तुम्हारे दर्द का एहसास...
तुम्हारे दर्द का एहसास...

 

तुम्हारे दिए दर्द का एहसास.. 

जब जब भी मुझे होता है..

शब्द लेने लगते हैं आकार..

वाक्य विन्यास से कविता हो जाती है साकार..

तुम्हारे स्पर्श को जब भी महसूस करता हूँ..

हृदय से निकलने लगते हैं.. 

शब्दों के ऐसे भाव..

जिन्हें कभी गीत कभी ग़ज़ल.. 

कभी कविता की शक्ल में ढाल देता हूँ..

तुमसे तो मैंने किया था.. 

सागर की गहराइयों सा अटूट प्रेम..

आख़िर क्या मैंने किया था कोई गुनाह..

 

क्यूँ! तुमने चुनी अलग राह..

अक़्सर अब रहता हूँ उदास..

जीने की बसी न आस..

इन्हीं तन्हाइयों में गुनगुनाता हूँ..

अब तो तुम्हारी याद को.. 

शब्दों से सजाता हूँ..

एक नया रचना संसार बनाता हूँ..

कभी कभी लोगों को सुनाता हूँ..

तेरे दर्द के तड़प से सैकड़ों गीत लिख चुका हूँ..

अब तो इन्हीं के बीच तुम्हारे अक्स को पाता हूँ..

तुम न सही अब शब्दों से मुझे प्रीत है..

इन्ही से तुम्हारे प्रणय का बजता संगीत है..

सच में यही कविताएँ गीत ग़ज़ल मेरे मीत हैं..

यही गीत ग़ज़ल मेरे एहसास को समझते हैं..

अब अपने जैसे ही मुझे ये लगते हैं..

अब तो इसी में मेरे प्राण भी बसते हैं..

तुम्हारे दिए ज़ख्म पर मरहम जैसे लगते हैं...