अब बड़े नेता समझें हार के निहितार्थ

 


डॉ घनश्याम बादल


 2022 पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के परिणाम सामने है । यही जनादेश के फलित अर्थ निकालने का सबसे उपयुक्त समय भी है । देश के जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव वे थे उनमें से 4 में भगवा लहराया है और एक में आम आदमी पार्टी की झाड़ू ने बहुत कुछ साफ कर दिया है।  इन चुनावों के बारे में काफी कयास लगाए जा रहे थे माना जा रहा था कि उत्तराखंड में भाजपा एवं कांग्रेस में कांटे की टक्कर होगी और यदि राज्य अपनी परिपाटी पर चला तो वहां से भाजपा की सरकार विदा हो जाएगी मगर परिणाम बिल्कुल अलग है और एक बार फिर से भाजपा की सरकार वहां बनने जा रही है । 


उत्तर प्रदेश में बाबा का बुलडोजर फिर से सत्ता में आ गया है, बबुआ की साइकिल की भी साख बढ़ी है पर सत्ता में लौटने का सपना चकनाचूर हो गया है । जिस प्रकार से जातीय समीकरण सपा के अग्रणी नेताओं ने बनाए थे और जिस तरह छोटी-छोटी पार्टियों से गठबंधन किया था उससे लग रहा था कि सपा बहुत सधा हुआ राजनीतिक खेल खेल रही है  मगर हुआ बिल्कुल विपरीत ही। न ओवैसी कुछ कर पाए न मायावती का हाथी कमल का कुछ बिगाड़ पाया । कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश की जनता ने एकमत से योगी के सरकार चलाने के रंग ढंग को स्वीकृति दी है ।


 शायद सपा के पूर्व रिकॉर्ड को देखते हुए जनता के मन में एक आशंका थी कि उनके सत्ता में लौटने पर एक बार फिर से माफिया ताकत में आ जाएंगे आम लोगों का जीवन एवं संपत्ति खतरे में पड़ जाएंगे  जबकि योगी आदित्यनाथ यह संदेश देने में सफल रहे कि उनके होते हुए न तो कोई सरकारी संपत्तियों पर कब्जा कर पाएगा और न ही माफिया हावी हो पाएगा ।  इतना ही नहीं उनका माफियाओं की संपत्ति जब्त करने का अंदाज भी लोगों को भाया लेकिन इन सबसे बढ़कर एक आकलन यह भी है कि जिस प्रकार से योगी आदित्यनाथ ने एक बड़े एवं पिछड़े हुए प्रदेश उत्तर प्रदेश को संभाला एवं कोविड-19 संक्रमण काल में  एक  कुशल नेतृत्वकर्ता की भूमिका निभाई उसने भी जनता को आश्वस्त किया । यानी  एक साफ-साफ संदेश गया है कि यदि आप जमकर काम करते हैं, आम लोगों की कुशल क्षेम का ध्यान रखते हैं,  जन कल्याण के कार्य डटकर करते हैं, अपनी विचारधारा पर डटकर रहते हैं तो एंटी इनकंबेंसी यानी सत्ता विरोधी फैक्टर आपका कुछ नहीं बिगाड़ पाता है।  केंद्र में नरेंद्र मोदी इसके उदाहरण हैं और उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ यह धारणा खंडित की है कि लगातार सत्ता में रहने पर आप का विरोध बढ़ जाता है । बल्कि कहें की उत्तर प्रदेश में प्रो इनकंबेंसी यानी सत्ता के अनुकूल एक धारा बह रही थी  जिसने भले ही सपा को तो पूरी तरह नहीं उखाड़ा पर बसपा और कांग्रेस को आईना दिखा दिया , साथ ही साथ ओवेसी की पार्टी को एक भी सीट न मिलना बताता है कि उत्तर प्रदेश ने मजहबी राजनीति को पूरी तरह नकार दिया है। 


जहां तक पंजाब का प्रश्न है तो वह पहले ही लग रहा था कि कांग्रेस की अंतर कलह उसे भारी पड़ सकती है । कैप्टन अमरिंदर सिंह का अक्खड़ स्वभाव, सिद्धू के साथ उनका लगातार संघर्ष, हाईकमान द्वारा उनकी पीठ से हाथ हटा लेना और सिद्धू जैसे बड़बोले नेता को सहारा देना,  फिर उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाना मगर मुख्यमंत्री के तौर पर चन्नी को लाना कांग्रेस की रणनीतिक असफलता बनकर सामने आया। और हाथ का पंजा झाड़ू ने बिल्कुल निष्प्रभावी करके बाहर कर दिया। 


इन विधानसभा चुनावों में जिस प्रकार से उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी ने कमान संभाली थी एवं "लड़की हूं,  लड़ सकती हूं"  जैसा प्रभावशाली नारा दिया था उससे लगा था कि शायद कांग्रेस को कुछ संजीवनी मिले । मगर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का ढांचागत कमजोर ताना-बाना प्रियंका गांधी की मेहनत को लील गया । एक प्रकार से कांग्रेस ने अपना भविष्य का एक ब्रह्मास्त्र समझा जाने वाला अस्त्र उत्तर प्रदेश के चुनाव में कुंद बना लिया यानी गांधी परिवार से अब कांग्रेसी यह अपेक्षा नहीं कर सकते कि उसका कोई सदस्य कांग्रेस को पुनः ऊंचाइयों पर ले जा पाएगा । और विडंबना यह है कि कांग्रेस में गांधी परिवार के अलावा कोई दूसरा सर्व स्वीकार्य नेता अभी नहीं है जो कुछ लोकप्रिय एवं सक्रिय नाम हैं भी उन्हें दूसरे नेता स्वीकार नहीं कर पाते ।   यदि कहा जाए कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों ने नरेंद्र मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत के सपनों को और पंख दे दिए हैं । अब केवल राजस्थान में  कांग्रेस सत्ता में है और वहां भी समय समय पर उठापटक होती रहती है । यानी इन चुनावों में देश को कांग्रेस का विकल्प ढूंढने या कांग्रेस को आमूलचूल बदलकर जन आकांक्षाओं के अनुरूप ढलने एवं चलने का चेतावनी भरा संदेश दे दिया है ।  अब कॉन्ग्रेस इसे समझ पाती है या नहीं और इस पर चल पाती है या नहीं यही उसके भविष्य तय करेगा। 


जहां इन चुनावों में कभी देश के सबसे बड़े राजनैतिक दल रहे कांग्रेस को बहुत बौना सिद्ध कर दिया है वही बहुत बड़े-बड़े नेताओं को भी साफ साफ संदेश दिया है कि बिना जनता के बीच जाए, बिना जन कल्याण के कार्य किए , बिना निरंतर सक्रिय रहे उनका भी पतन होकर रहता है । 


यदि देखें तो पंजाब में बड़े कद के लगभग सारे ही नेता चुनाव हार गए हैं इनमें प्रकाश सिंह बादल, सुखबीर बादल, विक्रम मजिठिया, राजेंद्र कोर भट्टल,  नवजोत सिंह सिद्धू चरणजीत सिंह चन्नी जैसे कितने ही नाम शामिल हैं तो वही उत्तराखंड में भी हरीश रावत एवं मुख्यमंत्री पुष्कर धामी का हारना यह संकेत देता है कि वहां की राजनीति कुछ नए चेहरे  चाहती है और नेतृत्व में स्थिरता । 

 बुजुर्ग  हरीश रावत ने जी तोड़ मेहनत की लेकिन काम न आई ।  उत्तर प्रदेश में अखिलेश के परिवार की छवि समाजवादी पार्टी की हार का बड़ा कारण बनी है ।   वैसे ही  हरीश रावत द्वारा सबको केवल आश्वासन द्वारा ही रिझाए रखना, बार-बार अल्पसंख्यक वर्ग की तुष्टीकरण वाली नीतियों पर चलना,  केवल वादों एवं दावों के बल पर सत्ता में आने का खेल  जनता को पसंद नहीं आया और उन्होंने बहुत ऊंचे कद के इस नेता को विधानसभा जाने लायक भी नहीं समझा । 

इन चुनावों में जनता ने दल बदल कर के भाजपा से सपा में गए उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री मौर्य को भी अस्वीकार कर दिया अर्थात ऐन मौके पर सत्ता के लिए पाला बदलने वालों को उत्तर प्रदेश में एक बड़ा संदेश दे दिया है । सुरेश राठोर एवं संगीत सोम जैसे एवं सामाजिक खाई को चौड़ा करने वाले नेताओं को भी नहीं बख्शा गया है। 

गोवा एवं मणिपुर में भी भाजपा का रुतबा बढ़ा है मगर वहां भी उसके कई बड़े नेता खेत रह गए हैं । जहां मोदी के मैजिक के साथ योगी स्वीकार किए गए हैं वही उनके कई मंत्रियों को जनता ने इस काबिल नहीं पहुंचा समझा कि वे विधानमंडल दल के सदस्य बन पाएं। 

अस्तु, 2022 के विधानसभा चुनावों ने विपक्ष को चेताया है कि यदि उसने खुद को नहीं सुधारा तो फिर 2024 में भी उसे विपक्ष में ही बैठने की तैयारी कर लेनी चाहिए । हां,  विपक्ष को अब एक और टाइकून नेता मिल गया है अरविंद केजरीवाल के रूप में ।  यह विपक्ष के लिए एक उपलब्धि भी हो सकता है और सर दर्द भी क्योंकि आने वाले समय में 2024 के लोकसभा चुनावों में यदि कोई गठबंधन बनता है तो अरविंद केजरीवाल शरद पवार और ममता बनर्जी के साथ-साथ प्रधानमंत्री पद की रेस में सबसे आगे खड़ा होना चाहेंगे और उनके पास एक बड़ा तर्क होगा कि अकेले उनके पास एक नहीं दो दो राज्यों की सरकारें हैं । खैर 2024 में तो जो होगा सो होगा फिलहाल तो विपक्ष को गुजरात विधानसभा चुनाव के लिए कुछ कारगर करना होगा।