कहानी /ॐ/
रामपुर गाँवमें हमारा निवास गारमिट्टी से बने मकानमें था। घरके आँगन में विशाल बरंडा था और पीछे दो कमरे
थे जिसमे एक रसोई थी। घर की दीवारे कच्ची
थी। आँगन में दो खाट हमेशा के लिए बिछी रहती
जिसपर शाम को पिताजी नौकरी से लौटने पर
वहीँ बैठ जाते और गांववाले किशान और मास्टरजी से बातचीत किया करते। हम परिवार के आधे दर्जन सदस्य बड़े इत्मीनान से रह रहे थे। हमें वह गाँव भा
गया था। पिताजी पटवारी थे जिन्हें आसपास के दो अन्य गाँव का भी बारीबारी से दौरा
करना पड़ता था। वे सवेरे जल्दी ही अपने मोटरसायकल पर निकल पड़ते थे और शाम देरी से
लौटते थे। माह में दो तीन बार उन्हें जिलामथक
पर जाना पड़ता था। हम चार भाई बहन थे। बहनों को करीब दस किलोमीटर दूर शहर
में बस द्वारा कोलिज जाना पड़ता था। गाँव में एक ही बस सवेरे जा कर शाम को लोटती थी।
मैं गाँव की ही हाईस्कूल में दसवी कक्षामें
और छोटा भाई अर्जुन प्राइमरीस्कूल में पढ़ता था।
हमारा गाँव छोटा मगर खूबसूरत था, प्राकृतिक सौंदर्य-से
भरपूर। बस्ती यही पंद्रह बीस हजार होगी।
ज्यादातर लोग खेत में मजदूरी किया करते थे। हलाकि कुछ कुछ बड़े किशान भी थे। गोधुली के समय जब पशुधन गाय, बकरी, भेडिये
इत्यादि लौटते तब धुल उड़ती और माहोल दर्शनीय हो जाता। गाँव में तालाब था और उसके किनारे रामजी का मंदिर
भी। संध्या आरती के समय मैं माँ के साथ मंदिर जाता और बड़े भाव से राम लक्ष्मण और
सीता की मूर्ती को निहारता रहता। कभी कभार मैं मंदिर न जाकर दोस्तों के साथ तालाब के किनारे खेलने लगता और बाद में गाँव
के बुजूर्ग और युवकोके साथ पंचायत भवनमें बैठ कर टीवी देखा करता।
एक शाम पिताजी ने जिला मथक से लौटते ही हमें समाचार दिए कि
उनका तबादला पास के तहसील नगर में हो गया है और हमें अब गाँव छोड़कर जाना होगा।
गाँव में समाचार फैलते ही सरपंच समेत कई लोग पिताजी से मिलने आ पहुंचे और रात देर तक बैठे रहे। कुछ ने इस तबादले को
अन्यायी करार देकर सरकार को कोसा। सरपंच
ने राय दी की यह तो सरकारी हुकम है और इसका पालन करना ही पडेगा।
अपने तबादले से आहत
पिताजी के साथ हम देर रात तक आँगन में चिंतित होकर बैठे रहे। न जाने क्यों हमें गाँव छोड़कर जाना अच्छा नहीं
लग रहा था। पिछले दस साल से हम वहां शकुन से रह रहे थे। हलाकि बहने खुश नजर आ रही
थी इस विचार से कि अब उन्हें रोजाना उठकर बसमें आनाजाना नहीं पड़ेगा। तहसील जिला
मथक के करीब था। अब इस तबादले को स्वीकृत
करने के अलावा कोई चारा नहीं था।
तभी अचानक मेरी नजर बरंडे के कोने में बंधी हमारी हिरनी पर पड़ी।
हिरनी हमारी बकरी थी जिसे हमने पाल रखी थी।
“ माँ, हमारी हिरनी
का क्या होगा ? उसे हम साथ ले जायेंगे या यहीं छोड़ जायेंगे ?”
प्रश्न करते हुए मैंने सभी की और देखा।
सभी ने एकसाथ हिरनी की तरफ देखा जो चुपचाप कोने में बैठे
हुए अपना जबड़ा हिला रही थी। आज पहली बार
हम परिवारवालो ने एकटक हिरनी को देखा था वरना वह पिछले पांच साल से हमारे बीच एक
परिवार सदस्यकी माफिक ही पल रही थी।
मैंने आज भी उसे बड़े चाव से देखा। उसकी चमकती निर्दोष
आँखें, दूध से उजले बारीक दांत जो उसके चबाने पर दिख पड़ते थे। उसका गेरुआ रंग
जिसपर सफ़ेद पेड़ के पत्तो के सामान धब्बे थे। उसका हृष्टपुष्ट छरहरा बदन देखकर लगता
था जैसे वह बकरी नहीं कोई हिरन का
बच्चा हो। इसलिए हम उसे हिरनी कहकर बुलाते
थे।
स्कूल से लौटकर मेरा ज्यादातर वक्त हिरनी के साथ ही बितता
था। मैं उसे करशनभाई के बाड़ी पर उसे चारा
खिलाने ले जाता था। वैसे गाँव में हमारे लिए गाय व भेंस का दूध उपलब्ध था फिर भी
हम अपनी हिरनी का दूध खुद तो पीते थे साथ में पड़ोसियों में भी बांटते थे। हमारी हिरनी का निभाव खर्च बिलकुल मामूली था।
“अरे हाँ ! इसका हम क्या करेंगे ? “ पिताजी बोल पड़े,” शहर
में तो ये अपने साथ रह नहीं सकती। वहां सरकारी कवाटरमें आँगनभी नहीं होगा।” पिताजी चिंतित हो उठे। हम सभी खामोश होकर सोचने
लगे। सही बात थी। हिरनी हमारे परिवार का एक अभिन्न अंग बन चुकी थी और अब उसे गाँव
में छोड़कर जाने को जी नहीं चाहता था।
हलाकि उसे साथ ले जाना भी संभव नहीं था।
अगले दिन से मैं अपनी हिरनी की और भी ज्यादा देखभाल करने लगा। आँगन में से आतेजाते उसे बैठे हुए देख उसपर
तरस खाता। उसके नजदीक जाकर उसे अत्यंत प्रेमपूर्वक सहलाता। बोलता- “ हिरनी, अब हमें तुझे छोड़कर जाना होगा।
तू क्या करेगी ?” वह जैसे मेरी बात समझ गई हो उस तरह अपना मस्तक हिलाकर मेरे पाँव
से रगड़ने लगती जैसे बिनती कर रही हो की मुझे छोडकर मत जाना।
दो दिन अपने तबादले के स्थल पर नौकरी करने के बाद पिताजी के
लौटते ही हमने उन्हें घेर लिया और पूछने
लगे कि नया नगर कैसा है, सरकारी मकान कैसा है। इतना ही नहीं हमने ये भी पूछ लिया
हिरनी को रखने के लिए बरंडा है या नहीं।
“ नहीं। तीन मझले के फ्लेट है। “ उन्हों ने निराश होकर अपना
सर धुनाया। मुझे धक्का –सा लगा और मेरा
मुंह उतर गया। मैंने हिरनी की तरफ देखा। वह जैसे हमारी बातें सुन रही थी।
“कल से थोड़ा बहुत सामान ले जाना होगा। मगन
का ठेला मंगवा लेंगे।” पिताजी ने आदेश दिया और माँ घर का सामान बाँधने में जूट गई।
हम सब उसकी मदद में लग गए।
माँ सुबह जल्दी उठकर हिरनी को चारा डालती थी और
फिर दूध दोहती थी। उसने शिकायत की। “ न जाने क्यों आज हिरनी दूध देने में नखरे कर
रही थी। उसने दूध भी बहुत कम दिया। रोजाना
तो भगोना भर जाता है। आज आधा खाली रहा। “
“माँ, वह समझ तो नहीं गई है कि हम उसे छोड़कर जाने वाले हैं
?” मैंने शंकित होकर कहा।
“ तो इसमें हमारा
क्या दोष है ? वहां शहर में इसे कैसे ले जाएँ ? इसे रखने के लिए न
आँगन और खिलाने के लिए चारा भी कहाँ से
लायेंगे ? “ माँ ने अपनी मजबूरी जताई।
“ कहीं ये बीमार तो नहीं पड़ गई ? “ मैंने चिंतित होकर पूछा।
“कल याद दिलाना। तेरे पिताजी से कहकर पशुचिकित्सक वर्माजी
को बुला लेंगे। इन मूक पशुओ को पालना भी कहाँ आसान हैं ! “ माँ मानो अपनेआप को कोसने लगी।
अगले दिन-से ही हमारा सामान मगन के ठेले में जाने लगा। धीरे
धीरे घर खाली-सा होने लगा।
माँ के कहने पर मैंने पिताजी को हिरनी के बीमार होने की बात
कही। उन्हों ने संदेशा भिजवाकर पशु-चिकित्सक वर्माजी को घर भेज दिया। डाक्टर ने
हमारी हिरनी की जांच की। उसका पेट दबादबाकर देखा। इंजेक्शन दिया।
एक हप्ता बीत गया। हमारी हिरनी और अधिक बीमार होने लगी। माँ रोजाना उसके आँचल से दूध निकालते वक्त उसे
बड़े प्रेम-से सहलाती थी। मगर अब वह
पहले-की तरह दूध नहीं देती थी।
पिताजी के साथ रात देरी तक आंगन में बैठे बैठे हम रोज चर्चा
करते कि अब और कितना घर का सामान नगर ले जाना है, और किस रोज शुभ मुहूर्त देखकर घर
बदलना है। फिर हम ये गंभीरता-से सोचने लगे कि अपनी हिरनी को कैसे और
कहाँ छोड़ कर जायेंगे। हिरनी चुपचाप आँगन
में बैठे हमारी बातों को सुनती रहती और हलके –से बें।। बें।। करके प्रतिभाव देती।
उस शाम अचानक पिताजी को उपाय सुझा। “ अपनी हिरनी को करशनभाई
के वहां छोड़ जाएँ तो कैसा रहेगा ? “
“बढ़िया ! बहुत खूब ! “ हम सब खुश हो उठे।
“ वे बड़े किसान हैं और पशु-प्रेमी भी।” माँ बोल पड़ी। “ वे हमारी हिरनी को अवश्य बड़े
प्रेम –से रखेंगे।”
अगले दिन पिताजी ने करशनभाई से बात करके उन्हें हमारी हिरनी को रखने के लिए मना लिया।
अब हम निश्चिंत हो गए। हिरनी की चिंता से मुक्त हो गए। उसे हम
योग्य मालिक को सुपरत करके गाँव छोड़नेवाले थे। हमने तय किया कि जिस दिन
गाँव छोड़ेंगे उससे एक दिन पहले हम हिरनी को करशनभाई के हवाले कर देंगे। वैसे मैं तो रोज ही हिरनी को उनके खेत पर चारा
खिलाने ले जाता था।
अंततः वह दिन भी आ
गया। दुसरे दिन हम गाँव छोड़ने वाले थे। नित्य्क्रमानुसार दोपहर खाना खाने के बाद
मैं हिरनी को करशनभाई के खेत छोड़ने जाने की तैयारी में लग गया। पिताजी नौकरी पर गए
थे। बहने कालिज गई थी। माँ ने बड़े दुलार के साथ हिरनी के सारे तन पर हाथ सहलाया।
वह इतनी भावविहोर हो गई की उसकी आँखों से अश्रु बहने लगे। मेरा भी दिल पसीज गया।
हिरनी बैठी हुई थी। माँ ने उसके मस्तक पर हाथ फेरा। फिर उसे गर्दन पकड़कर उठाने की कोशिश की। वह खड़ी न हुइ। मैंने भी उसकी गर्दन पकड़कर
उसे उचकने का प्रयत्न किया। “चल उठ पगली।
नखरे मत कर। हम तुझे अच्छी जगह छोड़कर जा रहे हैं। करशन भाई तुझे अच्छा-सा चारा
खिलाएंगे। प्रेम से रखेंगे। “ बोलते बोलते
मेरीभी आवाज रौंध गई। मगर हिरनी तो फर्श
पर चिपक कर बैठी ही रही।
“अरे चलने प्यारी ! “
कहते हुए मैंने बलप्रयोग करके उसका
कान खींचते हुए उसे उठाने का प्रयत्न किया। कान खींचने की पीड़ा को भी उसने सह लिया
मगर वहां से हिली तक नहीं।
“माँ,
हिरनी जाना नहीं चाहती। “ मैंने लाचार होकर कहा। माँ ने भी अपने दोनों हाथ उसकी
कमर से लपेटकर उसे उठाने की कोशिश की। मैंने भी उसके दोनों कान पकडके उसे मस्तक और
गर्दन समेत उचका।
मगर ये
क्या ? हिरनी तनिक भी हिलने को तैयार नहीं थी।
आखिर माँ
और मैं हमदोनों थक गए। हमने हताश होकर उसकी और देखा। उसकी चमकती आँखें गीली हो
चुकी थी।
“माँ,
हिरनी रो रही है। “ मैं बोल पडा। “ वह जाना नहीं चाहती। “
हमदोनो
अत्यंत भावुकता-से उसे दयनीय द्रष्टि-से देखते हुए कुछ पल वहीँ खड़े रहे।
“रहने दे।” माँ ने
निराश होकर कहा,” तेरे पिताजी को आने दे।
शाम को मगन का ठेला मंगवा कर उसमे लाद कर उसे छोड़ आयेंगे।”
उस शाम
पिताजी से पहले करशनभाई आ पहुंचे। “बकरी को बाड़ी पर क्यों नहीं लाये ?”
“ वह
हमसे उठती नहीं है। खड़ी नहीं हो रही। शाम को इसके पिताजी के आते ही मगन के ठेले
में उसे जबरजस्ती भेज देंगे।” माँ ने खुलाशा किया। वे चले गए।
शाम को
पिताजी आये। बहने भी आ गई थी। हमने आँगन में बैठकर इस समस्या की चर्चा की कि हिरनी
को कैसे करशनभाई की बाड़ी पर पहुचाया जाए।
“हमसे
अकेले ये काम न होगा। पड़ोस से धनजी और मनसुख को बुलाना पडेगा।” पिताजी ने उपाय
सुझाया।
हमसभी ने
एकसाथ फिर वहां कोने में चुपचाप बैठी हिरनी की तरफ देखा। वह भी नतमस्तक होकर हमारी
बातें सुन रही थी।
पिताजी
ने सन्देश भेजा और कुछ ही पल में मगन अपना ठेला लेकर हमारे घर आ पहुंचा। पड़ोस से धनजी और मनसुख ही नहीं, आठ- दस लोग भी
आस पास से हमारे आँगन आ पहुंचे।
“चलो,
उठाओ इसे।” पिताजी ने हुक्म दिया और धनजी मनसुख और अन्य कुछ गाँववाले हिरनी के पास
आ पहुंचे।
हम सब
दूर से ही उसे देखने लगे।
तभी धनजी
चोंक कर चिल्ला उठा। “ अरे ।।। ये तो मर गई है। “
“हैं ! “
माँ पर मानो आश्मान टूट पडा। “ नहीं ! “ वह दौड़ कर हिरनी के पास जाकर बैठ गई । मैं भी हिरनी के पास दौड़ पडा।
मनसुख ने
हिरनी का मस्तक झकझोर कर देखा। “ सचमुच।। बकरी मर गई है।”
और ये
सुनते ही मैं रोने लगा।
हमारी हिरनी हमारे ही आँगन में ढेर हो गई थी।
बहने और
माँ तो चिल्ला कर बिलख पड़ी। हमारे आँगन
में किसी चहिते परिजन की मौत हो गई हो ऐसा आक्रंद
और शोकग्रस्त माहोल खड़ा हो गया। देखते देखते गांववालों की भीड़ हमारे आँगन
में जमा हो गई।
सचमुच,
गाँव छोड़ने से पहले अपनी हिरनी को कहाँ
छोड़ जाएँ इस समस्या का हल खुद हिरनी ने अपनी जान देकर ढूंढ लिया था।
रामचरन हर्षाना
सुरेंद्रनगर 363 001 (गुजरात )
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