अपने - अपने मोक्ष

दिनेश दीपावली के पर्व पर सपरिवार गांव आया तो लौटते समय जिद करके अम्मा जी को भी अपने साथ ले गया। उसे इस बात का बहुत मलाल रहता था कि अम्मा जी का लाड़ला बेटा होकर भी वह उनके लिए कुछ नहीं कर पा रहा है।
  दिनेश अपने चारों भाई-बहनों में अम्मा जी का सबसे दुलारा था। शायद परिवार में सबसे छोटा होने के कारण ही अम्मा जी उसका सर्वाधिक ध्यान रखती थीं। बड़ी होने पर दोनों बहने व्याह  कर अपने-अपने घर चली  गयीं और बैंक मेें नौकरी लग जाने के कारण दिनेश भी अपनी पत्नी और बच्चों को लेकर अम्मा जी से दूर रहने लगा। बड़े भइया जो उससे मात्र दो-ढाई वर्ष ही बड़े थे, बचपन में अक्सर अम्मा जी से बिगड़ कर कहते थे - ‘‘अम्मा जी!  तुम्हें छोटे की गलती कभी दिखाई नहीं देती है, हमेशा मेरी ही गलती दिखाई देती है। जब सरासर उसकी ही गलती होती है और मैं उससे झगड़ता हूँ तो तुम हमारे बीच में तुरन्त आ जाती हो और मुझे ही समझाने लगती हो कि वह तो छोटा है, नासमझ है . . . .  तुम  तो अब समझदार हो गये हो। . . . . . . तुमको सब्र से काम लेना चाहिए।’’ और यह कहते- कहते वह रुआसे हो जाते थे। 
  आज जीवन के अन्तिम पड़ाव पर बड़े भइया ही अम्मा जी की देखभाल कर रहे हैं और वह अम्मा जी के लिए कुछ भी नहीं कर पा रहा है। यही सब सोच कर दिनेश ने शहर से घर आते समय ही अपने मन में ठान लिया था कि चाहे जो भी हो जाये, अबकी वह अम्मा जी को अपने साथ लेकर ही लौटेगा। और बचपन की तरह इस बार उसने ऐसी जिद पकड़ी कि अम्मा जी को उसकी बात माननी ही पड़ी।
  अम्मा जी दिनेश की जिद के आगे विवश होकर उसके साथ चली तो आयीं किन्तु उनका मन गांव में ही अटका रह गया। दिनेश के बाबू जी के न रहने पर अम्मा जी घर परिवार की मुखिया- मुख्तार हो गयी थीं। बड़ा बेटा सुरेश बिना अम्मा जी की सलाह लिए कोई काम नहीं करता था। बड़ी बहू भी अम्मा जी को पूरा मान-सम्मान देती। और उनके बच्चे तो अपनी दादी के आगे माँ-बाप की जरा भी परवाह नहीं करते थे। दादी से कपड़े पहनना, दादी के हाथ से खाना खाना और जो कुछ उन्हें चाहिए, उसके लिए दादी से जिद करना बच्चों का स्वभाव हो गया था। अब दादी चाहे स्वयं उनकी माँग पूरी करें, चाहे इसके लिए उनके पिता को आदेश दें। 
  बच्चों से छुट्टी पातीं तो गाय-भैंस की सेवा में अम्मा जी लग जातीं। फिर बेटे- बहू को सलाह-मशविरा भी तो उन्हें कदम-कदम पर देना पड़ता था। इसीलिए उनका शरीर तो दिनेश के साथ चल पड़ा मगर मन वहीं-बहू-बच्चों, गाय-भैंस, खेत-खलिहान बाग-ताल से छुड़ा कर अपने साथ नहीं ले जा सकीं।
  दिनेश एक सरकारी बैंक की ग्रामीण शाखा में शाखा प्रबन्धक के पद पर नियुक्त था। वह प्रातः नौ बजे मोटर साइकिल से ड्यूटी के लिए घर से निकल पड़ता था, तो रात को आठ बजे के बाद ही हारा-थका वापस लौटता। घर में दिनेश की पत्नी और बच्चे अम्मा जी का ख्ूाब ख्याल रखते, मगर अम्मा जी की उदासी दिनो-दिन बढ़ती ही जा रही थी। बहू दिन भर अपनी गृहस्थी के कामों में लगी रहती, बच्चे स्कूल से लौटते तो भोजन करके अपना होमवर्क निपटाने में लग जाते अथवा टी.वी. खोलकर उसके आगे बैठ जाते। ये लोग अम्मा जी के खाने-पीने तथा उनकी आराम का पूरा ख्याल रखते। फिर भी अपनी-अपनी व्यस्तताओं के कारण वे लोग अम्मा जी से अधिक बातें नहीं कर पाते। दिनेश हारा-थका बैंक से लौटता तो अम्मा जी उसे टुकुर-टुकुर निहारती रहतीं, कुछ बोलतीं नहीं।
  एक दिन जब परिवार के सभी लोग रात्रि का भोजन कर रहे थे तो अम्मा जी बोलीं- ‘‘बेटा! अब किसी दिन अवकाश मिले तो मुझे गांव छोड़ आओ।’’
  -‘‘क्यों? यहाँ क्या तकलीफ है?’’- दिनेश ने अम्मा जी की बात सुनकर कुछ बैखलाहट के साथ पूछा।
  ‘‘अब रह तो लिए तुम लोगों के पास इतने दिन। वहाँ मेरे न रहने से बड़ी बहू को घर-गृहस्थी के साथ गाय-भैंसों को भी देखना पड़ता होगा। इधर रवी की फसल की निराई-सिंचाई में सुरेश भी व्यस्त होगा। मैं वहाँ रहूँगी तो बच्चों और गाय-गोरू की थोड़ी-बहुत देखभाल मैं भी करती रहूँगी। यहाँ तो दिन भर खाली बैठने के अलावा कुछ काम ही नहीं है।’’- अम्मा जी ने यहाँ निरर्थक समय बिताने तथा गाँव वापस लौटने के बीसों बहाने गिना डाले।
  दिनेश समझ गया कि अम्मा जी यहाँ अकेलापन महसूस कर रही हैं। अतः उसने मन ही मन निर्णय लिया कि अब वह बैंक से लौटने के बाद कम से कम एक घन्टा अम्मा जी के साथ जरूर बितायेगा। अगले ही दिन से उसने अम्मा जी के साथ एक घन्टा बिताना शुरू कर दिया और बच्चों से भी दादी के साथ बातें करने, उनसे कहानी सुनने के लिए कहा। दिनेश की पत्नी ने भी अम्मा जी से बिना आवश्यकता के सलाह लेना और घरेलू कार्यों में सहायता लेना शुरू कर दिया।
  रविवार के दिन दिनेश नाश्ता खत्म करके अम्मा जी को साथ लेकर टी0वी0 के सामने बैठ गया। टी0वी0 पर प्रयागराज में संगम किनारे लगे कुंभ मेले का विवरण दिखाया जा रहा था। सरकार द्वारा मेले में आने वाले तीर्थ-यात्रियों के लिए की गई व्यवस्था अभूतपूर्व थी, जिसे टी.वी. पर विस्तार से दिखाया जा रहा था। इसके साथ ही विभिन्न अखाड़ों के शाही स्नान को विस्तार से दिखाया जा रहा था। अम्मा जी ने संगम के किनारे के दृश्यों को टी. वी. पर देखा तो उनका मुख-मंडल अधखिले गुलाब की तरह दमक उठा। उनके चेहरे की झुर्रियां हिम-खंडों की भाँति  सिकुड़ने-छीजने लगीं। दांतों के अभाव में सिकुड़ कर गोल हो गये अम्मा जी के होठों में फैलाव आ गया और उनके मुँह से यह शब्द छिटक कर बाहर आ गया- ‘‘बड़भागी’’।
  यह सुनकर पास बैठे  दिनेश ने अम्मा जी की ओर देखा। अम्मा जी जूना अखाड़े की शाही सवारी की टी.वी. पर दिखाई जा रही झांकी को श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़कर प्रणाम कर रही थीं। उसे याद आया कि बचपन में अम्मा जी पूर्णमासी के दिन बारह किमी0 पैदल चल कर गंगा नहाने जाती थीं। वह कुछ ही दूर उनके साथ पैदल चल पाता था, फिर उनकी गोद में चढ़ने के लिए रोने लगता था। मजबूरन अम्मा जी मीलों उसे लादकर अपनी यात्रा पूरी करती थीं।  . . . . . .  अम्मा जी खुद तो फटी-पुरानी धोती पहने रहती थीं, मगर साल में कम से कम एक वार गंगा मइया को ‘पियरी’ (पीली धोती) अवश्य चढ़ती थीं। 
  एक बार दिनेश ने अम्मा जी को जब ‘पियरी’ चढ़ाते देखा तो अम्मा जी से पूछा था- ‘‘अम्मा जी् यह नई धोती गंगा जी में क्यों बहा रही हो? अपनी पुरानी धोती गंगा जी में बहा दो और यह पीली-नई धोती पहन लो।’’ 
  उसकी बात सुनकर अम्मा जी ने उसका मुँह चूमते हुए कहा था कि यह धोती मैंने गंगा मइया को पहनाई है ताकि वह प्रसन्न होकर मेरे लल्ला  को खूब बड़ा कर दें, पढ़ा- लिखा कर खूब धनी-मानी आदमी बना दें। फिर  तू नयी-नयी धोती बाजार से लाकर मुझे पहनाये। . . . .  . . बड़े होकर मेरे लिए लाएगा न नयी धोती?
  और दिनेश भावुक होकर कहता - ‘‘अम्मा जी! मैं बहुत सी अच्छी- नई चमकीली धोती तुम्हारे लिए लाऊँगा।’’
  उसकी तोतली बोली में कही इस बात को सुनकर अम्मा जी उसके मुख पर चुम्बनों की बौछार कर देतीं। फिर खुशी से गीली हो गयी अपनी पलकों को आंचल से पोछकर कुछ बुदबुदाने लगतीं। 
  यह सब सोचते हुए दिनेश की पलकें भी नम हो गयीं। उसने अम्मा जी को कुंभ के अवसर पर संगम में नहलाने का विचार अपने मन में किया। मगर तभी बैंक से छुट्टी की समस्या उसके सामने आकर खड़ी हो गयी। बैंक की ग्रामीण शाखाओं में नियुक्त अधिकारियों को जल्दी अवकाश कहाँ? शाखा में यदि कोई अन्य कनिष्ठ अधिकारी न हुआ तो जब तक आंचलिक कार्यालय बाहर से किसी अधिकारी को न भेजे, तब तक वह कहीं बाहर जाने की सोच भी नहीं सकता। 
  उसे याद आया कि जब वह बाबूगंज शाखा में लिपिक के पद पर कार्यरत था, शाखा के शाखा प्रबन्धक का स्थानान्तरण अन्यत्र हो गया था और शाखा प्रबन्धक शाखा महोदय का प्रभार लेखापाल श्री आर0के0 कटियार को देकर चले गये थे। दुर्भाग्य से एक महीने तक शाखा प्रबन्धक के पद पर कोई अधिकारी नहीं नियुक्त हुआ और कटियार साहब की माँ की मृत्यु हो गयी। कटियार साहब का गाँव बाबूगंज से 60 किमी0 दूर था। ग्यारह बजे कटियार साहब के गाँव से व्यक्ति ने आकर उन्हें यह दुखद सूचना दी थी। मगर दो बजे तक नकद लेन-देन होने के कारण इससे पहले खजाना बन्द नहीं किया जा सकता था और खजाने की चाभी किसी अन्य को देकर वह जा नहीं सकते थे। किसी तरह बैंक स्टाफ ने प्रयास करके साढ़े तीन बजे तक खजाना बन्द करा पाया। इसके बाद ही कटियार साहब अपने घर के लिए निकल सके। 
  अगले दिन सुबह सात बजे अपनी माँ की चिता को आग लगाकर वह बैंक खोलने हेतु वापस भागे! मुड़कर यह भी नहीं देख सके कि चिता ने आग पकड़ ली अथवा नहीं।  . . . . . . आंचलिक कार्यालय से बहुत मिन्नत करने पर तीन दिन बाद एक अन्य अधिकारी को अस्थायी शाखा-प्रभार ग्रहण करने हेतु भेजा गया। 
           दिनेश ने सोचा कि जिले की मुख्य शाखा में उसके कई मित्र नियुक्त हैं, उनमें से किसी को दो-तीन दिन के लिए शाखा प्रभार लेने के लिए वह राजी कर ले, तो अम्मा जी को प्रयाग राज ले जाकर संगम में स्नान करा सकता है। अगले दिन बैंक का कार्य निपटाकर वह सीधे मुख्य शाखा पहुँचा और मुख्य प्रबन्धक से तीन दिन का अवकाश माँगते हुए उसकी शाखा में एक अधिकारी नियुक्त करने की माँग की, जिसे कुछ ना-नुकर के बाद उन्होंने स्वीकार कर लिया। 
  अगले दिन एक अधिकारी ने उसकी शाखा में आकर प्रभार ग्रहण कर लिया। शाम को घर पहुँचते ही दिनेश अम्मा जी से बोला- ‘‘अम्मा जी! चलो कल संगम में स्नान कर आयें।’’
  उसकी बात सुन कर अम्मा जी खिल उठीं। फिर कुछ सोच कर बोलीं- ‘‘हँसी तो नहीं कर रहा है छोटे ?’’
  दिनेश बोला - ‘‘नहीं अम्मा जी! मैं कल से तीन दिन के अवकाश पर रहूँगा। तुम्हें  संगम में डुबकी लगवाने के लिए ही छुट्टी मंजूर कराई है।’’
  कुंभ के सुअवसर पर संगम में डुबकी लगाने से मोक्ष मिलता है। फिर कल तो मौनी अमावस्या भी है। कल के स्नान में तो सोने में सुगन्ध जैसा सुयोग है।’’ - अम्मा जी चहकते हुए बोलीं।
  फिर दिनेश की पत्नी से बोलीं - ‘‘बहू! तुम आज ही पूरी तैयारी करके सोना। ज्यादा सामान ले चलने की जरूरत नहीं है। जेवर बगैरह भी मेले-ठेले में नहीं पहनना चाहिए।’’
  उनकी बात सुनकर दिनेश ने उत्तर दिया -‘‘अम्मा जी! बच्चों की परीक्षा चल रही है, इसलिए ये लोग नहीं जा सकेंगे। बस हम और तुम ही चलेंगे।’’
  दिनेश की बात सुनकर अम्मा जी का उत्साह थोड़ा ठन्डा पड़ गया। वह जैसे किसी द्विविधा में फँस गयी। कुछ देर मौन रह कर पुनः बोलीं- ‘‘तो फिर बच्चों की परीक्षा समाप्त होने के बाद चलो बेटा। ऐसे अवसर बार-बार थोड़े आते हैं। बड़े भाग्य से संगम में स्नान करने का अवसर मिलता है।’’ 
  ‘‘अरे अम्मा जी! बच्चों की परीक्षा तो कुंभ के बाद तक चलेगी। इनके चक्कर में रहोगी तो तुम भी नहीं चल सकोगी।’’- दिनेश जी ने अम्मा जी को प्यार से समझाया। 
  अन्ततः अम्मा जी अकेले ही उसके साथ प्रयागराज जाने के लिए सहमत हो गयीं। दिनेश को एकान्त में पाकर उसकी पत्नी ने उसे घुड़का-‘‘मेले में लाखों आदमियों की भीड़ होगी। न जाने कितने किमी0 पैदल चलना पड़ेगा। अम्मा जी दस कदम चलने पर ही हाँफने लगती है, इतनी दूर कैसे चल पायेंगी-यह भी सोचा है तुमने . . . . फिर इस हाड़- कंपाऊ सर्दी में कहीं ठंड खा गयीं तो जान पर आ बनेगी।’’
  ‘‘तुम अम्मा जी की गंगा जी के प्रति आस्था से परिचित नहीं हो यार। बचपन में मुझे गोद में लाद कर और बड़े भइया का हाथ पकड़ कर बारह किलोमीटर पैदल चल कर गंगा-स्नान करती थीं। कुुंभ के इस पावन अवसर पर संगम में डुबकी लगा लेंगी तो उन्हंे मोक्ष मिल जायेगा।’’
  ‘‘और उन्हें संगम में नहला कर तुम्हें मोक्ष मिल जायेगा।’’ - दिनेश की पत्नी ने उसकी जिद पर कुढ़ते हुए कहा।
  मगर दिनेश को यह बात अच्छी ही लगी। वह अतीत में डूबते हुए बोला - ‘‘अम्मा जी! कभी मुझे पीठ पर लादती, कभी कन्धे पर बैठातीं, एकदम पस्त हो जातीं तो राह में किसी पेड़ के नीचे खुद ही बैठ जातीं और कुछ देर बाद फिर चल पड़तीं। . . . . सोचता हूँ यदि उन्हें पीठ पर लाद कर भी गंगा तट तक ले जाना पड़े तो भी मैं पीछे नहीं हटूँगा। . . . . . अम्मा जी मुझे गोद में लेकर गंगा जी में डुबकी लगाते हुए न जाने क्या-क्या दुआएँ मेरे लिए माँगतीं। शायद उन्हीं के पुण्य-प्रताप से मैं यहाँ तक पहुँचा सका हूँ।’’
  इसके बाद दिनेश की पत्नी कुछ बोल न सकी और उन दोनों के वस्त्र आदि जरूरी सामान एयर बैग में रखने लगीं।
  अगले दिन दिनेश बडे़ भोर ही अम्मा जी के साथ प्रयागराज जाने वाली बस में सवार हो गया। अम्मा जी रास्ते भर मौन रहीं।  वह समझ गया कि अम्मा जी आज मौन-व्रत कर रही हैं। 
  प्रयागराज पहुँचने पर बस से उतर कर वे दोनों एक आटो में सवार हो गये। आटो को पुलिस ने गंगा तट के काफी पहले ही रोक दिया। वहाँ से ये लोग पैदल ही चल पड़े।
  कुछ दूर तक उन्हें पैदल चलना पड़ा। लगभग एक किलोमीटर के बाद दिनेश ने एक खाली रिक्शा आते देखा। रिक्शेवाला काफी उम्रदराज था। उसकी आयु देखकर दिनेश का मन रिक्शे में बैठने का नहीं हुआ। किन्तु इतनी भीड़ में खाली रिक्शा मिल जाने को सौभाग्य मानते हुए, अम्मा जी की कमजोर काया को ध्यान में रख उसने रिक्शे वाले को हाथ के इशारे से रोक लिया और अम्मा जी को रिक्शे में बैठा कर स्वयं भी बेमन से रिक्शे में बैठ गया। 
  रिक्शे वाला मजबूत कद-काठी का परिश्रमी वृद्ध था किन्तु रिक्शा चलाने के उसके ढंग से लग रहा था कि उसे ठीक से रिक्शा चलाना नहीं आता। वह रिक्शे की दिशा बड़ी मुश्किल से नियंत्रित रख पा रहा था। दिनेश ने रिक्शे को इधर-उधर लहराते देख उससे पूछा- ‘‘चाचा! कब से रिक्शा चला रहे हो?’’
   -‘‘बाबू सात-आठ दिन से रिक्शा चला रहे हैं।’’
  -‘‘पहले क्या करते थे?’’
  ‘‘अरे बाबू! हम किसान हैं, गाँव में रहते हैं। यहाँ पत्नी के साथ संगम स्नान के लिए आये थे। गाँव के कुछ और लोग भी साथ थे। पत्नी ने यहाँ एक माह कल्पवास करने की इच्छा व्यक्त की, सो हम यहीं रुक गये। गाँव वालों से सन्देश भेज दिया कि शिवरात्रि तक यहीं रुकेंगे।  . . .. . अब दिन भर यहाँ खाली बैठकर क्या करते? सो एक रिक्शा किराये पर ले लिया। इससे समय भी कट जाता है और कुछ खर्चा-पानी भी मिल जाता है।’’
  दिनेश को वृद्ध की बात सुनकर आश्चर्य हुआ। उसने वृद्ध से कहा- ‘‘चाची ने तुम्हें अच्छा फँसा दिया।
  ‘‘अब पत्नी की इच्छा है तो उसे कौन पूरा करेगा? यह तो पति का ही दायित्व है कि अपनी सामथ्र्य-भर पत्नी की इच्छा पूरी करने का प्रयास करे। वैसे उसे पता नहीं है कि हम दिन मंे यहाँ रिक्शा चलाते हैं, वरना वह एक दिन भी यहाँ न रुकती। तुरन्त गाँव वापस चलने की जिद पकड़ लेती।’’- कहते-कहते वृद्ध हाँफने लगा।
  दिनेश उसकी दशा देखकर बोला- ‘‘बेटे मदद नहीं करते? उनसे रुपये माँग लेते?’’
  ‘‘अरे बाबू! बेटे खबर पा जाये ंतो कहीं से भी जोड़-जुगाड़ करना पड़े, मगर हर हाल में अगले दिन तक रुपये फेंट में बाँधकर यहाँ आ जायें। मगर हम किसान हैं साहब। हर हाल में खुश रह लेना हम किसानो का स्वभाव बन जाता है।’’
  वृद्ध की बात सुनकर दिनेश को बड़े भइया की याद आ गयी। वह भी तो फसल खराब हो जाने पर उससे कुछ नहीं माँगते। अभावों में भी हँसकर समय काट लेते हैं और उसे पता भी नहीं लगने देते कि उन्हें पेसे की तंगी है। कभी शहर आते हैं तो बच्चों के लिए वस्त्र, मिठाई , फल आदि इस प्रकार लाते हैं, मानो यह सब खरीद पाना उनके लिए बहुत आसान है।
  गंगा तट के निकट पहुँचकर दिनेश ने अम्मा जी को रिक्शे से उतारा। फिर पर्स से निकाल कर पाँच सौ रुपये का नोट वृद्ध की ओर बढ़ाते हुए कहा- लो चाचा।’’
  -‘‘अरे बाबू फुटकर नहीं हैं हमारे पास।’’
  -‘‘लौटाना नहीं है ये रुपये मेरी ओर से रख लो।’’
  दिनेश की बात सुनकर वृद्ध ने जीभ निकाल कर हाथ जोड़ते हुए कहा -‘‘ना बाबू। हमें हमारी मजदूरी दे दो बस। इससे अधिक हम नहीं ले सकेंगे।’’
  ‘‘अरे रख लो चाचा। हम खुशी से दे रहे हैं।’’
  -‘‘ना साहब ! हमें मजदूरी केे दस-बीस रुपये जो उचित समझो, वही दे दो।’’
  हार कर दिनेश बीस रुपये उसे पकड़ा कर आगे बढ़ गया।
  संगम में डुबकी लगाकर अम्मा जी देर तक हाथ जोड़े कुछ बुदबुदाती रहीं। फिर सूर्य को जलदान  कर जल के बाहर आयीं तो दिनेश ने अपने बैग से ‘पियरी’ निकाल कर अम्मा जी की ओर बढ़ा दी। ‘पियरी’ देखकर अम्मा जी खिल उठीं। उन्होंने ‘पियरी’ को माथे से लगाया और वापस गंगा जी में प्रवेश कर गयीं और पियरी गंगा जी को अर्पित की। 
  जब वह पुनः नदी से बाहर आयीं तो दिनेश ने एक बहुत ही सुन्दर और मूल्यवान साड़ी अम्मा जी की ओर बढ़ाते हुए कहा- यह लो अम्मा जी। यह साडी गंगा मइया ने तुम्हारे लिये भेजी है। साड़ी देखकर अम्मा जी ने दोनों हाथों से दिनेश का सिर पकड़ कर चुम्बनों की बौछार कर दी।
  उनकी आंखों से अश्रुधार बह रही थी, वह लगातार दिनेश का मुँह चूमे जा रही थीं। दिनेश के गालों पर आंसुओं की अविरल धारा बह रही थी। लोग आश्चर्य से इन दोनों को देख रहे थे। गंगा मइया भी उचक-उचक कर इन माँ-बेटे के क्रियाकलाप को मुदित मन से अगोर रही थीं।