समकालीन समाज की कहानियां





समकालीन युग मूल्यों के क्षरण का काल है। नैतिक मूल्यों का क्षरण जिस तेजी से वर्तमान समय में हो रहा है वैसा किसी भी युग में नहीं हुआ है। अभी अभी पचास साल पहले लोग अनैतिकता से बहुत डरते थे, ईश्वर से डरते थे, समाज से और परिवार से डरते थे। लेकिन आज लोगों में अनैतिकता का भय समाप्त हो गया है। नैतिकता अब अदृश्य है या धूमिल है  और अनैतिकता की  दृश्यता बहुत बढ़ गयी है। स्वार्थपरता, अराजकता, अत्याचार, अनाचार और विसंगतियों का बोलवाला है। कोई भी चीज़ शुद्ध नहीं है। विचार दूषित हुए तो वस्तुयें भी दूषित हो गयीं। आदमी अंदर कुछ और है और बाहर कुछ और। 

 प्रमोद भार्गव सजग रचनाकार 

रचनाकार इन्हीं विसंगतियों को पकड़ कर अपनी साहित्यक विधाओं में उनका विश्लेषण करता है और विसंगतियों की तह में जाने का प्रयास करता है। प्रमोद भार्गव जी ऐसे ही सजग रचनाकार हैं। आपके उपन्यास हों या कहानियाँ या फिर समसामयिक शोध आलेख सभी के केन्द्र में समाज, संस्कृति तथा शास्वत मूल्य जरूर होते हैं। आपकी पत्रकारिता का केन्द्र बिंदु भी मनुष्य ही है। खोजपरकता आपकी सहगामिनी है। आप घटनाओं , मान्यताओं, परंपराओं यहाँ तक कि रूढ़ियों को भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परखते हैं। इस मायने आपकी कहानियाँ अन्य कहानीकारों से भिन्न रहतीं हैं। इन कहानियों में परंपरा और आधुनिकता का सुखद संयोग हुआ है। सन् 2024 में भार्गव जी का एक बहुत ही चर्चित एवं महत्वपूर्ण संग्रह आया है " प्रमोद भार्गव की चुनिंदा कहानियाँ " इस संग्रह में 20 कहानियाँ हैं। 278 पेज का यह संग्रह एक तरह से महाकाव्य जैसा विशालकाय है। कहानियाँ लंबी जरूर हैं लेकिन यथार्थता और प्रवाह से लबरेज होने के कारण इनमें पाठक की रुचि पढने में बनी रहती है। संग्रह की कहानियाँ पढ़ते समय यह बात स्पष्ट हो जाती है कि न तो ये कहानियाँ किसी वाद विशेष के खांचे में रखकर लिखीं गयीं हैं और न ही  इन्हें एकदम आदर्श वाद की नींव पर खड़ा किया गया है। सामाजिक समस्याओं को लेकर इनकी भावभूमि और कथ्य की रचना अवश्य हुई है लेकिन कथ्य के साथ कल्पना लोक का जो निर्माण हुआ है उसमें कहीं कृत्रिमता  नजर नहीं आती। यथार्थ और कल्पना पूर्णतः एकमेक हो गये हैं। कहीं - कहीं कल्पना पर बौद्धिकता अवश्य हावी हो गयी है। जहाँ ऐसा हुआ है, वहाँ शुष्कता का प्राधान्य हो गया है।  जहाँ वैज्ञानिकता की अधिकता है वहाँ कहानीकार ने बड़ी चतुराई से प्रेम तथा दैहिक सुख के दृश्य उपस्थित करके पाठकों को बांधने का सफल प्रयास किया है। कहीं - कहीं वैज्ञानिकता, बौद्धिकता एवं यथार्थता के कारण पाठक ऊब भी जाता है लेकिन  इस ऊब में भी पाठक  प्रेम की कोमल भावनाओं के  भंवरलाल में फंसकर कहानी पूरी पढ़ ही लेता है। प्रेम परक कहानियां कहीं - कहीं नैतिक मर्यादाओं का अतिक्रमण करतीं प्रतीत होतीं हैं परन्तु यह भी सच है कि आज के लिव इन के जमाने में मर्यादायें टूट तो रहीं हैं। जैसा समाज वैसी कहानी। 

परखनली शिशु तथा आधुनिकता में लिपटे स्वछंद माता - पिता की संतान से नैतिकता की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? "परखनली का आदमी " ऐसी ही एक कहानी है। "किरायेदारिन" कहानी एक विधवा स्त्री की जीवटता, संघर्ष, जद्दोजहद एवं ममत्व की दुखभरी गाथा है। "कहानी विधायक विद्याधर शर्मा की " आज के विधायकों के चरित्र को हू- ब -हू उजागर करती है। बाहुबली, धनवली विधायकों की करतूतें रोज ही समाचारों के माध्यम से लोगों को सुनने और पढ़ने को मिलती रहती हैं। इस कहानी में भी विधायक  गरीबों की जमीनें हथियाकर अपनी सम्पत्ति का विस्तार करते हैं। इसमें वे अपनी जाति - बिरादरी वालों को भी नहीं  छोड़ते।" कोख में शिशु " कहानी में बेटियों की दुर्दशा, उपेक्षा, बलात्कार, आदि पर आधुनिक सभ्य समाज की क्रूर मानसिकता पर , कहीं कारुणिक और कहीं व्यंग्य के माध्यम से समाज को जाग्रत करने का प्रयास दृष्टिगत होता है। " ये जो अदृश्य है "कहानी समकालीन समाज में  कामकाजी महिला - पुरुष के अन्तर्सम्बन्धों को बहुत ही बेबाकी से परत दर परत खोलती जाती है। दूसरे शहरों में नौकरी करने वाले लड़के और लड़कियां किस तरह से लिव - इन में रहकर पूरी बेफिक्री से  अपना जीवन व्यतीत करते हैं। उनमें इसके लिए कोई ग्लानि, पश्चाताप या परिवार और समाज की कोई चिंता नहीं रहती । लड़की का कांफिडेंस देखने लायक है - " पूर्व नियोजित फ्लैट पर जाने के प्रोग्राम को लेकर बकुल आशंकित भी थी कि दो युवा देहों की आसक्तियों का आवेग विवेक खोकर वर्जना तोड़ सकता है। इसलिए कुटिल चतुराई से बकुल ने गर्भ निरोधक पूर्व में ही अपनाकर सावधानी बरत ली थी। गोया वह किसी भी शैतानी से जूझने अथवा रू-ब- रू होने को कमोवेश तैयार थी। "पृष्ठ 67 । फेसबुक कहानी बचपन के प्रेमी  विधुर और विधवा के पुनर्मिलन एवं विवाह की तस्वीर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती है, जिसे उसका बेटा तथा बहू की भी अनुमति मिल जाती है। यह कहानी समाज के बदलाव को इंगित करती है। वैसे भार्गव जी की सभी कहानियाँ समाजिक बदलाव से संबंधित ही हैं। 

समाज बदल रहा है। मान्यतायें बदल रहीं हैं, विचार बदल रहे हैं, परंपरायें टूट रहीं हैं, रूढ़ियां खत्म हो रहीं हैं, वर्जनायें लांघी जा रहीं हैं, खान- पान, पहनावा, सब कुछ बहुत तेजी से परिवर्तित हो रहा है। पश्चिमीकरण का  बेतहाशा  विस्तार हो रहा है। भारतीयता को  अब पिछड़ेपन की निशानी माना जाता है। अब पश्चिमी जीवन - शैली शहर ही नहीं गाँव में भी हावी हो गयी है। वैज्ञानिक उपकरण हमारे जीवन  में  रचबस गये  हैं। स्त्रियाँ बंधन तोड़ रहीं हैं। अंतर्जातीय विवाहों को मान्यतायें मिलने लगीं हैं। इन कहानियों में इसी तरह के  सामाजिक परिवर्तनों का लेखा - जोखा बहुत ही बारीकी और बेबाकी से प्रस्तुत करके समाज को संदेश देने का उत्तम प्रयास  लेखक ने किया है। 

चूंकि भार्गव जी सुप्रसिद्ध पत्रकार भी हैं इसलिए ये जो मुद्दे पत्रकारिता में उठाते हैं, उन्हीं मुद्दों का प्रयोग वे कहानियों में कर लेते हैं। इसलिए इनकी कहानियों में काल्पनिकता की अपेक्षा बौद्धिकता का समावेश अधिक है। ज्यादातर कहानियां समाचार की रिपोर्टिंग सी महसूस होतीं हैं। इसलिए  उनकी भाषा भी अखवारी भाषा के अधिक निकट है। भाषा में माधुर्य, श्रंगारिकता, मार्दव एवं कोमलता का अभाव सा प्रतीत होता है। शैली सपाट है। भावात्मकता कहीं - कहीं ही दिखाई देती है। यत्र - यत्र संवेदना भी मिल जाती है। लेकिन अधिकतर कहानियों  में अखवारी संवेदना ही विद्यमान है। कथ्य की दृष्टि से कहानियों  की विविधता उल्लेखनीय है। इनकी कहानियों को बदलते समाज की कहानियां कहना अधिक उपयुक्त होगा। जैसा समाज वैसी कहानियां। पत्रकार के नाते समाज पर भार्गव जी की चौतरफा पकड़ है। यही कारण है कि भार्गव जी  की कहानियों में उनके अनुभव संसार को बखूबी जगह मिली है। जनता के छोटे से छोटे क्रियाकलाप पर भी कहानीकार की पैनी नज़र रही है। 

आदिवासी, वंचित, दलित, किसान एवं महिला त्रासदी की ओर भार्गव जी की विशेष  दृष्टि रहती है। इन कहानियों में - ल से लड़की, शील भंग स्त्री और लोकतंत्रीय तमाशा, हौसले की उड़ान, सती का सत आदि कहानियों में स्त्री का जीवन - संघर्ष, उसका शोषण तथा अस्मिता को बचाये रखने  के लिए उसकी जद्दोजहद पाठकों को द्रवित ही नहीं करती अपितु उन्हें सोचने और कुछ कर गुजरने का हौसला भी देती है। भार्गव जी अपनी कहानियों में मध्यम , निम्न मध्यम और अत्यंत निर्धन लोगों के बेहतर जीवन की कामना करते हैं। शोषण के विरुद्ध उनके पात्र आवाज तो उठाते हैं लेकिन भ्रष्ट व्यवस्था  के सामने वे घुटने टेक देते हैं। दबंगों की दबंगई उन पर हावी हो जाती है। प्रशासन या तो बिक जाता है या वह भी उनके सामने निरीह हो जाता है और गरीब का शोषण होता रहता है। 

संग्रह की कहानियों में   एक ओर जहाँ आत्मनिर्भर एवं धनाड्य पात्र मौज - मस्ती करते हैं तो दूसरी ओर  हाड़ तोड़ मेहनत करते हुए भी कुछ पात्र बमुश्किल दो जून की रोटी की जुगाड़ कर पाते हैं। ऐसे लोग धनाड्य, उच्च वर्ग, अफसर , पुलिस एवं नेताओं से शोषित भी होते रहते हैं। कहने को देश में लोकतंत्र हैं लेकिन यह लोकतंत्र बहुत ही पिलपिला है।  "शीलभंग स्त्री और लोकतंत्रीय तमाशा " में बहुत ही सिद्दत के साथ कहानीकार ने  इसे वर्णित किया है। ठाकुर साहब इधर अखंड रामायण के पश्चात् भंडारा करा रहे हैं उधर उनके लड़के नाबालिग वाल्मीकि  लड़की से बलात्कार कर रहे हैं जब उसकी माँ रिपोर्ट लिखाने जाती है तो उसके पहले ही ठाकुर साहब  पीड़िता की माँ और भाई के खिलाफ चोरी की रिपोर्ट दर्ज करा देते हैं फलतः  उसकी सुनवाई थाने में नहीं होती। क्योंकि वह बिकती नहीं है। थाने में लड़की की माँ दीवान जी से पूछती है कि " फिर यह झूठी चोरी मेरे मथ्थे काये मढ़ रहे हैं हुज़ूर ---? दीवान कहता है -" क्या बतायें बाई हमें भी तो नौकरी करके अपने मौड़ा - मौड़ियों का पेट पालना है ---, सो नेताओं और अफसरों का हुक्म तो बजाना ही पड़ता है। इनकी नाफरमानी कौन करे? " पृष्ठ 118 यह है आज के लोकतंत्र की तस्वीर। ठिठुरता हुआ लोकतंत्र, असहाय लोकतंत्र, डरा हुआ लोकतंत्र। लोकतंत्र  दबंगों की

 गुलामी कर रहा है। किसान की बदतर हालत को बयां करने वाली कहानियों में  किसानी, गंगा बटाईदार महत्वपूर्ण हैं। 

अच्छी कहानी के सात सूत्र होते हैं। वे हैं - आकार, आकर्षण, प्रमाणिकता, प्रतीक योजना, प्रस्तुति, शीर्षक और प्रभावपूर्ण अन्विति। इनमें से भार्गव जी की कहानियों में अधिकांश की पूर्ति हो जाती है। कुछ कहानियाँ लम्बी जरूर हैं। पात्र उनके इर्दगिर्द के ही हैं  जाने - माने और पूर्व परिचित। कहीं - कहीं बुद्धि जीवी तथा पत्रकार के रूप में कहानीकार स्वयं भी पात्र के रूप में उपस्थित हो जाता है । परिवेश भी जाना - पहचाना और कहानीकार के आसपास का ही है। इसलिए  कहानियाँ स्वभाविकता के अधिक नजदीक हैं। 

प्रमोद भार्गव जी प्रगतिशील जरूर हैं लेकिन उनकी प्रगतिशीलता भारतीयता के सांचे में ढलकर आती है। उनकी कहानियाँ  आध्यात्मिकता, भारतीय दर्शन, भारतीय सोच और संस्कार से आप्लावित रहतीं हैं। अखवारी भाषा होने के कारण इन कहानियों में सम्प्रेषण की कोई समस्या नहीं है। संग्रह की समस्त कहानियाँ पठनीय और संप्रेषणीय हैं। अस्तु। 

         समीक्षक - डॉ अवधेश कुमार चंसौलिया 

          डी एम 242 , दीनदयाल नगर, ग्वालियर 474005

       

समीक्ष्य कृति - प्रमोद भार्गव की चुनिंदा कहानियाँ 

कहानीकार - प्रमोद भार्गव 

प्रकाशक - प्रवासी प्रेम पब्लिशिंग, गाजियाबाद 

मूल्य - ₹ 535

संस्करण - 2024