दामोदर राव की पुण्यतिथि है , पर न तो झाँसी को याद न देश को---------क्या आपको मैं याद हूँ ? मैं , श्रीमंत गंगाधर राव नेवालकर, महाराज झाँसी रियासत, और महारानी झाँसी, लक्ष्मी बाई का दत्तक पुत्र , दामोदर राव नेवालकर
क्या आपको मैं याद हूँ ?
मैं , श्रीमंत गंगाधर राव नेवालकर, महाराज झाँसी रियासत, और महारानी झाँसी, लक्ष्मी बाई का दत्तक पुत्र , दामोदर राव नेवालकर ।
मुझे आपने हमेशा घोड़े पर बैठी मेरी माँ साहब के पीछे बंधा ही देखा है । मेरी माँ के अतुलनीय बलिदान की कथा मे लोग मुझे भुला ही बैठे ।
आज मै आपको अपने उस समय के प्रसंगों की आंखों देखी और मेरा अपना हाल क्या हुआ, उसके बारे मे बताता हूँ ।
मेरा जन्म नाम आनंद राव नेवालकर था , मेरे पिता का नाम वासुदेव राव नेवालकर । मै श्रीमंत गंगाधर राव नेवालकर, के परिवार का ही हूँ।
कंपनी सरकार ने, मुझे झांसी का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया, झांसी के कंपनी सरकार में विलय के आदेश आ गए। मेरे पिताश्री और उनके निधन के बाद ,माँ साहेब और उनके वकीलों ने अनेक कूटनीतिक प्रयास इस आदेश को निरस्त करने के लिए किए, बहुत पत्राचार हुआ, दलीलें दी गईं, पर सब बेकार ।
आखिर , युद्ध छिड़ गया और झांसी घेर ली गई थी । अब बचना नामुमकिन हो गया था । 4 अप्रैल 1858 को आधी रात को माँ साहेब ने अंतिम निर्णय लिया..... झांसी छोड़ना और जहां से संभव हो सके, सहायता एकत्रित करना और पुनः धावा बोलकर झांसी पे अधिकार करना ।
आधी रात का समय ,सारी तैयारियां पूरी करके माँ साहेब घोड़े पर सवार हो गई, पीछे मुझे बैठाया और मजबूत कपड़े से बांध लिया । मां साहेब के पास कुछ छोटे हथियार थे , और हाथ मे थी लंबी और नंगी तलवार ।
झांसी के शहर से होते हुए भांडेरी गेट से कालपी की तरफ कुच करने का निर्णय लिया । भांडेरी गेट से निकलते ही भीषण युद्ध शुरू हो गया था , घटाटोप अंघेरे में ।
आप सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं कि एक छोटा सा बालक घोड़े पे अपनी माँ की पीठ पर दुपट्टे से बंधा हुआ हो, और उसकी माँ , किसी रणचंडी की भांति जान हथेली पे लेकर सैकड़ों ख़ून के प्यासे अंग्रेज़ी सैनिकों से भीषण युद्ध करते हुए रास्ता बना रही हो . ज़िंदा पकड़े जाने का मतलब घोर अनर्थ और बेहद दर्दनाक मौत ।
उस रात , मैंने माँ साहेब में साक्षात दुर्गा रूप देखा था । चारों तरफ अफरातफरी , घायलों का चीखना, चिल्लाना, सहायता के लिए पुकारना, गोलियों की आवाज़ें, सब कुछ अनिश्चित , अंधकारमय ।
हमारे अनेक सैनिक गोलियों से मारे जा रहे थे । मैंने पहली बार युद्धा देखा था पर मुझे मौके की नज़ाकत मालूम थी, मैंने माँ साहेब को ज़ोर से जकड़ रखा था । आखिर , माँ साहेब ने सही सलामत इस चक्रव्यूह को तोड़ ही लिया और 24 घंटे में 93 मील की दूरी तय करने के बाद सब काल्पी पहुँचे । अंग्रेज़ पीछे लगे होने की पूरी आशंका थी ।
आनेवाले दिनों में तेज होती लड़ाई के अंदेशों के बीच महारानी ने मूझे अपने विश्वास पात्र सरदार रामचंद्र राव देशमुख को सौंप दिया ,और खुद ग्वालियर की तरफ रवाना हो गईं और फिर वहां युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुईं।
मैं माँ साहेब की शहादत पे ठीक से रो भी नही पाया था । ख़तरा अब मेरे और मेरे साथ के सरदारो और सैनिकों पर आ टिका था । अंग्रेज़ अब हम सब को ढूंढ़ रहे थे ।
तीन दिन तक ग्वालियर में छिप-छिप कर रहने के बाद रामचंद्र राव देशमुख तथा रघुनाथ सिंह के नेतृत्व में युद्ध में जीवित बचे माँ साहब के 60 विश्वासपात्र, मुझे लेकर चंदेरी की तरफ प्रस्थान कर गये।
उस समय हमारे पास 60 ऊँट तथा 22 घोड़े , और 60,000 रुपये बचे थे। मार्ग बहुत असहनीय था, अंग्रेजों के डर के कारण रास्ते में हम लोगों को कोई न तो मदद देता, ना शरण।
ईश्वर की अजीब लीला थी , जिन लोगों के लिए माँ साहेब ने अपने प्राण दे दिये जिन्हें वे अपने शरण में रखती थी, आज वे लोग ही उनके बेटे तथा लोगों को भोजन तक नही दे रहे थे । मार्ग में रहने लायक व्यवस्था तथा सामानों के न होने के कारण हमे, खुले आसमान के नीचे घासों पर सोना पड़ता था।
गर्मी के महीने में तेज धूप के कारण शरीर की त्वचा जल जाती थीं। खाने के लिए कुछ नही होता तो जंगली फल खाने पड़ते थे ,। कुछ समय बाद वर्षाऋतु आ गयी और पूरे जंगल में बाढ़ की तरह पानी फैल गया। ये दिन सभी लोगों के लिए बहुत ही कष्टप्रद थे ।
हमारा जीवन जानवरों से भी बदतर हो गया था। ईश्वर की कृपा से एक गाँव का मुखिया मदद के लिए तैयार हो गया। वो 500 रुपया हर महीने और हमारे 9 घोड़े तथा 4 ऊँट देने के बदले , हम सभी साठ लोगों के लिए आवश्यक वस्तुओं, भोजन सामग्री आदि देता था।
हमारे सरदार रघुनाथ सिंह के सुझाव पर हम सब कई समूहों में रहने लगे । मेरे समूह में कुल 11 लोग थे जो मेरी देखरेख करते थे। कुछ दिनों बाद , हम लोग बेतवा नदी के पास स्थित एक गुफा में रहने लगे। इस दौरान मैं बीमार भी रहने लगा था ।
धीरे-धीरे सभी समूह के लोग जहां-तहां बिखर गये। जिसे जहां आश्रय मिला, वहीं पहचान छिपा कर रहने लगे। गुफा में दो वर्ष तक रहने के बाद पैसों की कमी होने लगी, अब गाँव के मुखिया ने हम लोगों को कहीं और चले जाने के लिए कहा । हम बचे हुए 24 लोग ग्वालियर राज्य के शिपरी-कोलरा गाँव में आश्रय लेने पहुँचे ।
दुर्भाग्यं से सभी लोगों को राजद्रोही समझकर जेल भेज दिया गया तथा सारे बचे हुए घोड़े, ऊँट तथा अन्य संसाधन जब्त कर लिये गये। जेल से छूटने के बाद और कई दिनों तक पैदल चलने के पश्चात सब झालावाड़पतन पहुँचे, वहां पहले से ही समूह के कई लोग शरण लेकर रह रहे थे जिनका संबंध झाँसी सेे था।
उन लोगों ने हम सभी की हरसंभव मदद की । उन्हीं में से एक नन्हेखान थे जो झाँसी में रिसालदार थे। नन्हेखान महारानी के मृत्यु के पश्चात झालावाड़-पतन में आकर रहने लगे थे तथा एक अंग्रेज अधिकारी मिस्टर फ्लिंक के दफ्तर में काम करते थे।
नन्हेखान ने मुझे मिस्टर फ्लिंक से मिलवाया तथा मेरे लिए पेंशन की व्यवस्था करने के लिए प्रार्थना की। मिस्टर फ्लिंक दयालु स्वभाव के थे, उन्होंने इंदौर में अपने समकक्ष एक अंग्रेज अधिकारी को झाँसी की रानी के बेटे को पेंशन देने के लिए संदेश भेजा। जिसके जबाव में उस अधिकारी ने कहा कि यदि मैं सरेंडर कर सकूं तो वोे पेंशन की व्यवस्था करेगा, मैंने ऐसा ही किया ।
कुछ दिन तक झालावड़-पतन में बंदीगृह में रहते समय झालावड़-पतन, राजस्थान के राजा पृथ्वीसिंह चौहान से मेरी मुलाकात हुयी। पृथ्वीसिंह चौहान ने भी अंग्रेज अधिकारी को सिफारिश पत्र भेजकर कहा था ये लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र हैं, इनका संरक्षण किया जाए।
उसके बाद झालावड़पतन से हम अपने सहयोगियों के साथ इंदौर के लिए निकल पड़े। रास्ते में पैसों की कमी के कारण न चाहते हुए भी मुझे अपनी माँ साहेब के दिए दोनों कंगन बेचने पड़े जो उनकी आखिरी निशानी मेरे पास बची हुयी थी। 5 मे, 1860 को , इंदौर पहुंचने पर मुझे 200 रुपया प्रति माह पेंशन मिलने लगी तथा साथ में केवल 7 लोगों को रखने की ही अनुमति मिली।
मेरा शेष जीवन इंदौर में ही बीता, मेरे दो विवाह हुए, दूसरा, पहली पत्नी के देहान्त के बाद हुआ । पुत्र भी हुए । यहाँ मुझे चित्रकारी और फोटोग्राफी के शौक पूरा करने का अवसर मिला । मेरे पुत्र जीवन मे खास नही कर पाए और घोर गरीबी में ही जीवन यापन करना शायद उनके प्रारब्ध में था ।मैंने अपनी अत्यन्त वीर , बुद्धिमान , और सुंदर, माँ की याद में अनेक चित्र बनाए ।
मुझे बाद में पता चला कि ,अंग्रेजों ने हमारे झांसी छोड़ने के बाद , माँ की प्यारी झांसी को कई चरणों मे लूटा और पूरी तरह बर्बाद कर दिया । अगर ,अपने लोग साथ देते और दगा न देते तो माँ कभी भी झांसी अंग्रेज़ो को नही देने वाली थी । पर इतिहास को कौन बदल पाया ।
पुनःच :
आज उन्ही दामोदर राव की पुण्यतिथि है , पर न तो झाँसी को याद न देश को ।
निरंजन धुलेकर ।