-सुरेंद्र सिंह '
आगरे का दृढ़ दुर्ग मुगलिया वैभव का प्रदर्शन कर रहा था, लाल पत्थरों से मानो मंगोलों का वे रक्त जो उन्होंने बहाया था, दिखता। आगरा नगर अब हिंदुस्तान का केंद्र है, पंजाब, राजपूताने,मालवा, बंगाल और तराई से व्यापारियों के काफिले इधर ही आते। दिन भर में काजी के चर समूह में घूमते, सौदों की चिल्लाहट दिनभर गूंजती, जमुना की ठंडी धार से उठती पवन किले की प्राचीरों में आर्द्रता भरती। दिन चढ़ने के साथ हिंदुस्तान के हर कोने से आते सुर शोर में बदलते, प्रातः की शुरुआत पंजाबी नज़मो और सूफी तराने से होती, तू सांझ राजपूताने के बंजारों के मूमल गान से।
आज बाजार ए आगरा कुछ मंद और शांत है, जुम्मा जो ठहरा,बस कुछ हिंदू व्यापारी दिख जाते, जो भी केवल थोक माल ही लादते और ढोते। आज बाजारी रौनक तो किला- ए -आगरा के सामने वाले मैदान में बिखरी थी , रंगीन तंबुओं से चारदीवारी, तीस पर सैनिकों का बाहर कठोर पहरा।अंदर मुगलिया वैभव का नूर बिखेरती बेग़मो से खिलखिलाता यह मीना बाजार था,बादशाह अकबर की चाह पर इसमें केवल महिलाएं ही क्रय विक्रय करने की अधिकारी थी। बाजार में रेशमी पर्दों तले कई दुकानें सजी थी। इतर, अंबर,रेशमी रुमाल, मुक्तिकमाला व अन्य कई आभरणों की दमक चार चांद लगाती। बादशाह सर्वाधिक सुंदर दुकान को पुरस्कार देते और दुकान की मालकिन हरम की रात -रागिनी बनने की हकदार भी होती। बाजार में गंगा -जमुनी तहजीब की अद्भुत दमक थी, हरम की बैगमें, आमेर की राजपूतानीयों सँग ठहाके लगाती।
बाजार की चहल-पहल में ही स्वर गूंजा ' बा अदब.... बामुलाजा होशियार, बादशाही हिंद... मुग़ल अबुल मुजफ्फर....जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर तशरीफ ला रहे हैं...।'
ऐसा कहकर सारे सैनिक शमियाने से बाहर निकल गए,अब केवल इतनी सारी महिलाओं के बीच केवल मर्द नाम पर बादशाह अकबर शेष थे।
शोर शांत हो गया,भीड़ में एक मार्ग स्वतः ही उभर गया, अपनी मंगोल मूछों को ताव देता बादशाह अकबर दुकानों को देखता सामान छूता आगे बढ़ने लगा। सभी औरतें बेपर्दा थी, बादशाह उनकी वस्तुओं को हाथ से छूता, मूल्य पूछता और मधुर मुस्कान बिखेर कर लज्जामय वातावरण बना देता।
दिन चढ़ने लगा, बादशाह भी कदम तीव्र कर आगे बढ़ता,औरतों के परवाने सुनता,हंसता और कुछ खरीद लेता। एकाएक बादशाह के कदम रुके अपनी नाक से उन्होंने गहरी श्वास ली और देखा तो पाया, इत्र व धूप की इस दुकान से दिलखुश महक उठ रही थी। यह दुकान मेवात के सूबेदार शरफुद्दीन की बहन 'अबीदा मस्तान जान' की थी, नव यौवन जोधपुरी नक्काशीदार सूती सलवार में लिपटे और समुद्री नवरत्नों के आभरणों से उन पर और चांद लगाए,तन कर खड़ी आबिदा जां ने बादशाह को आता देख सलाम बजाया,
'बांदी का इस्तकबाल कबूल करें,शहंशाह ए हिंद, क्या हुक्म फरमाते हैं.'
अकबर( हंसकर)- तुम्हारी दुकान से उठती यह दिलखुश महक ,अबीदा! क्या जन्नत के फूल लाई हों ?
आबिदा झेप गई,फिर हंस कर बोली - बादशाह फरमाए, क्या चाहेंगे ! अजमेर का सूफि या,जौनपुर का दिलरुबा इत्र लाहौर का जाने सनम इतर भी है
बादशाह ने कांच की डिबिया सूंघ -सूंघकर महक का लुफ्त उठाया, दर्जनभर खरीदी और अशर्फियों से भरी थैली आबिदा के हाथों में रख दी। आबिदा दुआओं के कसीदे गढ़े।
बादशाह आगे बढ़ते इससे पहले उनके कदम ठिठके , दुकान मसे कुछ दूर आमेर कुँवरियो के बीच एक रक्त रजवाड़ी पोशाक पहने और लंबा घूंघट ताने खड़ी एक राजपूत बाला हंस-हंसकर सखियो से बतिया रही थी। बादशाह की परवाह बगैर महीन चुनरी से झलकता क्षत्राणी का तपे हुए कांचन सा मुख देख बादशाह बोरा गया,उसने खासकर उन कोहलाल मचाती बालाओं को शांत किया, खिलखिलाती क्षत्राणी ने सावधान होकर घूंघट और लंबा तान दिया। बादशाह की भूकुटी तन गई।
एक औरत की यह बदसलूकी देख वह चीखें -क्या हमारे हुकुम से कोई अनजान है ! मालूम हो कि मीना बाजार में पर्दा मना है।
तभी आबिदा जान आगे आई व हाथ जोड़ कर कहा - ' गुस्ताखी माफ हुजूर, बांदी नई है, आगरा में शायद उसूल ने जानती है।
अकबर कन्या का चेहरा देखने का प्रयत्न कर बोला - कौन है यह ?
आबिदा ( धीमे स्वर से)- यह राजपूतानी मेवाड़ महाराणा की भतीजी और आपके शरणागत शक्ति सिंह की बेटी किरण बाई सिसोदिया है।
अकबर की आंखे चमकी,तिरस्कृत भाव से बोला- उस मेवाड़ महाराणा की भतीजी जो अरावली के पत्थर गिन रहा है !
घूंघट में किरण का मुख अग्नि सा देहकने लगा, हाथ घूंघट पर मचलने लगे, मानो वह तलवार की मूठ हो।
तभी कुछ सोच कर एकाएक अकबर कामुक नजर से घूर उसकी ओर बढ़ने लगा और बिल्कुल नजदीक आकर बोला -'तो क्यों ने हम ही आपको कायदा सिखाएं, कि मीना बाजार में पर्दा गैर है।'
आसपास खड़ी कच्छवाह कुमारिया, बैगमें और हरम की औरतें सहम गई,केवल सन्नाटा शेष था।अकबर ने अपनी मादक हंसी से तन कर खड़ी किरण के घुंघट पर जकड़े हाथ पर अपना हाथ रख ज्यों ही खींचा, सिंहनी सी गुर्राकर क्षत्राणी ने घुंघट एक और फेंक दोनों हाथों से तीव्र प्रहार अकबर की छाती पर किया, लड़खड़ा कर बादशाह अकबर भूमि पर सिर के बल गिर गया। बिखरे केशो की परवाह किए बगैर किरण ने संभलते अकबर की छाती पर पैर रखा और वस्त्रों से रजत सी चमकती कटार उसके गले पर रख दी, भवानी से रूद्र रूप में चीखकर कहा -' बोल बादशाह तेरी अंतिम इच्छा क्या है '?
अकबर के नेत्र मानो स्थिर हो गए,बूत बन खड़ी स्त्रियों के चेहरों का रंग उड़ गया।अकबर का चेहरा हसीनों की धाराएं बहाने लगा,आज मानो साक्षात भवानी ने अपना शूल उसकी गर्दन पर रखा हो।
बिखरे घन केशो, कुंदन से शुभ्र स्वरूप और रक्त अंबर राजपूती पोशाक धरे क्षत्राणी के समक्ष शहंशाह ए हिंद ने हाथ जोड़ लिए और गिड़गिड़ा कर बोला - ' मुआफ़ी बख्श दे मुझे, ऐ ! राजपूतानी, मैं हवस में अंधा था..... कुछ रुक कर पुनः बोला - तुम्हे मैं अपना साम्राज्य- जागीरे सब देता हूं, मुझे माफी दे दे'।
घृणा से सराबोर में भीगी किरण ने अपनी कटारा हटाकर अपने हाथ की ही एक शिरा काट ली (राजपूतों में शस्त्र उठाने पर उसे रक्त का भोग अवश्य दिया जाता है )और वहीं से अपने बिखरे केश सुव्यवस्थित किए और अपनी चुनरी का लंबा घूंघट पुनः तान तीव्रता से अपनी सिसोदायी शान बिखेर कुछ दूर चली और भीड़ के निकट पहुंच कुछ रुकी, फिर बगैर मुड़े ही पीछे कपड़े झाड़ते अकबर को सूर्यवंशी स्वाभिमान से बोली -' बादशाह ! तेरा यह साम्राज्य में तुझे भिक्षा में देती हूं, और स्मरण रखना यह करने वाली मैं, उसी अरावली पत्थर गिनते महाराणा प्रताप की एक पुत्री हूं ।