रायसेन जौहर दिवस
पत्थरों में जीवंत है वीरांगना सतियों का बलिदान
भारतवर्ष का गौरवमयी इतिहास हमारे वर्तमान के साथ सदैव गतिमान हो सतत चलता ही रहता है। विस्मृतियां भले ही इस गौरव गाथा को थोड़ा धुंधला कर देती हो किंतु इनका अस्तित्व सदैव स्थायी रहता है। स्थानीय समाज अपने इस स्वगौरव को स्मरण करने में समय लगा दे किंतु पत्थरों पर रचा-बसा इतिहास अधिक समय तक मौन नहीं रह सकता और स्वयं ही मुखर होकर अपनी आत्मकथा मानों सबके समक्ष कहने को प्रस्तुत हो जाता है। ऐसे ही शौर्य, पराक्रम, सतीत्व, समर्पण व स्वाभिमान की गाथा को स्वयं ही मुखरित होकर कहने वाला स्थान है बुन्देलखण्ड का पावन भूमि का रायसेन का किला, जिसे सोमेश्वर धाम के नाम से भी जाना जाता है। रायसेन के किले के साथ भी ऐसा ही हुआ एक तिथि जिसने इस किले की कहानी को गौरव प्रदान किया वह है 6 मई1532। इस दिन रायसेन के इस अजेय दुर्ग में भी चित्तौड़ और चंदेरी ललितपुर के पास मध्य प्रदेश के समान ही 700 से अधिक वीरांगनाओं ने अग्नि में प्रवेश कर न केवल अपने सतीत्व एवं स्वत्व की रक्षा की थी अपितु विधर्मियों को अवगत कराया था कि भारत की बेटियां जन्म किसी भी स्थान पर लेती हो किंतु अपने शील की रक्षा हेतु प्राणों की परवाह नहीं करती। चित्तौड़ की रानी पद्मावती के समान ही रानी का संबंध भी उसी राजवंश से था वह मेवाड़ के महाराजा राणा सांगा की पुत्री थीं और उनका विवाह रायसेन के तोमर राजा शिलादित्य से हुआ था । 1531 में गुजरात के सुलतान बहादुर शाह, मेवाड़ के राणा सांगा व रायसेन की शिलादित्य की सेना ने मालवा के अधिकांश भागों को जीत लिया। समझौते के अनुसार शिलादित्य को उज्जयिनी व सारंगपुर के सूबे मिलने थे किंतु मालवा विजय के उपरांत बहादुर शाह को लगा कि शिलादित्य और अधिक सामर्थ्यवान होकर मेरे लिये घातक हो सकता है इसलिए सुलतान ने अपनी योजना बदलकर शिलादित्य को रायसेन का किला खाली कर उसे सौंपने और वापस बड़ौदा जाने को कहा। पराक्रमी शिलादित्य इस बात से सहमत नहीं हुए। बहादुर शाह ने इस विषय पर चर्चा करने के लिये शिलादित्य को अपने कैंप में बुलाया और धोखे से उसे मांडू में कैद कर लिया।कुछ दिनों बाद 1532 में बहादुर शाह ने रायसेन पर चढ़ाई कर किले को घेर लिया। उस समय महल रानी दुर्गावती और शिलादित्य के छोटे भाई लक्ष्मण राय के संरक्षण में था। लगातार कई महीनों की घेराबंदी के बाद भी बहादुर शाह किले में सेंध नहीं लगा पाया तो षड़यंत्र पूर्वक शिलादित्य को अकेले ही किले में प्रवेश करा कर अपने भाई लक्ष्मण राय से आत्म समर्पण करने के लिये कहलवाया। लेकिन उन्होंने युद्ध करने का निर्णय लिया। महीनों चली घेराबंदी के कारण महल में खाद्य सामग्री का अभाव होने लगा अपनी पराजय निश्चित जान शिलादित्य और भाई लक्ष्मण राय ने प्रत्यक्ष युद्ध करना तय किया और रानी दुर्गावती ने विधर्मी को अपना शरीर स्पर्श न करने देने के भाव के साथ सात सौ क्षत्राणियों के साथ मिल अग्नि स्नान करना तय किया।रायसेन की राजपूत रानी दुर्गावती ने 6 मई 1532 को 700 महिलाओं के साथ रायसेन दुर्ग पर ही जौहर किया था. इस जौहर के आज 490 साल पूरे हो गए हैं।
महल के कुंड में धधकी थी जौहर की ज्वाला
6 मई 1532 को रायसेन दुर्ग पर रानी महल के एक कुंड में जौहर की ज्वाला धधक उठी. रानी दुर्गावती समेत 700 राजपूत स्त्रियों ने अपने बच्चों सहित अग्नि कुंड में प्रवेश कर लिया. वहीं शिलादित्य और लक्ष्मण सेन सहित सभी राजपूत मौत से जूझने निकल पड़े. शिलादित्य अंतिम समय तक सेना का नेतृत्व करते हुए 10 मई 1532 ईस्वी को वीरगति को प्राप्त हुए।
बुन्देली वीर और वीरागंनाओं के इतिहास को खोजकर पढे और अपनी विरासत पहचाने।
अपने मान, सम्मान और गौरव की रक्षा के लिए बलिदान हो जाने वाली महान वीरांगनाओं के चरणों में कोटिश: नमन! भावी पीढ़ियों को आप पर सदैव गर्व रहेगा।
जय बुन्देलखण्ड