जनजाति लोकनायक बिरसा मुंडा की 148वीं जयंती के अवसर पर उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी में 21 नवम्बर तक किया जा रहा है वृहद आयोजन
छठे दिन सांस्कृतिक आयोजनों के साथ हुई स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों पर संगोष्ठी जिसमें “मावा माटी-मावा राज” पर भी हुई चर्चा
लखनऊ, सोमवार 20 नवम्बर। जनजाति लोक नायक बिरसा मुंडा की 148वीं जयंती के अवसर पर आयोजित “जनजाति भागीदारी उत्सव” में सोमवार 20 नवम्बर को छठे दिन, सांस्कृतिक आयोजनों के साथ स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों पर गोष्ठी भी हुई। बीन वादन, जादू कला, कठपुतली, खानपान और हस्तशिल्प प्रदर्शनी भी आकर्षण का केंद्र बनी।
21 नवम्बर तक गोमती नगर स्थित उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी परिसर में आयोजित इस उत्सव की छठी सांस्कृतिक संध्या का संचालन सरला शर्मा ने किया। उसमें देश की सतरंगी जनजातीय नृत्य, गायन और वादन की मनोरम झलक देखने को मिली। उसमें आगंतुकों ने उत्तराखंड का ताँदी नृत्य, हारूल नृत्य, झारखण्ड का पाइका नृत्य, छत्तीसगढ़ का कर्मा नृत्य, गैड़ी नृत्य, मध्य प्रदेश का गुदुम बाजा नृत्य, उत्तर प्रदेश का झीझी नृत्य, झूमर नृत्य, हुरदुगुवा नृत्य, गरदबाजा नृत्य, होली नृत्य, राजस्थान का सहरिया स्वांग नृत्य, चरी नृत्य, सिक्किम के याकछम नृत्य का आनंद लिया।
उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी में आयोजित रहे जनजातीय भागीदारी उत्सव के तहत सोमवार को लोक एवं जनजाति संस्कृति संस्थान के निदेशक अतुल द्विवेदी की उपस्थिति में ''स्वतंत्रता संग्राम में जनजाति स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की भूमिका'' विषयक संगोष्ठी भी हुई। उसका संचालन करते हुए वर्धा स्थित महात्मा गांधी हिंदी विश्व विद्यालय के प्रदर्शनकारी कला विभाग के अध्यक्ष प्रो.ओमप्रकाश भारती ने कहा कि जनजाति स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में सिर्फ उनकी जीवनी लिखने और उनकी कथाओं को बता देने मात्र से जनजाति स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में लोगों को सतही जानकारी ही मिल रही है। ऐसे में हम लोगों को उनके संचार माध्यम, नेतृत्व करने के तरीके, उनके युद्ध पद्धति, उनके सीखने की प्रक्रिया पर प्रकाश डालने की जरूरत है। जनजाति शोध एवं विकास संस्थान के निदेशक डॉ.बनवारी लाल गोंड ने कहा कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का बीज आदिवासी समाज ने ही रखा। जनजातिय इतिहास के पुनर्लेखन की जरूरत है। जल, जंगल और जमीन से जुड़कर रहने वाला समुदाय को उनके बीच जाकर बारीकी से देखने समझने की आवश्यकता है। “मावा माटी-मावा राज” के उद्घोषक बिरसा मुंडा, तिल्का मांझी, विष्णु मांझी, सिद्धू कान्हू जैसे जनजाति लोकनायकों ने अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष किया और लड़ाइयाँ लड़ी। जनजाति समुदाय के लोगों ने अपनी माटी, संस्कृति, परम्परा को बचाने के लिए अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बीज बोया था। जनजाति विकास विभाग की उप निदेशक प्रियंका वर्मा ने कहा कि प्रकृति प्रेमियों को नए परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है जो तथ्य छूट गए हैं उस पर भी शोध किया जाए। टीआरआई के नोडल अधिकारी देवेन्द्र सिंह ने कहा कि सुझाए गए बिंदुओं का डॉक्यूमेंटेशन किया जाएगा। इस संगोष्ठी में प्रोफेसर डॉ.रुक्मिणी चौधरी सहित वर्धा विश्वविद्यालय के शोधार्थी शिवकांत वर्मा, पं.दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय की शोधार्थी कंचन, हैदराबाद विश्वविद्यालय की शोधार्थी तारा चौधरी, बीएचयू के शोधार्थी बृजभान गोंड भी उपस्थित रहे।
शिल्प मेला में उत्तर प्रदेश का मूँज शिल्प, जलकुंभी से बने शिल्प उत्पाद, कशीदाकारी, बनारसी साड़ी, कोटा साडी, सहरिया जनजाति उत्पाद, गौरा पत्थर शिल्प, लकड़ी के खिलौने खासतौर से पसंद आ रहे हैं। इसके साथ ही मध्य प्रदेश की महेश्वरी साड़ी, चंदेरी साड़ी, बांस शिल्प, जनजातीय बीड ज्वेलरी, पश्चिम बंगाल की कांथा साड़ी, ड्राई फ्लावर, धान ज्वेलरी, झारखण्ड की सिल्क साड़ी, हैंडलूम टेक्सटाइल्स, तेलंगाना की पोचमपल्ली, साड़ी और चादर, महाराष्ट्र की कोसा सिल्क साड़ी, राजस्थान का सांगानेरी ऍण्ड ब्लाक प्रिंट, छत्तीसगढ़ का लौह शिल्प, ढोकरा
एवं बाँस शिल्प, असम का हैंडलूम गारमेंट और सिक्किम का हैंडलूम टेक्सटाइल्स भी आगंतुकों को लुभा रहा है। व्यंजन मेला में उत्तर प्रदेश का भुना आलू चटनी, कुमाऊंनी खाना, मक्खन मलाई, रबड़ी दूध, चाट का स्वाद चखने का अवसर मिल रहा वहीं राजस्थान के व्यंजन, मुंगौड़ी, जलेबी, तंदूरी चाय, जनजातीय व्यंजन, महाराष्ट्र के व्यंजन, मटका रोटी, बिहार के व्यंजन, खाजा, मनेर के लड्डू भी इस आयोजन का स्वाद बढ़ा रहे हैं। जनजातीय वाद्यों की प्रदर्शनी, मोर, जनजातीय झोपड़ी और पूजा स्थल का सेल्फी प्वाइंट भी सबको आकर्षित कर रहा है। मटकी और राजस्थानी कठपुतली की सजावट भी लोगों को पसंद आ रही है।