लेखिका हेल्थ साइकोलोजिस्ट और सामाजिक कार्यकर्त्ता एवं शोध अध्येता हैं
विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस (10 अक्टूबर ) पर विशेष जिसने खुद को जाना बेहतर उसने ही इतिहास गढ़े हैं
-डॉ प्रिया जैन,भोपाल
हम जब सुबह थोड़ा लेट सोकर उठते हैं बच्चे की स्कूल बस आने वाली हो और वो तैयार न हो या टिफिन न बन पाया हो ..... तो कैसा महसूस करते हैं ऑफिस में ज़रूरी मीटिंग हो, प्रेजेंटेशन बनाना हो और तभी बॉस किसी बात पर आप पर बेवजह या अपने किस तनाव की वजह से चिल्ला पड़ें, घर के लोन की किश्त चुकाने की तारीख आ जाये पर अकाउंट में पैसे न हों, परिवार के साथ कहीं घूमने जाने का प्लान बनाया हो पर ऑफिस के काम की वजह से प्लान कैंसिल हो जाये, छोटी-छोटी बात पर जल्दी-जल्दी गुस्सा आये , व्यवहार में चिड़चिड़ापन बढ़ता जाए, लोगो में या लोगो से नाराज़गी बढ़ती जाए। कोर्ट केस, बीमारी ...तलाक ..असफलता ...उफ्फ .. अच्छी जगह भी अच्छा न लगे..मौका मिलने पर और योग्यता होने पर भी परफॉरमेंस बेहतर न हो तो कैसा लगता है आपको .... कैसे डील करते है ज़िन्दगी में रोज़ आने वाली चुनैतियों और अवसरों से ...... इसके लिए मानसिक स्वास्थ्य वास्तव में महत्वपूर्ण है। जब हम मानसिक रूप से स्वस्थ होते है तो हम अपने कार्य और गतिविधियाँ अच्छी तरह से कर लेते हैं। लेकिन कभी-कभी, लोगों को जब मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं हो जाती हैं, तो वे पूरे दिन परेशान और अजीब सी असामान्य स्थितियों में खुद को पाते हैं । क्या वो मानसिक बीमार हैं ....? क्या उन्होंने खुद या उनके परिजनों ने उनके के साथ होने वाली ऐसी स्थितियों पर समय से ध्यान दिया है। कहीं किसी शारीरिक बीमारी के कारण तो वो ऐसे नहीं हो गए या फिर उनकी इन अजीब सी आदतों और व्यवहार के कारण उन्हें कोई शारीरिक बीमारी न हो जाए ... ! ऐसे तो इस इंसान के साथ कोई नहीं रहना चाहेगा ....! कौन रोज़ की चिकचिक में पड़े अकेला ही रहने दो इसे इसे ...... ! कई कहानियां मिल जायेगी ऐसी आपके आस पास ...... किसी इंजीनियर की, प्रोफेसर की, बिजनेसमैन की, कलाकारों की... , बैंकर की और कभी खुश रहने वाले ऐसे ही किसी मस्त इंसान की जो ऐसी ही मानसिक स्थितियों की वजह से या तो आत्महंता हो गया या मानसिक बीमार ...
आज बात करते हैं परावैयक्तिक मनोविज्ञान (ट्रांसपर्सनल साइकोलॉजी) से, जो उन मानवीय अनुभवों के अनुसंधान पर आधारित है जो व्यक्ति के अहं या स्वयं की भावना से परे हैं। यह मानव जीवन के आध्यात्मिक, रहस्यमय और कुछ विशिष्ट पहलुओं का अध्ययन करता है, जिसका लक्ष्य इन अनुभवों के पीछे के गहरे अर्थ और उद्देश्य को समझना है। यह एक ऐसा दृष्टिकोण है जो यह समझने का प्रयास करता है कि किसी व्यक्ति और उसकी उच्च चेतना के बीच का संबंध कैसे उसे व्यक्तिगत ,सामाजिक और आत्म-विकास की ओर ले जा सकता है। जो उसे मानसिक रूप से तुष्ट और स्वस्थ रख सके।
ट्रांसपर्सनल साइकोलॉजी के क्षेत्र में अग्रणी प्रसिद्ध मनोचिकित्सक, शोधकर्ता और स्टैनिस्लाव ग्रोफ का मानना है कि आत्म-साक्षात्कार केवल किसी की क्षमता तक पहुंचने के बारे में नहीं है, बल्कि अहं की सीमाओं पर काबू पाने और अस्तित्व के सभी स्रोत से जुड़ने के बारे में भी है। व्यक्ति ध्यान, प्रार्थना या श्वास जैसी विभिन्न आध्यात्मिक प्रथाओं के माध्यम से इस संबंध को प्राप्त कर सकते हैं, जिससे उन्हें चेतना की उच्च अवस्था प्राप्त करने और अपने मानस के गहरे हिस्सों में जाने में मदद मिलती है। सवाल ये है कि भागदौड़ भरी ज़िन्दगी में कितने व्यक्ति आत्म-बोध प्रक्रिया के विषय विचार कर पाते हैं या इस सन्दर्भ में किसी पेशेवर मनोवैज्ञानिक की सेवाएं लेने के विषय में विचार करते हैं। ये विषय सीधे सीधे अध्यात्म से जुड़ा हुआ लगता है और बहुत से व्यक्ति किसी न किसी आध्यात्मिक गुरु के पास सार्वजानिक सभाओं में जाते हैं जहाँ पौराणिक कथाओं और धार्मिक क्रियाओं के माध्यम से तुष्टि या कहे अपनी समस्याओं के लिए बताये गए सार्वभौमिक समाधान पाने का प्रयास करते हैं। इसमें कुछ सही या गलत नहीं है, आस्थाये और प्रार्थनाये मनोवैज्ञानिक और कई बार चमत्कारिक (पुष्टि नहीं करती) तरीके से प्रभाव छोड़ती हैं। किंतु आत्मबोध की प्रक्रिया स्वयं व्यक्ति के जीवन,अनुभव, व्यवहार, संबंधों ,आवश्यकताओं, प्राथमिकताओं पर भावनाओं,संवेगों,अंतर्द्वंदों, निर्णय लेने की क्षमताओं के प्रभाव का आंकलन करती है जो जीवन के प्रति अलग अलग परिस्थितियों में सही रवैया अपनाने का मार्ग स्वयं को प्रशस्त करती है। इस आत्मबोध की प्रक्रिया में सहायता के लिए आप मनोवैज्ञानिक के पास जाते हैं या कहीं और यह आपके अनुभवबोध या अंतर्द्वंद से पार आकर प्राप्त निर्णय होता है।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान और मनोविज्ञान के उदय से हजारो वर्ष पूर्व प्राचीन भारतीय संस्कृति,साहित्य, ऋचाओं,वेदों उपनिषदों और पारम्परिक व्यवहारों में मानसिक स्वास्थ्य के विषय पर्याप्त उल्लेख मिलते हैं जो प्रामाणिक भी हैं। भगवद गीता के सूत्र ज्ञान ,सम्बन्ध, कर्तव्य, अंतर्द्वंद, संवेगों के नियमन, निर्णय लेने के तार्किक ,व्यवहारिक पक्षों पर व्यक्ति के आत्मबोध के आधार पर प्रकाश डालते हैं। जिसके मूल में अध्यात्म और मनोविज्ञान निहित है। आज के भागमभाग भरे जीवन में जब हम मानसिक शांति ढूँढ़ते हैं तो प्रकृति के सानिध्य में भारतीय ज्ञान परंपरा के अनुरूप योग ,ध्यान, और साधना अपना कर भौतिक व्यवस्थाओ से परे होकर आत्मबोध ही तो चाहते हैं। ताकि जीवन में ऊर्जा का संचय कर बेहतर शारीरिक और मानसिक अवस्था प्राप्त कर पुनः जीवन के रण में अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए आनंद की स्थिति में रह सकें।
किसी भी व्यक्ति की मन की स्थिति व्यवहार में प्रकट होती है. और मन की स्थिति निर्मित होने अथवा उसके प्रभावित होने के कारण शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक और नीतिगत तथा राजनीतिक भी हैं। इस वर्ष मानसिक स्वास्थ्य दिवस की थीम है "मानसिक स्वास्थ्य एक सार्वभौमिक मानव अधिकार है"। निश्चित तौर इसमें मानसिक स्वास्थ्य जोखिमों से सुरक्षित रहने का अधिकार, उपलब्ध, सुलभ, स्वीकार्य और अच्छी गुणवत्ता वाली देखभाल का अधिकार, स्वतंत्रता और समुदाय में शामिल होने का अधिकार शामिल है।
बेहतर मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति नहीं होने पर कभी भी किसी व्यक्ति को उसके मानवाधिकारों से वंचित करने या उसे अपने स्वास्थ्य के बारे में निर्णयों से बाहर करने का कारण नहीं होना चाहिए। फिर भी पूरी दुनिया में, मानसिक स्वास्थ्य की ख़राब स्थिति वाले लोगों को व्यापक स्तर पर मानवाधिकारों के उल्लंघन का सामना किस न किसी रूप में करना पड़ रहा है। कई लोगों को सामुदायिक जीवन से बाहर कर दिया जाता है और उनके साथ भेदभाव किया जाता है, जबकि कई लोग मानसिक स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं तक पहुंच ही नहीं पाते हैं। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंस (निम्हंस) द्वारा 2016 में किये गए एक सर्वेक्षण के अनुसार आबादी का 2.7 प्रतिशत हिस्सा डिप्रेशन या अवसाद जैसे मेंटल डिस्ऑर्डर से ग्रसित थी और इसी सर्वे के अनुसार देश की लगभग 5 .2 फ़ीसदी आबादी कभी न कभी इसी प्रकार के मानसिक डिसऑर्डर से ग्रसित हुई थी. चिंताजनक बात ये है कि मानसिक व्याधियों या असामान्यता से ग्रसित जो व्यक्ति अपने इलाज़ को लेकर संजीदा हैं उन 10 में से 1 व्यक्ति तक ही आवश्यक मनोवैज्ञानिक परामर्श या चिकित्सा की सुविधा की पहुँच है, इस तथ्य की पुष्टि साइंस मेडिकल जर्नल लैनसेट की 2016 की रिपोर्ट भी करती है। पेशेवर मनोवैज्ञानिकों की आवश्यकता बढ़ रही है , इस बारे जागरूकता की जरूरत है और नीतिनिर्माताओं को भी अधिक संवेदनशील होने की आवश्यकता है ताकि प्रशिक्षित सेवा प्रदाताओं की संख्या बढे।
अपने इर्द गिर्द ऐसा वातावरण बनाने की जरूरत है जो यथा संभव आपको तनाव से बचाये। खरीदारी हमेशा ख़ुशी नहीं देती इसलिए अपने संसाधनों को आंकलन कर ही स्वयं पर आर्थिक दबाव बनाये। कहीं आसानी से मिलने वाला क़र्ज़ ज़िन्दगी का मर्ज़ न बन जाए। सुनने और बोलने के साथ कई बार तत्काल न बोलकर चुप रहजाना और बाद में उपयुक्त समय पर प्रतिक्रिया देने से शायद सम्बन्धो में उपजने वाला तनाव पैदा ही न हो। हर व्यक्ति का जीवन अलग है, परिवार का भी.... आर्थिक और सामाजिक विकास जरूरी है पर किस मूल्य पर ? ये बोध भी ज़रूरी है, अनावश्यक भेड़चाल में शामिल होने की जरूरत है भी नहीं तय करना होगा। आपके जीवन में वास्तविक आनंद का स्त्रोत क्या है उसे तलाशिये..... हमारी विरासतों, हमारी सांस्कृतिक उत्सवधर्मिता ने लोगो से जुड़कर रहने के अवसर हमें सिखाये भी है और दिए भी हैं। आशाओं के दीप जलाने जहाँ दीपावली है वहीँ खुशियों के रंग भरने होली भी है, विनम्रता का भाव जगाने और आपसी सौहार्द रखने पर्यूषणपर्व और उत्तम क्षमा जैसे अवसर हैं वहीँ प्रकृति का धन्यवाद देने ,ऋतुओं का स्वागत करने के भी पर्व हैं। जो जीवन जीने के तरीके सिखाते आ रहे हैं। जीवन में संघर्ष और आनंद के अवसरों के बीच आपको अपने बारे में भी सोचने की जरूरत है अपने बारे में जानने की भी जरूरत है ताकि ज़िन्दगी की गाडी का स्टेयरिंग आपके हाथ में हो न कि किसी और के हाथ में । यकीन मानिये तमाम उतार चढ़ावों के बावजूद ज़िन्दगी के सफर में आनंद तो आएगा