साहित्य, दलित साहित्य और डाॅ0 अम्बेडकर
समाज में जब साहित्य की बात होती है तो अधिकतर रचनाकारों, पाठकों का आशय सृजनात्मक लेखन से होता है जो साहित्य लेखन की विविध विधाओं के रूप में देखने को मिलता है इनमें सबसे लोकप्रिय विधायें कविता, कहानी एकांकी, नाटक, उपन्यास हैं। इनके अलावा निबन्ध, संस्मरण, जीवनी, आलोचना, आत्मकथा, साक्षात्कार, पत्रकारिता आदि विधाएं भी प्रचलित हैं जो साहित्य में बखूबी प्रयोग की जाती है जिन्हे साहित्यकार, लेखक, आलोचक, पाठक अपनी अपनी रुचि के अनुसार प्रयोग करतें हैं। सृजनात्मक साहित्य के रचनाकार अधिकतर अपने लेखन के लिये पौराणिक विषयों, ऐतिहासिक विषयों, प्रकृति और मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति, प्रेम सम्बन्धों से विषय चुनते रहे हैं। कुछ रचनाकारों ने कल्पना की उड़ान भरते हुए अवश्य नये विषय चुने हैं जिनका अपना अलग महत्व है उन्हे पाठक बड़ी रुचि के साथ पढ़ते हैं। जब दलित साहित्य की बात आती है तो सृजनात्मक साहित्य और दलित साहित्य में एक खास अन्तर दिखायी देता है। मुख्य अन्तर है विषय चयन का। दलित रचनाकार अपनी रचना के मुख्य विषय और पात्र काल्पनिक, पौराणिक या ऐतिहासिक कहानियों से नहीं उठाते बल्कि वह अपने आस पास घटित हुई उन घटनाओं, व्यक्तिओं, महिलाओं बच्चों पर केन्द्रित करता है जिनके साथ अन्याय, अत्याचार, उत्पीड़न, शोषण केवल इसलिये किया गया है कि वह दलित समाज से है। वह समाज का सबसे मकजोर व्यक्ति है अपनी लड़ाई नहीं लड़ सकता, अन्याय अत्याचार सहना ही उसकी नियति है। डाॅ0 पुरुषोत्त्म‘‘सत्यप्रेमी’’ दलित साहित्य की परिभाषा में कहते हैं ‘‘शोषण, उत्पीड़न, वेदना, भेदभाव की खामोशी को तोड़ना जीवन वीणा के तारों को झंकृत करना और खामोशी को स्वर प्रदान करना ही दलित साहित्य है।’’ सामान्य साहित्य और दलित साहित्य का अन्तर डाॅ0 प्रभाकर माचवे ने बड़ा सटीक किया है। वे कहते हैं ‘‘ हिन्दी भाषा-भाषी समाज में साहित्य समालोचना, साहित्य प्रकाशन , साहित्य शिक्षा प्रचार प्रसार का सारा व्यवसाय एक सवर्ण केन्द्रित रहा है। हिन्दी समालोचकों का दोहरा व्यक्तित्व है उनमें दलित साहित्य के गुणावगुणों को तोलने, पहिचानने के प्रखर प्रतिमानों की कमी है केवल शैली शिल्प, भाषा, चरित्र चित्रण, रोचकता को ही वे साहित्यक सौंदर्य का सार मान बैठे हैं। गाॅवों में दलित जलाये जा रहें हैं, दलित लड़कियों, आदिवासी स्त्रियों को कामुकता की हवस मानकर चलतें हैं और साहित्यकार चुप हैं उनके मन में आक्रोश नहीं जागता, वे केवल कसीदा काढ़ने में ही डूबे हुए हैं इसलिए दलितों के सन्दर्भ में दलितों में से ही सृजनरत साहित्यकार अपनी भूमिका का सार्थक निर्वाह मराठी भाषी दलित साहित्यकारों से प्रेरित होकर दलित साहित्य सृजन में अभिवृद्धि कर रहें हैं। छलित साहित्य के शसक्त रचनाकार ओमप्रकाश बाल्मीक कहतें हैं कि ‘‘साहित्य को समाज का दर्पण कहने वाले साहित्यकार सही अर्थों में साहित्य को समाज का दर्पण बनाने में असमर्थ रहें हैं। सन्त कबीर, रैदास, निराला और प्रेमचन्द को छोड़कर कितने साहित्यकार हैं जिन्होने इस देश के उस समाज पर दृष्टिपात किया है जो युगों से घोर अमानवीय जीवन जी रहा था।’’ जब हम डाॅ0 भीमराव अम्बेडकर के दलित साहित्य की बात करते हैं तो उनका साहित्य एक अलग ही सन्दर्भ में लिखा गया है। जैसा कि पत्रकारिता को साहित्य की एक विधा के रूप में स्वीकार किया जाता है उन्होने दलितों, गरीबों की आवाज उठाने के लिये इस विधा का बखूबी प्रयोग किया है। उन्होने अपने जीवनकाल में चार समाचार पत्र निकाले जिसमें ‘‘मूकनायक’’ सबसे पहला मराठी सप्ताहिक था, बाद में ‘‘बहिष्कृ्त भारत’’ , ‘‘जनता सप्ताहिक’’ और चैथी अंग्रेजी पत्रिका ‘‘इक्वेलिटी’’ थी। इस नाते तो उन्हे साहित्यकार अर्थात् पत्रकार कहा जा सकता है अन्यथा सृजनात्मक साहित्य हो या दलित साहित्य हो इन दोनों से विरत रह कर वे एक अलग ही दलित साहित्य के रचनाकार बने जिसे मानवीय पक्ष रखने वाले दलित संवेदना के रचनाकार कहना अधिक उपयुक्त होगा। जब डाॅ0 अम्बेडकर का जन्म हुआ और थोड़ा बड़े होकर स्कूल आना जाना प्रारम्भ किया, तभी से उन्हे समाज में व्याप्त भेदभाव, ऊंचनीच, जाति पात, छुआछूत आदि सामाजिक विसंगतियों का जमकर सामना करना पड़ा। जैसे जैसे वे शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ते गयें वैसे वैसे उनका दृढ़ संकल्प बनता गया कि वे समाज में फैली इस असमानता को दूर करने का हर सम्भव प्रयास करेंगें, वही उनके जीवन का उद्देश्य बन गया। समाज के उपेक्षित लोगों के लिये उन्होने जो आजीवन संघर्ष किया और उनके लिये लड़ाई लड़ी वही उनका साहित्य है। चूंकि उन्होने आजीवन दलितों वंचितों, गरीबों के लिये संघर्ष किया इसलिये वही उनके साहित्य के मुख्य बिन्दु हैं और उनको मानवीय अधिकार दिलाने का संघर्ष ही उनका दलित साहित्य है जो आज के दलित साहित्य से अलग पहिचान रखता है। डाॅ0 अम्बेडकर का सपना एक सुदृढ़, समुन्नत, सुखी सम्पन्न राष्ट्र और समाज बनाना था जिसमें सब समान हो, सब परस्पर प्रेम, सहयोग और बन्धुता के साथ रहें, कोई छोटा बड़ा, ऊंचा -नीचा या छूत -अछूत न हो इसके लिये उन्होने जाति विहीन और वर्ग विहीन समाज की स्थापना की परिकल्पना की। उनके सपनों के अनुसार समाज की रचना कैसे हो यही उनके समग्र चिन्तन और सृजन का मूल विषय और आधार है। उन्होने समाज, राजनीति, धर्म, कानून आदि में ऐसा कोई क्षेत्र नहीं छोड़ा जिसके बारे में विचार न किया हो और उपलब्धि न हासिल की हो। वैचारिक रूप से वह राजनीतिक क्षेत्र में लोकतंत्र, सामाजिक क्षेत्र में मानववाद, आर्थिक क्षेत्र में समाजवाद, धार्मिक क्षेत्र में बुद्धवाद तथा दार्शनिक क्षेत्र में अनित्य और अनात्मवाद के पोषक रहे। इन्ही सब क्षेत्र में उन्होने जो संघर्ष किया वही उनका साहित्य है। इसीलिये उनका दलित साहित्य आज के दलित साहित्य से अलग है उनका कृतित्व ही सच्चे अर्थों में दलित साहित्य है। डाॅ0 भीमराव अम्बेडकर का सबसे बड़़ा ग्रन्थ ‘‘ भारत का संविधान’’ है जिसके लिये वे भारत में ही नहीं पूरे विश्व में जाने जाते हैं। इसके अलावा भी उनके अनेक ग्रन्थ है जो किसी कपोल कल्पना के विषय पर नहीं बल्कि सच्चे भोगे हुए यथार्थ पर आधारित है इसीलिए उन्हें मानवीय दलित साहित्यकार कहना अधिक उपयुक्त है। इन ग्रन्थों में प्रमुख हैं कास्ट इन इण्डिया (1917), स्माल होल्डिंग इन इण्डिया एण्ड देअर रेमिडीज(1917), दि प्राब्लम आफ दि रूपी(1923), इवैल्यूशन आफ दि प्राविन्शियल फाइनेन्स इन ब्रिटिश इण्डिया(1925),इनहिलेशन आफ कास्ट(1936), फेडरेसन वर्सेज फ्रीडम (1940),मिस्टर गांधी एण्ड द एमेन्सीपेशन आफ दि अनटचेबिल(1949), राना डे, गांधी एण्ड जिन्ना(1943), थाट्स आन पाकिस्तान (1945), ह्वाट कांग्रेस एण्ड गांधी हैव इन टू दि अनटचेबिल(1945), हू वेयर दि शूद्राज(1946), स्टेट्स एण्ड माइनर्टीज (1947), दि अनटचेबिल(1948), थाट आन लिग्विस्टिंग स्टेट्स(1955) और बुद्ध एण्ड हिज धम्म(1957)। कुल मिलाकर अम्बेडकर के दलित साहित्य का स्वर सामाजिक न्याय का स्वर है उसका तेवर चाहे कितना भी तीखा हो या विद्रोही हो उसकी दृष्टि रचनात्मक है इसलिये वह ध्वंस भी करता है तो नव निर्माण के लिय,े कुरेदता भी है तो रचनात्मकता के बीज ढूढ़ने के लिये। दलित समाज की वैचारिक पृष्ठभूमि के लेखक ताराचन्द खाण्डेकर के शब्दों में कहा जा सकता है कि एक व्यक्ति, एक मूल्य को मानकर समता और भ्रातृत्व को स्वीकार करते हुये व्यक्ति का सर्वांगपूर्ण कल्याण साधने का संसदीय जनतान्त्रिक जीवन मार्ग अम्बेडकरवाद है।
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शिवप्रसाद भारती
उपनिदेशक (से0नि0) सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग