राष्ट्रधर्म’: इतिहास के पृष्ठों में


- डाॅ. पवनपुत्र बादल
स्वातन्×य प्राप्ति से पूर्व ही संघ के अनेक वरिष्ठ अधिकारियों के मन में यह विचार जड़ पकड़ चुका था कि हमें अब हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में उतरना चाहिए। इनमें परम श्रद्धेय भाऊराव जी प्रमुख थे, वे उस समय उ.प्र. के प्रान्त प्रचारक थे; उनके साथ ही सहप्रान्त प्रचारक का दायित्व निभा रहे पं. दीनदयाल जी उपाध्याय भी इस विचार से सहमत थे। संघ-इतिहास में इन दोनों मनीषियों का अति महत्त्वपूर्ण योगदान है। यह कहना कठिन है कि इस विचार का बीजरूप में प्रस्फुटीकरण कब हुआ, चिन्तन-मनन की किन-किन प्रक्रियाओं में से मा. भाऊराव और दीनदयाल जी गुजरे, इस काम को सँभालने के लिए किन-किन नामों पर विचार हुआ; पर इस विचार ने मूर्तरूप कब और किनके माध्यम से लिया, यह तो अब इतिहास का अंग है।
सर्वप्रथम मा. भाऊराव और दीनदयाल जी की निगाह जिन युवक, अटल बिहारी वाजपेयी पर गयी, वह प्रतिभाशाली युवक केवल प्रखर वक्ता ही नहीं, तो बहुत श्रेष्ठ कवि भी थे। संघ के शिविरों में रात के समय होने वाले कार्यक्रमों में उनकी तेजस्वी और आग उगलने वाली कविताओं को लोग बड़ी रुचि और तन्मयता से सुनते थे। अपनी कविताओं में वे संघ-विचार की इतनी सरल और काव्यमयी प्रस्तुति करते थे कि सब श्रोताओं के मन में वह विचार गहरे तक पैठ जाता था। स्वातन्×य प्राप्ति की पूर्वसन्ध्या पर लिखी उनकी कविता ‘पन्द्रह अगस्त’ को कौन भूल सकता है ?
पन्द्रह अगस्त का दिन कहता, आजादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाकी हैं, रावी की शपथ न पूरी है।।
जिनके कंधों पर पग रखकर आजादी भारत में आयी।
वे अब तक हैं खानाबदोश गम की काली बदली छायी।।
कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आँधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो पन्द्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं ?

उन्हीं दिनों उ.प्र. में बड़ी प्रखर और तेजस्वी लेखनी के धनी एक संघ प्रचारक थे श्री राजीवलोचन अग्निहोत्री। गीत लिखने और गाने में उनकी विशेष रुचि थी। संघ में हम लोग जो गीत गाते हैं, उन्हें किसने और कब लिखा, किसने उसकी लय बनायी; इसकी चिन्ता और पूछताछ आज नहीं होती है। मा. भाऊराव और दीनदयाल जी की निगाह से ऐसा व्यक्ति कैसे बच सकता था; उन्हें भी इस कार्य में जोड़ा गया और वि. संवत् 2004 अर्थात् 31 अगस्त, 1947 की श्रावणी पूर्णिमा अर्थात रक्षाबंधन पर अटल जी तथा राजीव जी के संयुक्त सम्पादकत्व में इसका पहला अंक प्रकाशित हुआ।
जब पत्रिका के प्रकाशन का निश्चय मा. भाऊराव और दीनदयाल जी ने कर लिया, तो प्रश्न खड़ा हुआ कि पत्रिका का नाम क्या रखें ? उस समय मुख्यतः छात्रों के बीच ही संघ का काम था। मा. भाऊराव जी लखनऊ वि.वि. के छात्रावास की सीढ़ियों पर बैठकर छात्रों से गपशप कर रहे थे, वहीं पत्रिका का विषय भी आ गया; देहरादून के एक छात्र स्वयंसेवक श्री विद्यासागर जी ने ‘राष्ट्रधर्म’ नाम का सुझाव दिया। यह नाम सबको बहुत पसन्द आया और फिर इसी नाम से पत्रिका निकालने का निश्चय कर लिया गया, उन विद्यासागर जी का सम्बन्ध कोलकाता से भी था।
‘राष्ट्रधर्म’ के इस प्रथम अंक की अनेक विशेषताएँ थीं, प्रथम पृष्ठ पर ही अटल जी की वह कविता प्रकाशित हुई थी, जो सम्पूर्ण हिन्दू चिन्तन को स्पष्ट करती है।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय।
मैं शंकर का वह क्रोधानल, कर सकता जगती क्षार-क्षार।
मैं डमरू की हूँ प्रलयध्वनि, जिसमें नचता भीषण संहार।।
रणचण्डी की अतृप्त प्यास, मैं दुर्गा का उन्मत्त हास।
मैं यम की प्रलयंकर पुकार, जलते मरघट का धुँआधार।।
फिर अंतरतम की ज्वाला से, जगती में आग लगा दूँ मैं।
यदि धधक उठे जल-थल-अम्बर, जड़-चेतन फिर कैसा विस्मय !!
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय।।

इसी अंक में मा. दीनदयाल जी ने अपना ‘चिति’ नामक वह चिन्तनपरक लेख लिखा था, जिस पर आगे चलकर अनेक टीकाएँ ही नहीं लिखी गयीं, अपितु देश-विदेश में अनेक लोगों ने उसको आधार बनाकर शोध भी किये। इस अंक की 3,000 प्रतियाँ प्रकाशित हुईं थीं। उन दिनों किसी भी हिन्दी पत्रिका की प्रसार संख्या 500 से अधिक नहीं थी। इसलिए जब 3,000 का आदेश प्रेस को दिया गया, तो प्रेस वाला समझ गया कि इन लड़कों को शायद कहीं से मोटी राशि हाथ लग गयी है, या कोई ऐसा पैसे वाला आदमी मिल गया है, जिसे साहित्य सेवा की सनक सवार हुई है। इसीलिए ये पैसा लुटाने पर तुले हैं; पर वे 3,000 अंक तो हाथोंहाथ समाप्त हुए ही, 500 अंक और छपवाने पड़े। दूसरा अंक छपते-छपते ‘राष्ट्रधर्म’ की प्रसार संख्या 8,000 और तीसरे की 12,000 हो गयी। हिन्दी जगत् में इतना भव्य स्वागत किसी और पत्रिका का शायद आज तक नहीं हुआ होगा और वह भी स्वतन्त्रता प्राप्ति के मात्र एक महीने बाद ही। जैसे किसी परिवार में बहुत मन्नतों और पूजा-अर्चना के बाद सन्तान का जन्म हो, उसका जिस प्रकार से स्वागत होता है, कुछ-कुछ वैसी ही स्थिति ‘राष्ट्रधर्म’ की थी।
आज तो मुद्रण की तकनीक अत्यधिक विकसित हो गयी है; दुनिया के किसी भी कोने मंे लिखी, देखी या बोली गयी बात मिनटों में प्रकाशित होकर पूरी दुनिया में फैल जाती है; पर आज से पचास साल पहले यह सब कितना कठिन था, इसे हम सब लोग समझ सकते हैं। ‘राष्ट्रधर्म’ के इस भव्य स्वागत से उत्साहित होकर विचार किया गया कि क्यों न एक साप्ताहिक पत्र निकाला जाये। इस विचार को भी मकर संक्रांति पर मूर्त रूप दे दिया गया और पांचजन्य, जो आज भारत के साप्ताहिक समाचार पत्रों में सिरमौर बना है, उसका प्रकाशन प्रारम्भ हो गया। अटल जी पर ‘राष्ट्रधर्म’ के साथ-साथ पांचजन्य के सम्पादन का भी भार आ गया। यह भी एक अजूबा ही है कि एक व्यक्ति एक साथ दो पत्रों का सम्पादन करे।
अटल जी के सम्पादन का अन्दाज निराला था। उन दिनों ‘लेटर प्रेस’ होने के कारण कम्पोजिंग आज जैसी सरल नहीं थी। सामग्री देने के बाद पता लगा कि चार-छह पंक्तियों की जगह खाली छूट रही है। कम्पोजीटर दौड़ा-दौड़ा आता था कि कुछ सामग्री और दे दीजिये, जिससे जगह पूरी हो सके। अब गीत हो या कविता, अटल जी तुरन्त उसमें चार-छह पंक्तियाँ जोड़ देते थे। लेख या कहानी होती, तो कुछ लाइनें ऐसी लिखनी पड़ती थीं, जिससे प्रवाह भी बना रहे और ऐसा न लगे कि उसमें जबर्दस्ती कोई बात डाली गयी है। वैसे अटल जी का अनुमान इतना सही रहता था कि जितनी सामग्री देते थे, उतने में पृष्ठ पूरा हो जाता था; फिर भी कभी-कभी तो पैबन्द लगाने ही पड़ते थे।
आगे चलकर कई बार कोई कर्मचारी बीमार या छुट्टी पर हुआ, तो कठिनाई आ जाती थी। इसलिए अटल जी ने ही नहीं, तो मा. दीनदयाल जी और भाऊराव ने भी कम्पोजिंग सीख ली। केवल कम्पोजिंग ही नहीं, मशीन चलाने से लेकर साइकिल के पीछे गट्ठर बाँधकर पत्र-पत्रिका बाँटने तक का काम इन लोगों ने किया है। तब मशीन भी हाथ से चलानी पड़ती थी। उसके चक्के को एक दल पन्द्रह मिनट तक चलाता था; फिर अगले दल की बारी आती थी। ऐसे कई दल मिलकर मशीन चलाते थे, तब ये पत्र-पत्रिकाएँ छप पाती थीं। कभी-कभी तो ऐसा होता था कि मशीन चलाते-चलाते सब लोग इतने थक जाते थे कि वहीं पास पड़ी चटाई पर सिर के नीचे ईंट लगाकर पस्त हो जाते थे।
आर्थिक स्थिति ऐसी थी कि एक बार अटल जी ने कार्यालय प्रमुख श्री जगदम्बाप्रसाद वर्मा (दादा जी) जी से कहा- पाँच रु. दे दो। आप जानते हैं कि पैसे का हिसाब रखने वाले को कैसा होना चाहिए, उन्होंने तिरछी नजर से देखा - क्या करोगे पाँच रु. का ?
‘‘देख नहीं रहे, एक महीने से चप्पल बिल्कुल टूट गयी है; आज नयी चप्पल लेनी है’’- अटल जी ने कहा।
दादा जी ने बड़े बेमन से अपना बक्सा खोला और पाँच रु. दे दिये। अटल जी ने वचनेश जी को इशारा किया- वचनेश जी, चलो जरा। वचनेश जी ने प्रश्नवाचक निगाह से पूछा - किधर ? अटल जी ने जेब पर हाथ लगा कर कहा - अरे चलो तो। दोनों मित्र चल पड़े; पहले दो-दो भुट्टे खाये, फिर भरपेट लस्सी पी। वचनेश जी ने कहा - चप्पल का क्या होगा। अटल जी ने उत्तर दिया - अरे इतने दिन से काम चला रहे हैं, तो दो महीने और चला लेंगे; ये हाल था उन दिनों।
बाद में जब दैनिक ‘स्वदेश’ का प्रकाशन भी वहाँ से प्रारम्भ हो गया, तो अटल जी को उसमें भेज दिया गया; तब काम और अधिक बढ़ गया। भाऊराव जी कभी-कभी दोपहर में अपनी साइकिल से आते थे; आज तो कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि प्रान्त प्रचारक और साइकिल पर; लेकिन वे संघकार्य के प्रारम्भिक दिन थे। भाऊराव भी युवा थे और अटल जी भी; वे देखते थे कि अटल जी ने भोजन नहीं किया है। वे कहते थे- चलो भाई, खाना तो खा लो। अटल जी का नीचे सिर किये लिखते-लिखते उत्तर होता था - खाना खाने गया, तो सम्पादकीय कौन लिखेगा, और सम्पादकीय नहीं लिखा तो अखबार कैसे निकलेगा ? भाऊराव जी बैठ जाते थे। घंटों बैठे रहते थे और फिर चल देते थे। दोनों भूखे, एक लिखने में व्यस्त तो दूसरे अपनी साइकिल लिये शाखाओं में मस्त। इस माहौल और परिस्थितियों में ‘राष्ट्रधर्म’ तथा लखनऊ से प्रकाशित होने वाली अन्य पत्र-पत्रिकाएँ जवान हुई हैं।
मा. दीनदयाल जी ने उन दिनों प्रचलित अनेक अंग्रेजी शब्दों के स्थान पर हिन्दी के शब्द प्रचलित किये। जैसे कम्पोजीटर के बदले संयोजक, प्रूफ रीडर के बदले संशोधक, डिस्ट्रीब्यूटर को वियोजक, मशीनमैन को यान्त्रिक, कैश मीमो को रोकड़-स्मार, रजिस्टर को पंजी, बिल को देयक, वाउचर को व्यय-प्रमाणक.....आदि। ‘राष्ट्रधर्म’ के उस समय के लोगों में से अब अधिकांश स्वर्गवासी हो चुके हैं। ‘राष्ट्रधर्म’ की भाषा भी अच्छी प्रवाहमयी, पर व्याकरणनिष्ठ हिन्दी रहे, यह नीति प्रारम्भ से ही बनायी गयी। ‘राष्ट्रधर्म’ के ‘सीमा सुरक्षा विशेषांक’ का लोकार्पण करने मा. आडवाणी जी जब लखनऊ आये, तो उन्होंने बताया था कि वे प्रारम्भ में हिन्दी बिल्कुल नहीं जानते थे; पर ‘राष्ट्रधर्म’ पढ़ने के लिए उन्होंने हिन्दी सीखी और उनके हिन्दी शिक्षण में ‘राष्ट्रधर्म’ का बड़ा योगदान है।
लेकिन किसी भी काम में बाधाएँ तो आती ही हैं; वैचारिक पत्र होने के कारण ‘राष्ट्रधर्म’ को भी अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ा। पहली बाधा तो छह महीने बाद ही आ गयी, जब गांधी जी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। ‘राष्ट्रधर्म’ का प्रकाशन बन्द हो गया, जो न्यायालय के आदेश से ही फिर प्रारम्भ हो सका। 1950 में आर्थिक तथा अन्य अनेक कारणों से इसका प्रकाशन बन्द हो गया, जो 1964-65 में फिर प्रारम्भ हुआ। बीच में एक वर्ष इसका प्रकाशन प्रयाग से भी हुआ। आपात्काल में फिर इस पर संकट के बादल घिर आये, लेकिन इसके बाद भी मा. वचनेश जी भूमिगत रहकर जैसे-तैसे इसे निकालते रहे। आपात्काल की समाप्ति के बाद फिर यह विधिवत् चल पड़ा।
‘राष्ट्रधर्म’ का यह सौभाग्य रहा है कि इसे अटल जी जैसे कवि और राजनेता, वचनेश जी जैसे क्रान्तिकथाओं के लेखक, भानुप्रताप शुक्ल और रामशंकर अग्निहोत्री, श्री वीरेश्वर द्विवेदी, श्री रामदत्त मिश्र एवं श्री आनन्द मिश्र ‘अभय’ जैसे विचारकों का सम्पादकीय आशीर्वाद लम्बे समय तक प्राप्त हुआ है। वर्तमान में प्रो. ओमप्रकाश पाण्डेय इसका सम्पादन कर रहे हैं। वे ज्ञान के भंडार हैं, उनकी लेखनी में भी गजब का प्रवाह और ताकत है। भारत में संभवतः ‘राष्ट्रधर्म’ अकेला मासिक पत्र होगा जिसके दो सम्पादकों को पद्म पुरस्कारों से भारत के महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने सम्मानित किया है।
‘राष्ट्रधर्म’ के साथ जुड़े लेखकों की एक बड़ी शृंखला है। एक राष्ट्रीय पत्र होने के नाते हमारा यह प्रयास रहता है कि लेखकों में भी विविद्दता रहे तथा प्रायः सभी प्रान्तों के ही नहीं तो विदेश में बसे हिन्दी लेखकों की कहानियों, कविताओं, लेखों, व्यंग्यों आदि का रसास्वादन हम अपने पाठकों को कराते रहें। ‘राष्ट्रधर्म’ मुख्यतः एक परिवारिक पत्रिका है, अनेक लोग यह शिकायत करते हैं कि हिन्दी की कुछ पत्रिकाओं ने पूरी दो पीढ़ियों को नास्तिक और धर्मविरोधी बना दिया है। हिन्दू धर्म के हर पक्ष पर कुतर्की दृष्टि से लेख और कहानियां लिखवा कर केवल पाठकों को ही नहीं, तो लेखकों को भी इन्होंने भ्रष्ट कर दिया है। ऐसे सब लोग ‘राष्ट्रधर्म’ को अपने घर में प्रवेश दें, उनकी अनेक समस्याओं और प्रश्नों का उत्तर उन्हें मिलेगा। परिवार के सब सदस्यों के लिए इसमें सामग्री रहती है। साथ ही वैचारिक या चारित्रिक प्रदूषण फैलाने वाली सामग्री, विज्ञापन आदि इसमें नहीं होते।
‘राष्ट्रधर्म’ द्वारा वर्ष में दो-तीन अच्छे वैचारिक सामग्री से भरपूर अंक अथवा विशेषांक भी निकाले जाते हैं। इन विशेषांकों ने पत्रकार जगत् में ही नहीं तो जनसामान्य में भी अपनी अच्छी और अलग पहचान बनायी है। अनेक लोग आज भी ऐसे मिलते हैं, जिन्होंने ये विशेषांक सँभाल कर रखे हैं तथा इनका उपयोग सन्दर्भ ग्रन्थों की तरह करते हैं। हिन्दू राष्ट्र विशेषांक, हिन्दू गौरव विशेषांक, युगान्तर विशेषांक, अनुशासन विशेषांक, सनातन भारत विशेषांक, खालसा पंथ विशेषांक, विश्वव्यापी हिन्दू संस्कृति विशेषांक, सीमा सुरक्षा विशेषांक, राष्ट्र रक्षा विशेषांक, पाकिस्तान मिटाओ विशेषांक, मातृशक्ति विशेषांक, हम सबके अटल जी विशेषांक, पं. दीनदयाल उपाध्याय चिन्तन विशेषांक, नमामि गंगे विशेषांक, सिंहावलोकन विषेषांक, मातृषक्ति और महापर्व कुम्भ विषेषांक आदि। इसके साथ ही अनेक महापुरुषों के जीवन पर भी समय-समय पर अंक निकाले गये हैं। पू. डाॅ. हेडगेवार, श्री गुरुजी, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, वीर सावरकर, बाबासाहब आप्टे....आदि। इनके लोकार्पण के लिए भी समाज के विशिष्ट लोग आते रहे हैं।