सतीश "बब्बा"
साँझ का धुँधलका या पश्चिम की ओर लालिमा
का दृश्य भलाई कवियों, साहित्यकारों के
लिए मनोहारी होता हो लेकिन, सुनयना के लिए तो वह ऐसे दिख रहा था जैसे,
कोई राक्षसी अपने बाल बिखेरे, मुँह बाए
उसी की ओर दौड़ी चली आ रही हो!
वह सूर्य डूबने की लालिमा, उस राक्षसी के होंठों की लाली सी, जिसे प्राकृतिक मेघों की तरह उस भयावह राक्षसी
के खुले केश उस लालिमा को गृहण की तरह घेरने के लिए आमादा थे।
धीरे - धीरे वह कालिमा सारी कायनात को
अपने केशपुंज के आगोश में समाहित करने पर लगी थी। और वह कालिमा अब पूरी तरह घेर
लिया था। झींगुरों की आवाजों से वातावरण और भी भयावह लगने लगा था।
आकाश में चमकते तारे, जो कभी किसी दार्शनिक, कवि के लिए प्रेरणा हुआ करते थे। आज उस अंधेरी राक्षसी के
दंत पंक्ति से, डसने को दौड़ रहे
थे।
गाँव की शाम कभी रंगीन हुआ करती थी।
देर शाम, रात में चौपालें सजा करती
थी। कहीं रामायण, कहीं विश्राम
सागर और महाभारत सुनाई दिया करती थी।
लेकिन, जबसे चुनाव की राजनीति आई, विकास का बिच्छू आया, तबसे कोई किसी के पास नहीं आता - जाता और रात में गाँव की
बिजली अक्सर गोल ही रहा करती है, जिससे भयावहता और
भी बढ़ जाती है।
सुनयना को अपने जीवन का सूरज अस्त होता
सा नजर आ रहा था। पति का सानिध्य उसे संबल दे रहा था। बगल की चारपाई में पोता सो
चुका था। पोता जब तक जगा वह सुनयना के पैर दबाता रहा और सुनयना की आत्मा उसे
आशीषें देती रही थी। सुनयना का पति जाग रहा था।
ऐसा नहीं है कि, सुनयना सदा ऐसी थी। लेकिन ईश्वर ने गरीबी, परेशानी उसके भाग्य में लिखा था।
बचपन में माँ रूखी रोटी थमा देती और
काम पर चली जाती। घर के काम करने के लिए सहेज जाती। तब भूख सहने की क्षमता होती थी
और परिस्थिति से समझौता कर सकते थे। और माँ पेट भरने की कोशिश में लगी रहती थी।
जवानी के आते ही विवाह हो गया। पति
इकलौता, जमींदार घराने से था। सास
ससुर का दुलार सुनयना के लिए यह सुख चंद क्षणों के लिए था। और फिर सास ससुर चल बसे,
और बच्चे पैदा करते, उनको पालते वह दिन, महीने, साल और समय नहीं पहचान
पाई।
बच्चों की परवरिश में कोई कसर नहीं
रखी। छोटे बच्चों को गोद में लेकर, दस किलोमीटर पैदल
चलकर दवा कराती। अब तो दुआरे से सड़क है, लेकिन वाहन में बैठना तकलीफ देता है।
जवानी कब चली गई, वह जान नहीं पाई। बच्चों के परवरिश में कब
जवानी ढल गई समझ नहीं सकी। बेटों की शादी हो गई बहुएं आ गईं। उमर चढ़ते पौरुष जवाब
देने लगा। तब भी बेटे, बहू माँ से ही
लेने के लिए थे, कुछ माँ के लिए
नहीं थे।
सुनयना के पति भी पौरुष हीन हो गए,
क्योंकि सुनयना ही पति के पेट का ध्यान रखती
थी। बाँकी बेटे बहुएं तो फर्ज अदायगी में रहते थे।
बहू की माँ का फोन हर दस मिनट में आता
है। और बहू तीन बजे, कभी चार बजे सूखी
रोटी देती है। सुनयना कब बूढ़ी हो गई उसे पता ही नहीं चला।
अब सुनयना पति से कहती, "ऐसा लगता है कि, कोई नदी की भरी दहार ( गहरे पानी ) में मुझे डुबो रहा है।
मेरा जी घबड़ा रहा है। तुम्हारे सामने मैं मर जाती तो कितना अच्छा होता!"
बेटे बहुएं खुद नाश्ता पानी कर लेते
हैं, सुनयना से यह नहीं पूँछते
कि, 'तुम भी नाश्ता करोगी या
नहीं!'
सुनयना और उसका पति रामदीन यही सोच रहे
थे कि, 'जाने कब हमारे जीवन का
सूरज डूबेगा, जितना जल्दी
डूब जाता उतना ही अच्छा
होता!'
भला बताओ कभी किसी के बुलाने से मौत आई
है! और किसी के रोकने पर मौत रुकी भी नहीं।
पूरा गाँव रात के अँधेरे में डूबा था।
कभी कल कल करती पानी से भरपूर नदी आज सूखी डरावनी नदी है। आज उसी नदी में गाँव भर
का नरदा बह रहा है। इतनी भयावह रात आज तक रामदीन की जिंदगी में आई नहीं थी,
जितनी रामदीन आज महसूस कर रहा था।
सुनयना पति की गोद में सुरक्षित और सुख
महसूस कर रही थी।
रामदीन चाहता था कि, सुनयना सो जाए। और सुनयना चाहती थी कि, वह सो जाए। लेकिन सुनयना की जबान अब बोलने में
असमर्थ थी। न जाने आज मेरी जबान को क्या हुआ? सुनयना सोच रही थी कि, गला रुक गया है खाँसी के कारण, सुबह सबेरे ही पति से दवा मँगाऊँगी।
दूर सूखी नदी में, पहाड़ी के पास सियारों की आज अजीब आवाज बड़ी
डरावनी लग रही थी।
गद्दे की टेक में रामदीन सोने का
प्रयास कर रहा था, क्योंकि सुनयना
का घुरका सुनकर, पति रामदीन ने
सोचा, 'अब इसे आराम हो गया है और
यह सो गई है!'
धुप अँधेरे में रामदीन खुद नहीं समझ
सका कि, वह सो गया था या नहीं।
रामदीन की सुबह धुँधलका उठने की आदत
थी। वह सुनयना का सिर पकड़कर, अपनी गोद से नीचे
करना चाहा
था कि, सिर की ठंडक से चौंक गया।
रामदीन ने सुनयना को हिलाया डुलाया,
कोई हरकत नहीं हुई।
रामदीन एक लुटे मालदार की तरह सुस्त
होता गया। रामदीन ने पोते से बुझे मन से कहा, "देख तो, तेरी अम्मा नहीं
जाग रही!" पोता सुनयना को अम्मा ही कहता था।
पोता भी सुनयना को हिलाया और न बोलने
पर जोर से चीख पड़ा, "अ अ ऽऽ अ अम्मा आ
आ ऽ ऽ ऽआ!" जिससे खुदा तक चौंक गया होगा।
भोर की लालिमा फूटने लगी थी। लेकिन
रामदीन के जीवन की शाम शुरू हो गई थी। भोर की चिड़ियों की चहचहाहट रामदीन के लिए
एक अजीब तरह के शोर में बदलने लगी थी।
सुनयना, रामदीन के जीवन का सूर्य अस्त हो चुका था। और वह भयावह राक्षसी केश की लट
छितराए रामदीन की ओर बढ़ रही थी।
एक पोता फफक फफक कर रो रहा था। और
रामदीन जड़वत् अपने जीवन की शाम को उस भयावह राक्षसी के द्वारा ग्रसित होते देख
रहा था।
बेटे लाश के उठाने की तैयारी में लग गए
थे।
लोकलाज के लिए बेटा दुख जता रहे थे और
बहुएं बनावटी रुदन कर रही थीं।
रामदीन के लिए वही अँधेरा और गहराने लगा
था!