तपस्या

 



निरंजना जैन

 

रूबी ने मोबाइल फोन वाले की दूकान के सामने ऑटो रुकवाया, पैसे चुकाए और दूकान में कांऊटर के पीछे, मालिक की कुर्सी पर बैठे नौजवान के सामने, अपने पर्स में से मोबाइल निकालकर रखते हुए बोली  "ये मोबाइल गिर गया था, अब इसमें पिक्चर भी नहीं आ रही है, और साऊंड भी गड़बड़ हो गई है। ठीक करवा दीजिए।"

        "सेम प्रॉब्लम हीयर।" रूबी को, अपने बाजू से एक जाना-पहचाना स्वर सुनाई दिया। रूबी ने सिर घुमाया, तो उसे भावशून्य निगाहों से ताकता, प्रियेश नज़र आया। उसे देखकर रूबी के चहरे पर घृणा मिश्रित, क्रोध के भाव उभरे, लेकिन उनको काबू करके, सहज स्वर में  बोली  "तुम?"

        "हाँ! मेरा भी फोन गिरने से, उसमें भी यही प्रॉब्लम आ गई है। किस्मत का खेल तो देखो, हम दोनों हमेशा सेम प्रॉब्लम से गुजरते हैं।" कहकर बेचारगी भरी नज़रों से रूबी को ताकने लगा प्रियेश। फिर थोड़ा रूककर बोला " रूबी,मुझे तुमसे कुछ बातें करनी हैं। चलो, उस कॉफी शॉप में चलते हैं।"

        "लेकिन मुझे आपसे कोई बात नहीं करनी है।" रूबी ने उसे दो टूक उत्तर देते हुए, वापिस गर्दन घुमाकर, उस नौजवान से पूछा "भैया! यह मोबाइल कितनी देर में सुधर जाएगा ?"

        "आप चाहें तो कल ले लीजिए। क्योंकि अभी कम से कम घंटा भर तो लग ही जाएगा।" नौजवान ने किसी से फोन पर बतियाते हुए, बीच में जवाब दे दिया।

        "सिर्फ घंटा भर की बात है, आपका फोन सुधर जाएगा। लेकर ही जाना। नहीं तो कल फिर से आपको आना पड़ेगा। तब तक प्लीज़, मेरी रिक्वेस्ट मान लीजिए। एक-एक कॉफी हो जाए। चलिये, सामने वाले रेस्टोरेंट में चलते हैं।" 

        प्रियेश के कहने में इतना अनुनय का भाव था, कि रूबी चाहकर भी इंकार नहीं कर पाई। रेस्टोरेंट में कोने की खाली टेबिल के आमने-सामने रखी कुर्सी पर बैठने के बाद,पानी रखने आए बैरे को, प्रियेश ने एक हॉट और एक कोल्ड कॉफी तथा दो प्लेट पनीर पकोड़े का आदेश दिया। बैरे के जाने के बाद रूबी ने उत्सुकता से कहा  "तुम्हें अभी तक मेरी पसंद याद है ?"       

        सुनकर प्रियेश हल्की सी स्मित के साथ बोला  "तुम भले ही मेरी नज़रों से दूर हो, लेकिन मेरे दिल से नहीं। मेरा दिल आज भी हरपल, सिर्फ़ तुम्हारा ही नाम रटता है। मेरी हर साँस तुम्हारा ही नाम पुकारती है। मेरी हर धड़कन तुम्हारे ही नाम से चलती है।" 

        "बस!बस!बस! प्यार की ये कोरी-कोरी बातें मुझे मत सुनाओ।" रूबी ने थोड़े तल्ख़ स्वर में कहा  "अगर मुझसे इतना ही प्यार था, तो फिर किसी और से शादी क्यों कर ली ? मेरे लिए भी कई  रिश्ते आ रहे थे, लेकिन तुम्हारे प्यार पर विश्वास करके, मैंने सबको नकार दिया। मेरी इस हरकत पर मेरे पापा का, अपनी लाड़ली से यह  प्रश्न जायज था, कि मैंने क्या किसी को पसंद कर रखा है ? तुम्हारे बारे में सब कुछ बताने पर कहने लगे  "बिटिया! वे अपन से ऊँची जात वाले हैं। क्या वे तुम्हें अपने घर की बहू बनायेंगे ?"

        तब मैंने कहा था  "पापा! प्रियेश पर विश्वास रखो। वह मुझे कभी धोखा नहीं देगा। आपकी लाड़ली उसी की दुल्हन बनेगी।" और कुछ दिनों बाद मिली तुम्हारी शादी की ख़बर ने, मुझे तो ठीक, पापा को इतना आघात दिया, कि हार्ट का दौरा पड़ गया। डॉक्टर ने उन्हें बचाने की बहुत कोशिश की, लेकिन बचा नहीं पाए। पापा के जाने से माँ भी टूट गईं और बीमार रहने लगीं। वो तो अच्छा हुआ कि भाई की शादी, दो साल पहले हो गई थी, सो उनकी शादी की चिंता से मुक्त थे। साथ ही भैया की नौकरी तथा भाभी के रहने से, घर को बहुत सहारा था। एक प्यारे से बेटे को जन्म देने के बाद, भाभी के पास घर के किसी और काम के लिए वक़्त ही नहीं रहा। घर के काम और माँ की बीमारी की उलझन में, मैं कुछ और सोचना ही भूल चुकी थी। ख़ैर बीमारी के डेढ़ साल बाद जब माँ भी नहीं रहीं, तो भाई ने अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वहन करते हुए, मुझसे शादी का निर्णय पूछा, तो मैंने स्पष्ट कह दिया "प्रियेश ही मेरा पहला और आख़री प्यार है। मैंने उसी के साथ जीने-मरने की कसमें खाईं थीं। उसने भले ही अपना वचन भूलकर शादी कर ली, ये उसकी बात है, लेकिन मैं अपना वादा निभाऊँगी। मैं अपने मन मंदिर में, किसी और देवता को स्थान नहीं दे सकती। मेरी हर पूजा, हर तपस्या उसी के लिए है।" इसके बाद घर में, फिर कभी किसी ने, मुझसे इस संदर्भ में बात नहीं की। हाँ! मैंने एक प्रायवेट स्कूल में ज़रूर जॉब कर ली है, ताकि भाई के ऊपर बोझ न रहूँ।"

        "हाँ रूबी, मैं सब जानता हूँ। क्योंकि तुम्हारा जिया हुआ एक-एक पल, मुझसे होकर गुजरा है।बस फ़र्क़ ये है, कि तुम्हारा दर्द, तुम्हारी पीड़ा, तुम्हारे घर वालों ने महसूस की। और उनके दर्द को तुमने महसूस किया। लेकिन मेरा दर्द, मेरी पीड़ा,सबके लिए इज़्ज़त, उपहास और समझाईश का सबब रही। मैंने भी तुम्हारी तरह अपने वादे पर अटल रहने की बात कही, तो पिताजी ने, इज़्ज़त जाने का हवाला देकर, मरने के लिए चूहामार पावडर घोल लिया। परिवार की ज़िद के आगे, मुझे अपनी इच्छाओं और तुम्हारे विश्वास का गला घोंटकर झुकना पड़ा और परिवार की खुशियों के लिए स्मृति से ब्याह करना पड़ा। यूँ तो स्मृति, घर के लिए बहुत अच्छी बहू थी। मैं भी उसकी ख़ुशी के लिए, पतिधर्म का पालन कर रहा था। हमारे दो बच्चे भी हुए। लेकिन मेरे दिल में, तुम्हारी कमी की भरपाई वह कभी नहीं कर पाई। हमारी शादी के तीन साल बाद, पिताजी को लीवर का केंसर हो गया, और छह महीने में ही, हमारे सिर से उनका साया उठ गया। और शादी के मात्र पाँच साल बाद ही, डेंगू ज्वर की मार ने स्मृति को, स्मृतिशेष बना दिया। बहू के अभाव में मेरी माँ का और माँ के अभाव में दोनों बच्चों का बुरा हाल है, और मैं तो बिना प्राण के जी ही रहा हूँ। माँ एक दिन पछताते हुए मुझसे कह रही थी "किसी निर्दोष, मासूम का दिल तोड़ने की सज़ा इस घर को मिल रही है। बेटा, रूबी कहीं  पर मिले, तो घर ले आना। मैं दोनों हाथ जोड़कर उससे माफी माँग लूँगी। माँ का संदेश तो मैंने तुमको दे दिया है, और हाँ, कभी माँ या बच्चों से बात करने का मन हो, तो इस नंबर पर बात कर लेना।" कहकर उसने एक विजिटिंग कार्ड रुबी की ओर बढ़ा दिया। फिर घड़ी में समय देखते हुए बोला "घंटा भर हो गया है। उम्मीद है, मोबाइल फोन सुधर गए होंगे।“

        रेस्टोरेंट का बिल अदा करके, जब  वे दोनों बाहर निकले,तो ग़लतफ़हमी का साया हट जाने की वजह से,एक स्वाभाविक ओज उनके चहरों पर नज़र आ रहा था। दोनों ने शॉप से अपने मोबाइल लिए और अतृप्त निगाहों से एक, दूसरे को विदाई दी।

        रूबी जब घर पहुँची, तो उसका सिर भारी सा हो रहा था। उसने चाय बनाकर पी और अपने कमरे में चादर तानकर सो गई। घंटेभर बाद, जब उसकी आँख खुली, तो बैठक में, उसे भाभी की सहेली मीना की आवाज़ सुनाई पड़ी। जान-पहचान वालों ने तो उसे,इधर की उधर करने वाले नारद की उपाधी दे रखी थी। रूबी को भी दोनों के बीच चल रही बातें सुनने की उत्सुकता हुई, तो वह दरवाज़े की ओट में खड़ी हो गई।

        मीना का स्वर आया  "तुम्हारी ननद कहाँ है ?"

        "चाय पीकर, सिरदर्द का नाम लेकर सो रहीं हैं अपने कमरे में।" 

        "तुम्हारी सास के गुजरने के बाद, ये घर के किसी काम में हाथ बँटातीं हैं या नहीं?"

        "जितना उनका मन करे, कर लेतीं हैं। नहीं तो घर से बाहर रहने के लिए नौकरी का बहाना तो है ही।"

        "ये तो तूने सही कहा। लेकिन ये तो बता, तेरी ननद नौकरी करती है, सो घर में कोई मदद करती है या नहीं ?"

        "अरे मदद का क्या है, दूध-भाजी ला दिया, सो हो गई मदद। बाक़ी तो ख़ुद की साड़ी, कपड़े, प्रेस और शौक-फैशन में उठ जाते हैं। हम तो इसलिए कुछ नहीं कहते हैं, कि एक शब्द बोलकर कौन इन भाई-बहन की चखचख सुनें।"

        "वो तो है। अच्छा ये तो बता, तुम लोगों ने अभी तक इसकी शादी क्यों नहीं की ?" मीना ने उत्सुकता से पूछा।

        "इनकी शादी हमने नहीं की। ये तुमसे किसने कह दिया ? हमारा वश चलता, तो इनके हाथ कभी के पीले हो गए होते। ना मालूम किस धोखेबाज से दिल लगा बैठीं। वो शादी करके अपने घर में मजे कर रहा है और ये जोगन बनीं, उसके नाम पर तपस्या कर रही हैं।" भाभी ने सारा गुबार निकालते हुए कहा।

        "धीरे बोल यार। कहीं तेरी ननद जाग न जाए।" मीना ने डरते हुए कहा।

        "जाग जाए तो जाग जाए। रहना तो यहीं है। कौन सा प्रेमी के द्वार पर जाकर धूनी रमायेगी ?" भाभी ने मुँह मटकाते हुए कहा।

        भाभी के इन बोलों ने रुबी की मन-मस्तिष्क को हिलाकर रख दिया। उसका तपस्वी आत्मविश्वास, आँखों के द्वार से पिघलकर बह निकला।अब आगे कुछ और सुनने की सामर्थ्य उसमें नहीं रही थी। वह भागकर पलंग पर जा गिरी। कुछ देर यूँ ही पड़े रहने के बाद, वह एक दृढ़निश्चय  कर चुकी थी। उसने अपने आँसू पोंछकर प्रियेश को फोन लगाकर कहा  "प्रियेश मैं अब और तपस्या नहीं कर सकती। मैं कल तैयार रहूँगी।  कल आर्य समाज मंदिर से शादी करके, हम दोनों परिवारों को खुशियों से सराबोर करेंगे। बच्चों से कह देना, उनकी मम्मी और माँ से कह देना, उनकी रूबी, उनके पास आ रही है।"