माटी का सच्चा और ' युयुत्स ' रचनाकार मोती बीए-पुण्यतिथि: 18 जनवरी ( 2009 )





भारतीय सिनेमा ( बॉलीवुड ) में भोजपुरी की सुगंध और कच्चे दूध के खनक की आमद जिस व्यक्तित्व से पहली - पहली बार संम्भव हुई वह मोती बीए थे । अंग्रेजी की प्रसिद्ध लेखिका अगाथा क्रिस्टी , जिसे भारतीय उपमहाद्वीप का अकेला मौलिक लेखक मानती थीं वह थे , जासूसी कथा लेखन के बेताज बादशाह इब्ने सफी बीए । मेरी जानकरी में यही दो ऐसी शख्सियतें थीं जिनके नाम के आगे स्नातक डिग्री ( बीए ) ताजिंदगी चिपकी रही , जबकि दोनों अपने - अपने शिल्प के आचार्य थे ।

मोती बीए के गीतों से सजी पहली फ़िल्म थी - ' कैसे कहूं  '। इसके संगीतकार थे पंडित अमरनाथ । इस फ़िल्म में मोती बीए जी ने पांच गीत लिखे बाकी गीत डीएन मधोक के थे । फिर उन्होंने किशोर साहू निर्देशित , कामिनी कौशल - दिलीप कुमार अभिनीत फ़िल्म 'नदिया के पार (1948)'  में  सात गीत लिखे । इस फ़िल्म के गीतों की सारे देश में धूम मच गयी । खासकर 'मोरे राजा हो ले चल नदिया के पार ' । पहली बार किसी गीतकार ने हिंदी फ़िल्मों में भोजपुरी को उसका अपेक्षित स्थान व सम्मान दिलाया ।

मोती बीए जी का भोजपुरी की समृद्धि में महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक योगदान है  । शेक्सपियर की सॉनेट का अनुवाद तो उन्होंने किया ही , जापानी 'हाइकू' विधा के चलन से बहुत पहले मोती बीए जी ने इसका प्रयोग अपनी भोजपुरी रचनाओं में शुरू कर दिया था । उन्होंने महाकवि कालिदास के ' मेघदूत ' का भोजपुरी अनुवाद किया । उर्दू में उनकी शायरी के तीन संग्रह  ' रश्के गुहर ', 'दर्दे गुहर ' और 'एक शायर' प्रकाशित हुए  ।

रिश्ता बनाना ही हो तो बाबा , ( हां , वह शायद मेरे बाबा ही लगते थे ) का पूरा नाम  मोतीलाल उपाध्याय था और उनका जन्म एक अगस्त 1919 को देवरिया जिले की बरहज तहसील के बरेजी गांव में हुआ था । उन्हें शोहरत मोती बी़ ए़ के नाम से ही मिली  । 

उन्होंने अपने परिचय में लिखा है -  ' *कहने को एम़ ए़, बी़ टी़, साहित्य रत्न सदनाम, लेकिन पहली ही डिग्री पर दुनिया में बदनाम  ’। उन्होंने 1934 में हाईस्कूल की शिक्षा बरहज के किंग जार्ज कॉलेज (हर्ष चंद), 1936 में नाथ चन्द्रावत इण्टरमीडिएट कालेज गोरखपुर से इण्टर तथा 1939 में बीए की शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हासिल की ।

धीरे-धीरे बाबा  की सक्रियता क्रांतिकारी विचारों को गति देने में बढ़ने लगी  । 1939 से 1943 तक अग्रगामी संसार और  आर्यावर्त जैसे प्रमुख समाचार पत्रों में अपने साम्राज्यवाद विरोधी लेखन के चलते उन्हें  कई बार जेल भी जाना पड़ा  । 1943 में वे दो महीने की सज़ा काट कर जेल से रिहा हुए फिर उन्होंने टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज वाराणसी में दाखिला ले लिया ।

वह भोजपुरी के लिये जीये और उसी के लिये मरे । भोजपुरी के उत्थान के लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया । अंतिम समय में उन्होंने तीन फिल्में भी बनाई । इसमें ठकुराइन , चम्पा चमेली और गजब भइले रामा थीं। 

 मोती बीए की रचना महुआबारी की याद दिलाई । प्रस्तुत है --

असों आइल महुआबारी में बहार सजनी,

कोंचवा मातल भुंइया छूवे,

महुआ रसे-रसे चूवे,

जबसे बहे भिनुसारे के बेयारि सजनी


गडी लागल रब्बी के लदाइल खरिहनवा

दँवरी खातिर ढहले बाड़े डॅठवा किसानवा।

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राम के मंदिर बनिए के रही

पहिले मेटाव मँहगाई

बलमु भजपाई।

का क लीहें अटल बिहारी का करिहें अडवानी

जब मउवति भूखा-दुखा के करे लगी अगुवानी

कइसे भोग लगी मंदिर में

घिव के दिया बराई

बलमु भजपाई।

राम के मंदिर...

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मोती बीए जी पत्रकारिता और साहित्य से आजीवन जुड़े रहे ।  फिल्मों में जाना उनकी प्राथमिकता नहीं थी, लेकिन  रोजगार की तलाश ने उन्हें मजबूर किया। जब उन्हें रवि दवे की  फिल्मों में गीत लिखने का निमंत्रण  आया तो  लाहौर का रूख किया जहां पंचोली आर्ट पिक्चर संस्था थी । उनकी मुलाकात संस्था के मालिक दलसुख पंचोली से हुई और पंचोली ने उन्हें 300 रूपए महीना वेतन पर गीतकार के रूप में रख लिया था ।

स्वाधीनता आंदोलन की अलख जगाते रहे भोजपुरी के इस युगांतकारी कवि ,पितामह मोती बीए  को विनम्र श्रद्धांजलि।

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