आये, जिनमें दिनेश का भाई भी था, यहाँ आकर उसे
एक कम्पनी में कपड़ा रंगने का काम मिल गया, काम मिलते ही भाई अपना परिवार ले आया।
गाँव में दिशाहीनता और काम की कमी के कारण दो महीने पहले भाई ने दिनेश को भी बुला
लिया। दीपक उसकी उदासी भांप रहा था।
उसने उसे सांत्वना देते हुये फॉर्महाउस के चौकीदार की नौकरी दिलाने की बात की, तो
उसकी बुझती आँखें कुछ रोशन हुयीं। दोनों देर तक बतियाते रहे। धुंधलका देख दिनेश कुर्सी
पर से उठा और अपनी उदास निगाहें आसमान पर टिका दीं, फिर दोनों दोस्तों ने हाथ मिला
अपने-अपने रास्तों का रुख किया।
दिनेश की चाल बहुत धीमी थी, उसे अपने कदमों की हर आहट का अहसास था जिसमें
धूल और कंकड़ के मिले-जुले स्वर शामिल थे, गर्दन नीची कर चलने की उसकी आदत थी।
जेब में हाथ डाल उसने कुछ टटोला तो उंगलियों से एक सिक्का टकराया, निकाला, देखा, 5
रुपये का था, उसे उँगलो में फंसा वो सामने की पान की गुमटी की ओर चल दिया। गुटखें
के दो पैकेट खरीद एक को फाड़ मुँह के हवाले कर दिया, मुँह में मसाला छिड़कते ही सारा स्वाद मुँह में चारों ओर फैल गया और वो उसके स्वाद में जैसे खो सा गया, उसने सोचा इस गुटखे में कैसी जादुई ताकत है। तन-मन सब खुश कर देता है। शरीर कैसा हल्का सा हो जाता है, मन कैसा चंचल हो जाता है और ना मिले तो शरीर कैसे झन्नाने लगता है।
दिनेश मन ही मन खुद से ही बतियाता चला जा रहा था। सामने अब उसको झुग्गो दिखने लगी थी, बाहर छोटा सा एक बल्ब जलता दिख रहा था। दूर से ही उसने भाँप लिया कि बाहर भाभी बर्तन माँज रही है, उसके कदम अचानक फिर धीमें होने लगे। उसने चाहा झुग्गी का रास्ता और लम्बा हो जाय।
उसने चाहा वो गायब फिल्म का तुषार कपूर हो जाये उसने चाहा जिन्दगी बदल जाये। उसने चाहा अम्मा-बाबू प्रकट हो जायें, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, उसका रास्ता खत्म हो चुका था। बाहर चप्पल उतार पानी से मुंह और पाँव घो वो झुग्गी के अन्दर दाखिल हो गया। भाभी ने बर्तनों की डलिया माँजकर ला रखी ही थी। भाभी ने नजरें और भवें कुछ टेढ़ी की और हवा में एक ताना उछाल ही दिया, "और आ गइलन बाबू साहब काम त आजो ना मिलल होई। हाँ जरूरतै का वा काम कइला क? कटत त बा ऐस में।" दिनेश चुपचाप चारपाई पर लेटे भाई के पैताने बैठ गया।
भाई बिना कुछ बोले थोड़ा खिसक गया, वो टीवी के किसी प्रोग्राम के मशगूल था के शायद भाभी ने एक थाली में रोटी-सब्जी, मिर्च का अचार और गुड़ लाकर सामने रख दिया, वो उठकर जमीन पर बैठ गया, उसे सचमुच भूख लगी थी, वो नहीं देखना चाहता था भाभी की ओर, वो नहीं उठाना चाहता था अपनी नजरें ऊपर, उसे डर था कुछ ऐसा देख लेने का जो उसके मुँह के स्वाद में घुलकर उसके स्वाद को कसैला बना देगा।
रोटी का अगला कौर तोड़ने से पहले उसने धीरे से भाई की ओर देखकर कहा “दीपक कौनो साहब कीहाँ चौकीदारी के काम दियाव के कहत हव, काल्ह जाये के परी" भाई ने एक नज़र उसकी और देखा और हल्के से सिर हिलाया। जाहिर है भाभी ने भी सुना और कुछ दूरी पर सामने बैठती हुयी बोली- "ये दा कुल लाट साहबों छोड़ के पूरा सक्ति लगा दिहा काम पावँ में, झुग्गी के किराया, बिजली, पानी, खुराक, कपड़ा ये महँगाई के जमाना में जुटावल केतना मुस्किल बा. ई त जन्तै हउवा? गांव ना ह कि कुल ऐसही चली।"
दिनेश को खाने के आनन्द में भाभी की बात बिल्कुल नहीं चुभी वो दो वक्त खाता है सब कुछ भूलकर वो इन्तज़ार करता है खाने के वक्त का एक उत्सव की तरह जितनी देर वो भोजन करता है, उत्सव में होता है, खाना खाकर वो चुपचाप बाहर आ गया, आसपास हर घर में चहल-पहल से उसका जी भी थोड़ा बहल गया।
अचानक उसने सोचा चहल कदमी करते जरा रतना के घर के सामने तक हो आये, उसने जेब में पड़ा दूसरा पैकेट निकाला और मुँह में छिड़क दिया फिर से एक मस्ती तैर गयी उसके तन-मन में वो मुदित मन झुग्गियों की कतार से बायें मुड़ हैण्डपंप के सामने वालो
झुग्गी के दाहिनी तरफ वाली पुलिया पर बैठ गया। झुग्गी के सामने बैठे उसके पिता सुर्ती मल
रहे थे, माँ, भाभी और बच्चे अपने-अपने कार्यों और खेल में मगन थे, रतना, वो नहीं दिखी
शायद अन्दर हो, आजकल बोर्ड (12वीं) की तैयारी में लगी है वो वो उसे भी बी.ए. कर
लेने को कहती है पर कहाँ, दो जून की रोटी के अकाल में और कुछ। सहसा रतना बाहर
दिखाई दी. बहुत साफ तो नहीं पर ठीक-ठाक सुबह-शाम रतना से देखा-देखी ही उसे बहुत
सुकून से भर देती है, रतना ने कनखियों और मुस्कुराहट से उसका स्वागत किया। फिर पिता
के अलावा सब के सब अन्दर चले गये।
दिनेश कुछ देर बैठा फिर उठकर घर की ओर चल दिया। झुग्गियों की संकरी गली पार
करते-करते उसने ईश्वर से मन ही मन प्रार्थना की कि कल की नौकरी उसे मिल ही जाय।
अपनी झुग्गी पर पहुंचकर उसने भीतर से अपना बिस्तर लाकर बाहर बिछा लिया। झुग्गी में
एक ही कमरा है और वो नहीं चाहता कि भाभी को और मौका मिले कुछ भी कहने का वो
आकर बिस्तर पर लेट गया।
उसने सोने से पहले आसपास का निरीक्षण कर लिया, कोई जीवजन्तु तो नहीं आसपास
और फिर वो लेटा तो ऊपर आसमान में छिटके ढेरों तारे, उसकी आँखों में समा गये। वो
सोचता रहा- अम्मा-बाबू भी लेटे होंगे आँगन में बाबू बीच-बीच में खांसते होंगे। अम्मा उठ
उठकर पौठ सहलाती होंगी, वे दोनों उनकी ही बातें करते होंगे खुश होंगे कि हम शहर में
हैं, वे रोज आशायें पालते होंगे।
उसकी आँखों में ठहर गया बाबू का चेहरा, खिचड़ी हुये उलझे बाल, रेखाओं से पटा
चेहरा, धुंधली आँखों पर चटख हुआ गोल चश्मा जिसका शीशा भी न बदला जा सका अब
तक। नाक पर रखा चश्मा एक और ऊँचा और एक और नीचा लम्बे-लम्बे कान, उनके कानों
में तार कसा हुआ, हल्की खिचड़ी उलझी दाढ़ी मेहनत के खुशबू और पसीने से भरी चण्डी
और घुटने तक कुचैली धोती और पाँव में पनही बाबू अपने पूरे खाके के साथ पूरे के पूरे
उसकी चेतना में उत्तर आये। थोड़ी झुकी पीठ के साथ अम्मा भी उसकी यादों में बैठ गयी।
वो चाहता है अम्मा-बाबू के लिये कुछ करता। वो चाहता है गाँव में शराची जीजा को
गाली पिटाई खाती बहन को शहर घुमाना, उसे उसकी पसन्द की चीजें दिलाना, भाँजे
भाजियों को अच्छे स्कूल में पढ़ाना-लिखाना और रतना से व्याह रचा, अपना घर बसाना। ये
सारी चाहते उसकी आँखों में बेसाख्ता भरती रही और सपना बन उसके मन में उतरती रहो।
वो अन्जाने हो मुस्कुराता है, सपने बुनता है और वो सपने नीदों में भर जाते हैं। ऐसे ही यर्थात्,
नादों और सपनों में डूबते उतराते उसे नोंद आ गयी।
सुबह उसकी आंखों से नींद सब उतरी जब धूप का एक टुकड़ा पेड़ की पत्तियों से
आँख मिचौनी करता उसके चेहरे पर पसर गया। लगता है काफी देर तक सोया रहा। बो हड़बड़ा कर विस्तर से उठा तो भाभी की चूल्हे पर और भैया की दातुन करता पाया। बिस्तर समेट फ़ारिग हो चाय पी, तैयार हो गया। बजरंगबली के आगे दो अगरबत्तियाँ टाँक दिल से प्रार्थना की और भैया के साथ खाने बैठ गया। आज उसे खाना बाँध नहीं पा रहा था। आज उसे हड़बड़ाहट सो महसूस हो रही थी, उसका जो अचकचाया हुआ था। रात के सारे सपने हाथ बाँधे उसके सामने खड़े थे। अम्मा, बाबू, दिदिया, रतना सब उसकी आँखों के सामने घूम रहे थे। जैसे-तैसे थोड़ा बहुत खा पी वो थाली पर से उठ गया और बाहर हाथ धोने लगा। भाभी की नजरें उस पर अटक गयो पर जाने क्या सोच वो कुछ बोली नहीं।
दिनेश ने आज भैया की शर्ट, जीन्स और जूते पहने हैं। वो अच्छा लग रहा है खुद को वो उत्साहित है, भैया ने उसे लोकल ट्रेन में बैठा दिया है। रेल टिकट खरीद दिया और 220/ -रुपये जेब में भी रख दिये हैं, बहुत समय बाद आज वो अपने लायक मन से बैठा है लोकल ट्रेन में अच्छे कपड़े, अच्छे जूते, जेब में पैसा सब ठीक-ठाक, उसका चेहरा दर्प से भर गया है। स्टेशन आते ही उसका दिल कुछ घड़क गया वो धीरे से उतरा, जेब से पता निकाला और पूछता-पाछता पहुँच गया ठिकाने पर।
बाहर दरवान ने उसे रोककर पूछा, फिर अन्दर जाने दिया। वो सहमता अन्दर पहुँचा तो हॉफ पेण्ट और टी शर्ट में साहब लान में चाय पीते बैठे मिले, उसने सलाम किया- "साहब, दीपक ने भेजा है चीकोदारी के लिये।"
साहब ने रौब भरी निगाह से उसकी ओर देखा- "हूँ क्या नाम है?"
" जी दिनेश "
"पढ़े-लिखे हो"
"जी यारहवीं"
"मेरे फार्म हाउस की चौकीदारी करनी है।"
"जी"
"कर सकोगे"
"जी"।
इसके बाद साहब ने अपनी शर्तों और पूर्ण सुविधाके साथ उसे 6000/- में तय किया। वो यहाँ से निकल कुछ देर बाहर की क्यारी के पास बने स्लैबनुमा जगह पर बैठ गया। उसने महसूस करना चाहा खुद को सम्बी-लम्बी सांसे लेकर आँखें मिचमिचा कर खुद को स्पर्श करके आज कितना कुछ अचानक आ गया उसके पास मकान, तनख्वाह, नौकरी सब कुछ। एक ठेले पर पहुँच उसने अपनी फॉलर को ठीक करते साहब के अन्दाज़ में रौब से छोले-भटूरे का ऑर्डर दिया, भरपेट खाया और कल्याण जाने वाली लोकल ट्रेन में चढ़ गया।
ट्रेन में अथाह भीड़, आलम ये कि हाथ भीड़ में अपने हाथ तक भी ले जाना नामुकिन पास खड़े आदमी के पसीने की बदबू से उसका दम घुटने की कगारे पर पहुंचने जैसा हो गया है उसने जैसे तैसे अपनी सासों को रोकते, रफ्तार देते उन्हें एक तारतम्य में बाँध दिया है।
बच्चों के रोने की आवाजों से घबराहट भर रही है मन में सरकार की व्यवस्था को गाली देने का मन कर रहा है, पर बाकी सब ? कुछ बातचीत में मग्न, कुछ कानों में इयर फोन ढूंस दुनिया से बेखबर ये लो, क्या सुन्दर युवती है- रतना भी ऐसा पहनती मेकअप करती तो इससे कम सुन्दर न लगती। इस बार जाकर उसके से उसके बाप से बात करूंगा, वो रिटियाता हुआ उसके हाथ में रतना का हाथ देगा।
उसके होंठो पर मुस्कान और चेहरे पर हल्की लाली सी उभर आयी। अचानक वो सजग हो गया, लोग कहीं उसे देख तो नहीं रहे, पर नहीं सबके सब अपने में मग्न उसे ये अच्छा लगा कुछ और देर वो रतना के तिल वाले होंठो और सुन्दर चेहरे की याद में खोने लगा कि बोम्म एक तेज धमाका उसके पाँव के पास, खिड़कियों के परखच्चे उड़ गये, उसके पाँव का ढेर सारा मांस छिटक कर दूर जा गिरा। सामने के हाहाकार को देख उसकी आँखें मुदने लगों बाबू का चश्मा, अम्मा की झुकी पीठ, रतना की मुस्कान, भैया की नजरें सब उन मुदती आँखों में झिलमिलाने लगे।
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