राज्य ललित कला अकादमी, उत्तर प्रदेश में जाने का मौका मिला। मौका था वहाँ चल रही वाश चित्रकार सुखवीर सिंघल की वाश पद्धति में बनी कला कृतियों की प्रदर्शनी देखना था। हालांकि कुछ असली काम के साथ उनके कुछ कामों के प्रिंट्स भी डिस्प्ले हैं। कुल मिला कर यह एक सुंदर और जानकारी प्रद प्रदर्शनी है। सबको इस प्रदर्शनी का अवश्य अवलोकन करना चाहिए।
वाश पद्धति का एक बहुत बड़ा इतिहास रहा है जो अब धीरे धीरे वाकई इतिहास बनता नज़र आ रहा है कारण इस विधा से लोगों की अनभिज्ञता और इस विधा से दूरी और साथ ही इससे जुड़े तमाम जानकारी , प्रोत्साहन की कमी है।
उत्तर प्रदेश की कला में वाश शैली में चित्रण उसकी प्रमुख पहचान रही है जो आज कम हो गया है। स्वतंत्रता पूर्व जब असित कुमार हल्दार लखनऊ कला महाविद्यालय के प्राचार्य बने तब ही वाश चित्रण शैली की नींव पड़ गई थी और उनके शिष्य बद्रीनाथ आर्य और सुखवीर सिंघल ने इस वाश शैली का इतना विकास किया कि आज उनके चित्र उत्तर प्रदेश की चित्रकला का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन कलाकारों ने अधिकतर मानवीय आकृतियों के संयोजन निर्मित किये है क्योंकि अपनी पूर्ण विविधता में भारतीय यथार्थता को मानवीय आकृति के निरूपण द्वारा ही अभिव्यक्ति किया जा सकता है। सिंघल के अधिकांश चित्रों में भारतीय जन मानस के प्रति जुड़ाव और राष्ट्रीय अनेकता में एकता का बोध होता है। कम आकृतियों के साथ प्रमुख विषय को बनाने वाले वाश शैली में चित्रण करने वाले दूसरे कलाकार बद्रीनाथ आर्य रहे जिन्होंने अपनी विशेष प्रतिभा और उत्कृष्ट चित्रण द्वारा वाश शैली को उत्तर प्रदेश की सीमाओं से निकाल कर राष्ट्रीय पहचान दी। उनके प्रारम्भिक विषय परंपरागत विषय, धार्मिक, पौराणिक, सामाजिक जैसे सांवरी, पी कहाँ, पेड़ की छांव, खेत की ओर आदि इनमें उत्कृष्ट रेखानक द्वारा साधारण जीवन का अति माधुर्यता से दर्शाया है। बद्री नाथ आर्य के शिष्य में भैरोनाथ शुक्ल, राजेन्द्र प्रसाद, राजीव मिश्र प्रमुख है।
वाश शैली में जन साधारण अभिव्यक्ति करने वाले चित्रकारों के क्रम में सुकुमार बोस, सुखवीर सिंघल, हरिहर लाल मेढ, सनद चटर्जी, नित्यानंद महापात्रा, एस अजमत शाह, गोपाल मधुकर चतुर्वेदी और डीपी धुलिया, नलिनी कुमार मिश्र, फ्रैंक वेस्ली और बद्रीनाथ आर्य जैसी प्रतिभाएं कला जगत में अपना एक स्थान बना सकी। इन सभी ने वाश शैली में पारंपरिक विषयों और रूपों को छोड़कर समकालीन जीवन का चित्रण किया है। इसी से इनके चित्रों में रूपों की विविधता है। आज वाश पेंटिंग तकनीकी जानकारी के उत्तर प्रदेश में कई कॉलेजों में दी जा रही है। जिसका मुख्य श्रेय चित्रकार राजेन्द्र प्रसाद को जाता है।
आपके जानकारी के लिए बताना चाहूंगा कि उत्तर प्रदेश में वाश पेंटिंग का एक और केंद्र था इलाहाबाद जहां के विश्वविद्यालय में सन्त चित्रकार क्षितिन्द्र नाथ मजुमदार कार्यरत थे, यही इलाहाबाद में सुखबीर सिंघल भी थे, श्री डी पी धुलिया और और डॉ श्याम बिहारी अग्रवाल भी वाश परम्पराओं को अभी तक बनाये रखा है।
एक बात है कि आज इस पद्धति में कम काम हो रहे हैं। एक तरह से वाश चित्रकला के लुप्त होना भी आज एक चिंता का विषय है। मुझे याद है किसी मौके पर वरिष्ठ कलाकार जय कृष्ण अग्रवाल ने कहा था कि वाश चित्रकला की शुरुवात बंगाल से अवश्य हुआ है पर उसका विकास लखनऊ में हुआ इतना विकास कहीं नहीं हुआ। राजीव मिश्रा ने वाश चित्रण विधा को अनमोल बताते हुए कहा कि यह विधा अनुशासन, पक्का इरादा और कड़ी मेहनत के बिना सही अर्थों में नहीं अपनाई जा सकती इसको पुरातन कहने वालों को जानना चाहिए कि विषय के स्टार पर प्रयोग की अपर सम्भावनाएं खुली हुई है जिनको अपनाकर इस विधा में माध्यम से समकालीन कला में सशक्त पहचान बनाई जा सकती है।
2015 में मेरे द्वारा किये गये पहल से कला स्रोत में एक वाश तकनीकी का वर्कशॉप हुआ था जिसमें एक्सपर्ट के रूप में वाश चित्रकार श्री राजीव मिश्र थे। इनके सानिध्य में कानपुर, इलाहाबाद, लखनऊ के लगभग 25 इच्छुक लोगों ने इसकी तकनीकी जानकारी ली और एक एक वाश पेंटिंग भी बनाई थी।
कुल मिलाकर वरिष्ठ कलाकारों, कला समीक्षकों के हिसाब से मूल बात यही हैं कि वाश चित्रों के मूलस्वरूप को बनाये रखते हुए आंशिक तब्दीलियों के साथ समकालीन कला प्रयोगों में यदि वाश चित्रण विधा को स्वीकार न किया गया तो यह महत्त्वपूर्ण भारतीय कला शैली इतिहास बन जाएगी, देश के अनेक स्थानीय कला शैलियों की तरह ही इस कला विधा को प्रदर्शनियों में, कला लेखन में अलग से स्थान दिया जाना आज इसकी जरूरत बन गयी है।
- भूपेंद्र कुमार अस्थाना
31 मार्च 2022