यदि कहीं रंच भी उसमें होतातो कभी न विचारता आगा - पीछा कर देता मैं राजतिलक उसका ही पहले निज परंपरा छोड़, तोड़ कर परम प्रतापी सूर्य वंश की। तुम सदा सुपंथ पर चलीं परंतु क्यों आज अचानक इस कुपंथ पर पहले सुपंथ का कर विचार फिर कुपंथ पर चरण धरो कैकेयी! खो रहा वही विश्वास कभी अतिशय कृतकृत्य हुआ था मैं पा करके जिसको तुम ही हो वह नारी देवों ने भी खूब सराहा था जिसको संग - संग मेरे भाग्यलेख पर रीझे थे सुर, नर, मुनि याद मुझे आता है फिर - फिर था रोक रहा जो हाथ तुम्हारा बाहर गिरने से रोकना निज कोमल उंगली से चलते रथ के विशाल पहिए को था गौरव हर नारी का वह मैं आगे बढ़ सका युद्ध में प्रेयसि के उस बल पर आया था मुझको प्यार बहुत था हुआ बहुत ही गर्व किंतु आजलज्जित हूं उसपर माना वह तेरा अपना बल था नारी के ऐसे शौर्य न पहले जग ने देखे थे बस इसीलिए तो कायल था तेरी वीरांग वृत्ति का उस अपनेपन का गद्गद भी रहता था उस पातिव्रत्य पर सदा तुम्हारे सोचा था सौ बार गर्व से माना था तुम थीं वरेण्य पर अब लगता है वह था भ्रम मेरा या फिर था वह छद्म प्यार तुम जैसी विषकन्या का अब कहता हूं
था गर्व तुम्हारे जिस साहस परवह गर्व नहीं मेरा मतिभ्रम था शायद सबला होने का दंभ तुम्हारा था प्रचंड इसलिए तुम्हारा वह साहस सारा दुस्साहस था वह लेश नहीं था प्रेम न उसमें रस था भीतर भरे हलाहल वाला स्वर्ण कलश था छलना थी वह प्रीति तुम्हारी मुझको ठगने का ही उपक्रम था प्राण बचाने के उद्यम के प्रति सदा तुम्हारे परम कृतज्ञ हूँ पर मत भूलो घायल भी हूँ बिंधे तीर से पंछी-सा था भले शाप श्रवण के पिता तपस्वी शांतनु का कहीं शर्त से पहले तेरी आँखें खुल पातीं मेरी पुत्र छोह से बच सकता था था तीर श्रवण को लगा है बैठ वही तो गया राम के हिय में भी है वही पीर इस उर में भी जो शांतनु के थी रह रह कर है रही चीर उर में ज्वाला भी धधका कर है रही जला कहीं ज्ञानवंती तुम भी बन पातीं तो रह पाते थे राम यहीं पर संग भरत के मन में छलना भरे हुए तुमने जो थे वर मांगे इससे अच्छा था तुम न लगातीं हाथ और न बचातीं उस रण में पहिया दशरथ के रथ का वहीं निकल गया होता तड़प-तड़प कर मर जाता मैं बाणों से बिंधकर अरि के वह भी इस तड़पन के वज्रघात से कम होता वीरों के हाथों जाते प्राण वीरगति भी मिल जाती इस तरह न होती मृत्यु कि कामी,कायर कहलाता लोभ मोह में इतनी भी अंधी मत हो जाओ जो ममता पर रख पांव कुचल आगे बढ़ जाओ केवल अपना ही नहीं मैथिली का भी कुछ सोचो वह सदा सुहागिन बनी अभागिन आगे कैसे जी पाएगी जब अंगड़ाई पर है तरुणाई चपल पदों में हैं अवलिप्त रक्तगर्भा जावक के अमित अवलेप- चिह्न हैं शेष कथा कहते प्रणय की उसके हृदयस्थल में अंकित अक्षत - अक्षर श्रीराम के किस तरह कुरेद कर उन प्रेमिल वर्णों को उसके प्रियवर जाएंगे वन को थोड़ा अपने पर भी रखकर यह सब सोचो तो कैकेयी! कब रह सकीं विलग हो मुझसे कब सह सकीं बिथा विरह की क्योंकर गईं युद्ध में संग-संग कुछ सोचो! जीवन के चौदह वसंत सहे ऋतुपति के पुष्पबाण रहकर राजमहल में निपट अकेले ऐसे तो वह रह न सकेगी अँधियारा जीवन का कैसे छांट सकेगी वह अबोधमन बाला मैथिली नवेली ! कैकेयी ! पहले छीना पति जिसका अब बेटा भी छीन रही हो बिन बछड़े की गाय सरीखी कितना रंभाएगी तड़पेगी वह माता प्रिय रघुवर का वन जाना कैसे सह पाएगी कोशल्या भी एक प्रिया का हृदय दूसरा मां का तड़पाना कितना अनुचित है खुद पर रखकर सोचो क्या कभी भरत से अलग रही हो कैकेयी! इस बार भारत का जाना है ननिहाल तुम्हें कितना दु:ख देता और राम को सीधे ही वनवास भला यह न्याय कहां का है दो दिन का हो भले भटकना निर्जन वन प्रांतर में पर वह भी कितना दुष्कर है और राम-सा सुत भटके पूरे चौदह साल विजन वन प्रांतर में भला वह कैसे सह पाएगा वर्षा ऋतु औ शीत घाम तेरा वह कोमल गात राम इस हेय हेतु के लिए तुम्हारा इस कोप भवन में आना है घृणित स्वार्थ का काम हे मेरी प्राण प्रिये! कुछ पल विचार कर देखो अपनी इस इच्छा पर निज संस्कार पर अपने कुल की शिक्षा पर क्या नहीं जानतीं इस वर से वरदानों की रीति-नीति सब टूटेगी हर कुल की वरदानी वृत्ति आज से छूटेगी हर कोई आगे से वर देने से पहले सोचेगा सौ बार और सह लेगा हर प्रतिकार किंतु वह आगे पग न धरेगा इस घटना के बाद क्रूरता ममता पर भारी होगी यह रंच न शुभ संकेत कलंकित कुल होगा कैकेयी के हाथ पाप का घट होगा घायल हूँ उस अपनेपन से जिसने प्राण बचाए थे अब वही ले रहा प्राण टीस है नस-नस में सहला न सकूँ निज घाव तनिक यह व्यथा और भी घातक है मर्यादा के इस पार रहूँ या जाकर पुत्र मोह में सूर्यवंश के पार त्याग दूं कुल - मर्यादा अपनी रघुकुल का कोई वंशज है चला कभी ना जिस कुपंथ पर पुत्र मोह में उसका वरण करूं जो वचन दिया दे दिया लिया न कभी है वापस राज-अनुशासन के लिए मरना भी पड़ जाए तो भी क्या चिंता है रघुवंश-परंपरा रहे अखंडित अक्षत यौवन हो इसका प्रताप गुंजित हो यश युग-युग तक हो उसमें जीवित स्पंदन हो संवेदन अपनी संस्कृति का बस इतने भर के लिए राज मर्यादा है तुमसे इतना चाह रही छोड़कर ये दो भले मांग लो चार और वर बस यह अंतिम अनुनय है मेरा तुमसे प्रेयसि कैकेयी! मत माँगो वनवास राम का प्राण माँग लो भले हमारे हँस-हँस कर दे देने में हमको सुख होगा राम, तुम्हें कब कम प्यारे थे कैकेयी ! क्योंकर इतनी वितृष्णा उस सुत से जिसके उर के अरुण कमल माँ कैकेयी के मुख-दर्शन से खिलते थे जिसके लिए विमाता कैकेयी थी माता से भारी उसको कहे कुमाता कोई यह दु:ख वह सह न सकेगा सच कहता हूँ कैकेयी तेरे बिन वह रह न सकेगा ।" कुछ पल के लिए कैकई ठिठकी,सिसुकी सकुचाई शीलवती–सी कुछ लगा कि जैसे गोदी में शिशु राम आ गए हैं उसकी और राम के बचपन की कुछ और सजीली सुधियां भी करने लगीं विकल पर जैसे उसके अंतस की कलुष कामना प्रकटी सौतेली ईर्ष्या फिर उठी धधक था लगा उसे राजमहिषी होना कोशल्या का वह कैसे सह पाएगी वह बिल्ली जैसी झपटी सौतेले सुत पर ममता वाली निज कपोत वृत्ति पर झट से बोली,‘रघुकुल में होते नाटक हैं था पता हमें नाटक था तो पहले ही कह देते नाटक से हमको क्या लेना है कैकेई को इन दोनों वर को छोड़ न कोई वर लेना मुझसे अब कुछ न कहो अब कुछ हो न सकेगा प्रियतम!' इतना सुनते हो गए सन्न पग पाषाणी पिठर बने झुरझुरी देह से छूटी झर झर झरने-सी फूट पड़ी नयनाश्रुधार जो कह ना सके दशरथ मुख से वह सब आँखें कहती थीं गंगा-यमुना के संगम-सी कपोल- प्रयाग पर मिलती थीं अवरुद्ध कंठ अस्फुट स्वर कुछ बोल हो रहे थे धीमे जिसके रथ के पहिए के नीचे लट्टू-सी नाचीं थीं दशों दिशाएं पौरुष से भूधर काँपे थे धरती डोली थी शेषनाग भी विचलित होते थे उनके पद प्रहार से वे ही दशरथ कैकेयी के एक वार में कदली स्तंभ से धरती पर आ गिरे धड़ाम जिन शब्दों को अबतक वे बीज मंत्र - सा मान रहे थे जीवन के वह सब अरण्य रोदन था या फिर आरण्यक अनुनय था हे राम!राम! राम !हा राम ! कहा था जोरों से फिर हुए अचानक मौन ध्यान में ज्यों बैठे कुछ बुदबुद बुदबुद स्वर फूटे कुछ आशा जागी पर चिर समाधि में हुए लीन दशरथ कब जागे सब ठगे हुए से देख रहे थे हतभागे! ****