दोस्तो, लेबनान की कवयित्री सुजैन टालहक अरब क्षेत्रों में अपनी मातृभाषा अरबी को बचाने के लिए संघर्ष कर रही है। एक बार वे अपने देश के एक आधुनिक रेस्टोरेंट में बैठीं थीं, उन्होंने वेटर से जब अपनी मातृभाषा अरबी में मेन्यू मांगा, तो वेटर ने उन्हें पिछड़ा हुआ समझकर उनसे अभद्र व्यवहार किया। वहां वेटर की मनोदशा अंग्रेजी के मुकाबले मातृभाषा को हीन समझने की थी। टॉलहक का मानना है कि कोई भी भाषा जानना और उसमें महारत हासिल करना बुरा नहीं है, लेकिन किसी दूसरी भाषा में महारत हासिल करने के लिए आपको अपनी मातृभाषा का अच्छा ज्ञान होना चाहिए। अगर आपको अपनी मातृभाषा का ही ज्ञान नहीं है, तो आप विदेशी भाषा कैसे बोल पाएंगे ?
महान साहित्यकार खलील जिब्रान ने अपने लेखन की शुरुआत अपनी मातृभाषा में की थी और बाद में अंग्रेजी में लिखना शुरू किया। उनकी लेखनी, कल्पनाओं और दर्शन में आपको उनके गांव, वहां के पहाड़ों और वहां के माहौल की झलक मिलती है। इसका मतलब यह है कि कोई इंसान अपनी संस्कृति और सभ्यता से अलग होकर अच्छा लेखक या कलाकार नहीं बन सकता। संस्कृति के संस्कार हमें मातृभाषा से ही मिलते है। दोस्तो, तुम्हारे कई दोस्त उनसठ रुपये नहीं समझते और फिफ्टी नाइन समझ जाते हैं। इसका मतलब यह है कि उनके भीतर अपनी मातृभाषा के संस्कार नहीं है और उनमें मातृभाषा को लेकर आत्मविश्वास की कमी है। इससे यह भी पता चलता है कि वे अपनी भाषा को दूसरी भाषा के मुकाबले हीन समझते हैं। यह अच्छा संकेत नहीं, क्योंकि मातृभाषा के संस्कार हमें अपनी संस्कृति से जोड़ते है। मातृभाषा में चूंकि हम अपनी बात अच्छी तरह कह-लिख सकते है, इसलिए इससे हमारे अंदर आत्मविश्वास विकसित होता है। विश्वगुरु रवींद्रनाथ टैगोर ने
मातृभाषा को मां की तरह ही आदरणीय कहा है, तो भारतेंदु हरिश्चंद्र ने उन्नति के लिए मातृभाषा को जरूरी माना है।
हमारी पहचान है भाषा
गांधी जी अंग्रेजी के विद्वान थे, लेकिन वे मातृभाषा में ही शिक्षा के पक्षधर थे। उन्होंने श्हिंद स्वराजश् में लिखा था- श्मातृभाषा का स्थान दूसरी भाषा नहीं ले सकती। शिक्षा में विदेशी माध्यम बच्चों पर दबाव डालने, रटने और विदेशियों की नकल करने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करता है तथा उनमें मौलिकता का श्अभाव पैदा करता है।श् मातृभाषा ही सबसे पहले इंसान को सोचने-समझने और व्यवहार की समझ देती है। मातृभाषा का व्याकरण नहीं सीखना पड़ता, वह स्वतः ही आ जाता है, इसलिए इस भाषा में सीखने से हमारा स्वाभाविक विकास होता है। मातृभाषा हमारी मानसिकता, समझ और भावनाओं को व्यक्त करती है, इसलिए यही हमारी पहचान है। अंग्रेजी के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता, किंतु हिंदी कहीं भी पीछे नहीं है। यह सिर्फ बोलचाल की भाषा नहीं, बल्कि सामान्य काम से लेकर मीडिया और एंटरनेटमेंट तक के क्षेत्र में इसका प्रयोग बखूबी हो रहा है।
अपनी मातृभाषा बुन्देली को लेकर आत्मविश्वास जगाएं
अपनी मातृभाषा को लेकर हमें अपने भीतर भरपूर आत्मविश्वास होगा। अगर हमारी मातृभाषा बुन्देली है, तो हमें अपने अंदर बुन्देली बोलने का आत्मविश्वास होना चाहिए। हम दूसरी भाषाएं अवश्य पढ़ें, लेकिन मातृभाषा बुन्देली के प्रयोग में अपने भीतर हीन भावना न लाएं। वहीं स्वयं को आधुनिक दिखाने के लिए मातृभाषा बुन्देली बोलने वालों की हंसी भी न उड़ाएं। हमारे अंदर बुन्देली बोलने का आत्मविश्वास होना चाहिए। आशुतोष राणा, गोविंद नामदेव आदि कई मशहूर अभिनेता है, जो बड़े आत्मविश्वास के साथ बुन्देली बोलते है।
मातृभाषा में करे अभिव्यक्त भले ही तुम्हारी शिक्षा का माध्यम कोई भी भाषा हो, लेकिन सबसे पहले तुम्हें मातृभाषा बुन्देली में सोचना, लिखना, बोलना आना चाहिए। अपनी संस्कृति में रची-बसी भाषा में हम बेहतर तरीके से अपने विचारों को व्यक्त कर सकते है।
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