श्याम कुमारइलाहाबाद (अब प्रयागराज) में मैंने बड़ी उमंग से ‘रंगभारती’ की स्थापना की थी। युवावस्था थी एवं जोश छलक रहा था। कुछ न कुछ नया करने की कल्पनाएं कूट-कूटकर भरी हुई थीं। इलाहाबाद में मेरा बहुत बड़ा घर था, जिसमें २५ कमरे व एक हॉल था। बाहर दो परियां बनी हुई थीं, जो गणेश जी को चंवर झल रही थीं। इसीलिए वह हवेली परीवाली कोठी के नाम से मशहूर थी। मैंने उसका परिष्कृत नाम ‘परी भवन’ कर दिया था । वह भवन इतना मशहूर था कि चिट्ठियां केवल ‘परी भवन, इलाहाबाद’ लिखा होने पर भी पहुंच जाती थीं तथा रिक्शेवाले भी इस नाम से पूरी तरह परिचित थे। परी भवन में जो हाॅल था, उसका नाम केसर सभागार था। पिताजी उस हाॅल में लगभग प्रति सप्ताह कोई न कोई धार्मिक, साहित्यिक, शास्त्रीय या सुगम संगीत आदि के कार्यक्रम किया करते थे।पिताजी हर महीने एक-दो बार मुशायरों के आयोजन करते थे, जिनकी बहुत अधिक ख्याति थी।उच्चन्यायालय के अनेक न्यायाधीश भी मुशायरों में हमारे यहां आया करते थे।तमाम शायर उन मुशायरों में अवसर पाने के लिए लालायित रहते थे। पिताजी स्वयं भी शायरी करते थे। खुमार बाराबंकवी, शकील बदायुँनी, दिल लखनवी,राज इलाहाबादी आदि तमाम शायर परी भवन के मुशायरों से ही शुरू हुए और बाद में उन्होंने देश में भारी शोहरत हासिल की।फिराक गोरखपुरी अकसर हमारे यहां आते थे। हमारे केसर सभागार में बीच-बीच में 'इन्डो-पाक मुशायरे' भी आयोजित होते थे, जो सीधे हमारे घर से रेडियो द्वारा पाकिस्तान तक प्रसारित होते थे।उस समय टीवी नहीं था । परीभवन के एक कमरे में रेडियोस्टेशन के आवश्यक यन्त्र स्थापित किए जाते थे तथा वहीं से सीधा प्रसारण होता था। जब मैंने ‘रंगभारती’ की स्थापना की तो नए-नए प्रयोग करने का बड़ा जोश था। तमाम ऐसे कार्यकलाप थे, जिन्हें देश में पहली बार ‘रंगभारती’ ने शुरू किए। ‘रंगभारती’ की स्थापना करते ही मैंने नए-नए कार्यक्रमों की झड़ी लगा दी। बहुतेरी ऐसी चीजें थीं, जिनकी देश में पहली बार शुरुआत हुई। हमने पथनाटिकाओं का सूत्रपात किया व ऑरकेस्ट्रा की शुरुआत की। तब विद्यालयों में तो सांस्कृतिक कार्यकलाप खूब हुआ करते थे, किन्तु सार्वजनिक रूप में वैसेे आयोजन नहीं होते थे। हमने गायन, नृत्य, हास्य आदि की प्रतियोगिताओें का सूत्रपात किया, जिनमें विजेता प्रतिभाओं ने बाद में राष्ट्रीय स्तर पर धूम मचाई। पहली बार मूंछ-प्रतियोगिता, तोंद-प्रतियोगिता, सीटी-वादन प्रतियोगिता आदि के रोचक आयोजन किए। परिचर्चाओं के कार्यक्रम शुरू किए। ‘रंगभारती’ के खेल विभाग ने कंचा, गुल्ली-डंडा, शतरंज, कैरम आदि की प्रतियोगिताएं बड़े पैमाने पर कीं। ऐसी उपलब्धियों की बहुत लम्बी श्रृंखला है। १९६१ में ही मैंने तय किया कि हास्य कविसम्मेलन का आयोजन किया जाय। उस समय केवल श्रृंगार एवं वीर रस के कविसम्मेलन आयोजित होते थे, जिनमें गया प्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ आदि ब्रज भाषा के कवियों का रंग भी शामिल रहता था। बेढब बनारसी, चोंच, भैया जी आदि हास्यकवि थे तथा उनमें से मात्र एक-दो हास्यकवि श्रृंगार व वीर रस के कविसम्मेलनों में शामिल कर लिए जाते थे। शुद्ध हास्य रस के कविसम्मेलन का कहीं नाम भी नहीं था। जब मैंने हास्य कविसम्मेलन शुरू करने का विचार किया तो उसका उद्देश्य रखा-‘आज की तनावभरी जिंदगी में हंसना-हंसाना’। लोगों ने जब हास्य कविसम्मेलन के आयोजन की बात सुनी तो मेरा मजाक उड़ाया और सभी ने हतोत्साहित किया। घर के वातावरण के कारण मैं भी कविता व शायरी करने लगा था। एक शायर सलीम शाहिद मेरे यहां आते थे। उन्होंने सुझाव दिया कि आयोजन बड़े पैमाने पर किया जाय तथा उसके लिए चंदे से धनराशि एकत्र की जाय। मैं उनकी बातों में आ गया और प्रयाग संगीत समिति का हाॅल बुक कर लिया। रसीद-पुस्तिकाएं भी छपाकर चंदा इकट्ठा करने के लिए सलीम शाहिद सहित विभिन्न लोगों में वितरित कर दीं। मेरे पिताजी यह सुनकर बहुत नाराज हो गए। उन्होंने मेरी मां से मेरे लिए कहा कि जिस प्रकार वह बिना चंदे के अपने पैसे से आयोजन किया करते हैं, वैसे ही मैं भी करूं। कार्यक्रम होने में दो दिन रह गए थे, किन्तु किसी ने रसीद-पुस्तिकाओं का एक भी पैसा नहीं दिया। मुझे बड़ी चिंता होने लगी। इकबाल नामक एक मशहूर गिटारवादक मेरे पास अकसर आया करते थेे। उस दिन वह आए और उन्होंने कहा कि उनकी मां का देहान्त हो गया है तथा मैयत उठाने के लिए उनके पास पैसे नहीं है। उनका कष्ट सुनकर मुझे आंसू आ गए तथा मेरे पास जो रुपये थे, मैंने उन्हें दे दिए। हालांकि बाद में पता लगा कि इकबाल अपनी मां के देहान्त की झूठी बात कहकर मुझसे रुपये ऐंठ ले गए थे। धन के आभाव में जब बड़ी जटिल स्थिति हो गई तो मैंने प्रयाग संगीत समिति के बजाय अपने घर के हाॅल ‘केसर सभागार' में ही कार्यक्रम करने का निर्णय किया। मैंने मां को यह बात बताई और यह भी कहा कि रचनाकारों को घर में ही ठहराऊंगा तथा वह यहीं उनके नाश्ते-भोजन आदि का इंतजाम कर दें। मां समझ गईं कि कुछ गम्भीर समस्या है, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा और पूरी व्यवस्था कर दी। अब सवाल कवियों के भुगतान तथा लाउडस्पीकर आदि अन्य तमाम तरह के छोेटे-बड़े खर्चाें का था। काफी धनराशि पहले खर्च हो चुकी थी, बाकी इकबाल ऐंठ ले गए थे। मैं सम्पन्न घर का एवं शौकीन रुचि का था। मेरे पास हीरे, नीलम व सोने की अंगूठियां थीं, जिन्हें मैंने एक सज्जन के जरिए चुपचाप बेचा। उसकी भनक मैंने घर में या बाहर किसी को भी नहीं लगने दी। इस प्रकार एक अप्रैल, १९६१ को इलाहाबाद के ‘परी भवन’ में देश का पहला हास्य कविसम्मेलन आयोजित हुआ, जो बहुत अधिक सफल हुआ। लेकिन उस आयोजन में लोग हंसी के ठहाके लगा रहे थे और उनके बीच मेरा दिल चुपचाप रो रहा था। मेरे उन आंसुओं की नींव पर देश के पहले हास्य कविसम्मेलन की इमारत खड़ी हुई। लेकिन अभी एक और गहरी चोट बाकी थी। एक सज्जन ने, जिनकी बरबाद जिंदगी मैंने संवारी और उन्हें शून्य से शिखर पर पहुंचाया, मुझसे डेढ़ लाख रुपये मांगे। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि उन सज्जन के दुर्दिन बीत चुके थे तथा अब वह सम्पन्न हैं। इसके अलावा वह सज्जन अच्छी तरह जानते थे कि शीघ्र ही एक अप्रैल को ‘घोंघाबसंत सम्मेलन’ आयोजित होने वाला है, जिसमें बहुत अधिक धनराशि खर्च होती है तथा सारा व्यय-भार मुझे वहन करना है। मुझे कोई सरकारी सहायता नहीं मिलती तथा मैं अपने पैसे लगाकर समाजसेवा एवं सांस्कृतिक कार्यकलाप आदि करता हूं। मैं उस समय स्तब्ध रह गया, जब उन सज्जन ने मुझसे कहा कि मैं ‘घोंघाबसंत सम्मेलन’ का आयोजन न करूं और उन्हें डेढ़ लाख रुपये दे दूं। मैंने कहा कि मैंने बड़े-बड़े कष्ट सहकर विश्व का सबसे पुराना यह हास्य- आयोजन अबतक जीवित रखा है तथा यदि मैं आयोजन नहीं करूंगा तो मुझे बहुत गहरा सदमा पहुंचेगा। लेकिन मेेरी किसी बात का उन सज्जन पर असर नहीं हुआ और उन्होेंने मुझे अपमानित किया। वह सज्जन शुरू से मेरे परोपकार व समाजसेवा के कार्याें तथा सांस्कृतिक कार्यकलापों को फालतू काम बताकर उन्हें बंद कर देने के लिए कहते रहे हैं। उन सज्जन ने कभी यह नहीं सोचा कि मेरी परोपकार की प्रवृत्ति के कारण ही उनका उद्धार हुआ था, अन्यथा वह शून्य की स्थिति में रह गए होते। उन सज्जन से मुझे जो अपमानित होना पड़ा, उसने मुझे बुरी तरह तोड़ दिया।
देश का पहला हास्य कविसम्मेलन
१९६१ में