अमृत संवाद


पावस ऋतु का मनभावन श्याम घन गगन मण्डल पर छाया हुआ था। विस्तृत आकाश में प्रभूत जलराशि के साथ श्याम वर्ण को धारण किए हुए असंख्य मेघ-खण्डों को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे बादल की श्यामलता से आकाश में रात्रि का अंधकार विस्तीर्ण हो गया हो और उस अन्धकार में प्रभूत जलराशि को धारण किए हुए अनेक मेघ-खण्ड ही असंख्य अमृत-कुण्ड बनकर विस्तृत गगन में गतिमान हो उठे हों। कुछ समयान्तराल पर श्याम घन की गर्जना अमृत पर प्रभुत्व के लिए चल रहे देवासुर संग्राम से उठने वाली ध्वनि प्रतीत हो रही थी। पावस ऋतु के सावन मास में काले बादल से निरंतर फुहारों के रूप में आकाश से गिर रही जलराशि को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे हरी-भरी धरती के लिए देवगण आकाश से अमृत छिड़क रहे हों। 
 सम्पूर्ण सृष्टि की आत्म-चेतना भगवान शिव माॅं पार्वती के संग पावस ऋतु के इस मनभावन मास में आकाश से बरस रही जलराशि की फुहारों के बीच विस्तृत गगन में विचरण कर रहे थे। पश्चिम में हिन्दुकुश पर्वतमाला से आरम्भ होकर उत्तर में पर्वतराज हिमालय के गर्भ से निकलकर पूर्व में अराकान पर्वतश्रेणी को स्पर्श करती हुई हिन्द महासागर तक फैली विस्तृत भूमि, जो आदिकाल से हमारे मंत्रद्रष्टा ऋषियों की न केवल पावन जन्मभूमि रही है, बल्कि अपनी साधना की पूर्णावस्था में प्राप्त अनुभूतियों के उद्घोष से उन्होंने अपनी इस जन्म एवं उपासना भूमि को ऐसा समाज और ऐसी मानवीय संस्कृति दी, जिसकी आत्मा विविधता, सहिष्णुता और सह-अस्तित्व की त्रिवेणी से निरंतर प्रक्षालित होती रहती है। जगदम्बा पर्वती के साथ जगत् पिता भगवान शिव भारतवर्ष के इस विस्तृत भू-भाग को आकाश से देखकर रूक गए। जगत् पिता की सम्पूर्ण चेतना प्रसन्नता के आलोक से दीप्त हो उठी। हिमालय की गोद में स्थित केदारनाथ और हिन्द महासागर के तट पर अवस्थित रामेश्वरम के प्रांगण में हो रही पूजा-अर्चना के साथ-साथ विस्तृत विशाल भारतवर्ष के समस्त देवालयों एवं शिवालयों में हो रही उपासना जिसे वे अपने हृदय में निरंतर अनुभूत कर रहे थे, उनके समदर्शी राजीव-नयन के समक्ष प्रत्यक्ष दिख रही थी। 
 आदिदेव महादेव के मुदित मन का आभास पाते ही सब कुछ जानते हुए भी सर्वज्ञ माता को आदिदेव के मुख से कुछ बातें सुनने की अभिलाषा प्रबल हो उठी। 
 माॅं ने कहा - नाथ! यह समस्त जगत् आप ही का विस्तार है। जगत् के सभी प्राणियों में हमारा ही आत्मरूप स्थित है। फिर सभी के भाग्य और भौतिक आवरण अलग-अलग क्यों हैं ? कोई अल्पायु तो कोई दीर्घजीवी और कोई वैभवसम्पन्न तो कोई विपन्न क्यों है ? सभी के सुख-दुःख और जीवन में इतना अंतर किस प्रयोजन से है ?
 आदिदेव ने मुस्कुराते हुए माॅं को देखा। उन्हें उनकी अभिलाषा समझते देर नहीं लगी। जगत् पिता ने माॅं से कहा प्रियतमे! तुम सर्वज्ञ हो। शब्द और अर्थ की तरह अलग प्रतीत होते हुए भी हम अभिन्न हैं। ऐसा कुछ नहीं है जो तुमसे अज्ञात हो। उत्तम विषयों से सम्बन्धित ज्ञात संवाद भी दुहराने पर नवीन एवं रूचिकर ही प्रतीत होते हैं। 
 माॅं पार्वती - नाथ ! आपके मुख से निकला हर शब्द नए अर्थ से युक्त होता है। प्राणनाथ ! आप ज्ञान के सृजक, संरक्षक और उस ज्ञान को विस्तार देकर उसे प्राणिमात्र के लिए उपयोगी बनाने वाले हैं। ज्ञान के उद्गम से ज्ञान की अभिव्यंजना मनभावन ही नहीं अपितु आध्यात्मिक आलोक का शब्दों में रूपांतरण ही है। देव ! आज ऐसे ही शब्दों के श्रवण की अभिलाषा प्रबल हो उठी है। 



 आदिदेव शिव - महादेवी ! तुम्हारा कथन सर्वथा सत्य है कि जगत् के समस्त जीव हमारा ही आत्मरूप है परन्तु ऐसा होते हुए भी सभी के सुख-दुःख, भाग्य और भौतिक आवरण अलग-अलग हैं। 
 माॅं पार्वती - प्रभु ! जगत् में जो परोपकारी, नीतिवान, धार्मिक और परिश्रमी हैं, वे प्रायः अभावग्रस्त रहते हुए दुःख झेलते हैं और अत्याचारी, कुपथगामी तथा परिश्रमहीन उसके बनिस्बत वैभव और सुख का जीवन जीते हैं। नीतिपथ पर चलने का सुफल यदि जीवन में न दिखे तो नीति और धर्म के मार्ग पर मनुष्य का विश्वास कैसे अटल रह पाएगा प्रभु ?
 आदिदेव शिव - प्रियतमा ! जगत् के समस्त प्राणी कर्म बन्धन से बॅंधे हुए हैं। प्राणी का वर्तमान जीवन वस्तुतः उसके प्रारब्ध कर्मों का प्रतिफल है और प्रारब्ध कर्मों को केवल हम देखते हैं और जानते हैं, उन कर्मों की स्मृति और ज्ञान अल्पज्ञ जीव को नहीं हो सकता। देवी! मनुष्य का जीवन तीन प्रकार के कर्मों से आबद्ध है। वे तीन कर्म हैं- संचयीमान, संचित और प्रारब्ध। जगत् के प्राणी वर्तमान में जो कर्म करते हंै वह उनका संचयीमान कर्म है। यही संचयीमान कर्म कालांतर में संचित और प्रारब्ध कर्म बनते हैं। अतः प्राणी का वर्तमान कर्म ही संचित कर्म होते हुए प्रारब्ध कर्म बनकर उसका भाग्य बनता है। प्राणी का कर्म बीज है, वह कालांतर में वृक्ष बनकर फल अवश्य देता है। विवेकशील प्राणी ईश्वर उपासना और सत्कर्मों से संचयीमान एवं संचित कर्मों के कुफल को रोक सकता है, परन्तु प्रारब्ध कर्मों के फल अपरिवर्तित होते हैं। उसके प्रतिफल से जीव मुक्त नहीं हो सकता है। 
 माॅं पार्वती - महाप्रभु ! क्या अत्याचारी और कुमार्गी प्राणी वर्तमान जीवन में अपने उत्तम प्रारब्ध कर्मों के कारण सुख भोगते हैं और सज्जन और सत्कर्मी प्राणी के वर्तमान दुःखों का कारण उसके प्रारब्ध कर्मों का अच्छा न होना है ?
 आदिदेव शिव - सत्य यही है प्रिये!
 माॅं पार्वती - नाथ ! सुखी जीवन के लिए ईश्वर की उपासना की फिर क्या आवश्यकता है? प्राणी का केवल संचयीमान कर्म नीतिपूर्ण एवं मानवता से युक्त होना चाहिए। यही उत्तम संचयीमान कर्म कालांतर में संचित कर्म और फिर सुफलदायी प्रारब्ध कर्म बनकर जीव को वैभवसम्पन्न सुखी जीवन प्रदान कर देगा।
 आदिदेव शिव - महादेवी ! नैतिक और मानवीय पथ पर जीवन को अग्रसर रखना एक प्रकार की उत्तम फलदायी ईश्वर उपासना है। प्रिये ! जिस प्रकार जीवन के लिए प्राणवायु आवश्यक है, उसी प्रकार मानवीय और नैतिक होना ईश्वर उपासना का मूल तत्व है। मानवता और नैतिकता केवल विचार और वाणी से ही नहीं अपितु कर्म और आचरण से प्रकट होनी चाहिए।  
 माॅं पार्वती - जगत् के जीवों के विविध भौतिक रूप के पीछे क्या रहस्य है भगवन?



 आदिदेव शिव - महादेवी ! जीव अपने कर्म फल के अनुसार ही शरीर धारण करता है। जगत् के जीवों का विभिन्न भौतिक आवरण में प्रकाशित होना ही उसका भाग्य है। जीवों का भिन्न भौतिक आवरण में उसकी चेतना का स्तर भी उसकी देह के अनुरूप ही होता है, यद्यपि समस्त जीवों में एक ही आत्मतत्व के रूप में हम प्रकाशमान हैं, परन्तु जीव के प्रारब्ध कर्मों के आधार पर उसके आत्मतत्व पर माया और अज्ञान के घनीभूत आवरण का विस्तार अलग-अलग होता है। यही कारण है कि जगत् के सभी जीवों की आत्म-चेतना समान रूप से जाग्रत नहीं होती है। जीवों का अपनी सुप्त आत्म-चेतना से माया और अज्ञान के आवरण को हटाकर जाग्रत पूर्ण आत्म-चेतना को पाना ही जीव का ईश्वरीय स्तर को प्राप्त करना है। जीव ईश्वर ही है, परन्तु माया और अज्ञान के कारण उसकी स्थिति ईश्वर से भिन्न प्रतीत होती है। 
 माॅं पार्वती - महाप्रभु ! ये चेतना का भिन्न स्तर क्या है ?
 आदिदेव शिव - प्रिये ! वेदान्त दर्शन के पाॅंच प्रकार के कोष ही आत्म-चेतना के पाॅंच भिन्न स्तर हैं। ये कोष हैं-अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोष। वेदान्त के यही पाॅंच प्रकार के कोष जीव की आत्म-चेतना के पाॅंच स्तर हैं। अन्नमय कोष में जीव में चेतना तो होती है, परन्तु उसकी अभिव्यक्ति नहीं होती। जगत् के वृक्ष एवं वनस्पतियाॅं अन्नमय कोष में आती हैं। प्राणमय कोष में चेतना भी होती है और उसकी अस्पष्ट अभिव्यक्ति भी होती है, परन्तु चेतना पर अज्ञान और माया का आवरण अत्यन्त घनीभूत होता है। अतः चेतना शुद्ध और परिष्कृत रूप में अभिव्यक्त नहीं हो पाती। जगत् के पशु-पक्षी इस कोटि में आते हैं। मनोमय कोष के जीव में चेतना, उसकी अनुभूति और उसकी अभिव्यक्ति तीनों स्पष्ट रूप में होती हैं। इस कोटि में जगत् के मनुष्य आते हैं। विज्ञानमय कोष के जीव की चेतना अत्यन्त प्रबल और परिष्कृत होती है। इस कोटि में सिद्ध, संत और ऋषि-मुनि आते हैं। आनन्दमय कोष की चेतना ईश्वरीय चेतना है। जगत् के मनुष्य में उसके विवेक, बुद्धि और संस्कार के अनुसार उसके चरित्र से चेतना के विभिन्न स्तर परिलक्षित होते रहते हैं। कुछ मनुष्य मनोमय कोष की चेतना रखते हुए भी अपने आचरण से अन्नमय कोष तो कुछ प्राणमय कोष की चेतना में ही जीते रहते हैं। अधिकांश मनुष्य मनोमय कोष की चेतना में जीकर ही जीवन बिता देते हैं। विरल मनुष्य अपने उत्तम कर्मों और साधना से विज्ञानमय कोष की चेतना को प्राप्त कर पाते हैं। युगों में कोई एक मनुष्य अपनी विरल एवं उत्कृष्ट साधना तथा इन्द्रियनिग्रह से आनन्दमय कोष की ईश्वरीय सत्ता को प्राप्त कर जन्म-मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो पाता है। अपने कर्मों के आधार पर जीवात्मा आत्म-चेतना के विभिन्न कोष में गमन करती रहती है। जीवात्मा की चरम उपलब्धि एवं सार्थक साधना यही है कि वह अन्नमय कोष से उठकर आनन्दमय कोष की दिव्य चेतना को प्राप्त करे। जीवात्मा वैराग्य, समाधि और तपस्या से ही नहीं, बल्कि अपने आचरण को नैतिक और मानवीय बनाकर तथा जीव मात्र के प्रति सेवाभाव में संलग्न रहकर भी आनन्दमय कोष की दिव्य चेतना प्राप्त कर सकती है। 



 माॅं पार्वती - अद्भुत भगवन ! अद्भुत ! प्रभु ! जगत् के जीवों का जन्म, शारीरिक आवरण और भाग्य उसके संचयीमान कर्मों पर निर्भर है। यही संचयीमान कर्म कालांतर में संचित और प्रारब्ध कर्म बनते हैं। जीव कर्म किस प्रेरणा से करता है ?
 आदिदेव - प्रिये ! जीव कर्म करने के लिए स्वतंत्र है। ईश्वर में सच्ची आस्था उसे सदा नैतिक, मानवीय और सत्कर्मों के लिए प्रेरित करती है, लेकिन जीव अपने कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी है। जीवात्मा के कर्म उर्वर मिट्टी में गिरे बीज की तरह होते हैं। जिस प्रकार बीज अपनी प्रकृति और अपने स्वरूप के अनुरूप वृक्ष, पुष्प और फल में परिवर्तित होता है, उसी प्रकार जीवात्मा अपने कर्मों के अनुरूप जन्म-मृत्यु के भवसागर में चक्कर काटते हुए नाना प्रकार का सुख-दुःख भोगती रहती है। ईश्वर किसी को सुख और दुःख नहीं देता है। सुख एवं दुःख के लिए स्वयं जीवात्म के अपने कर्म ही उत्तरदायी हैं। महादेवी ! अनादि काल से जगत् का यही विधान रहा है। 
 माॅं पार्वती - नाथ ! जीवात्मा के कर्म ही उसके सुख-दुःख और भाग्य के आधार हैं। जीवात्मा कितने प्रकार के दुःखों को भोगती है और उससे मुक्ति का आधार क्या है ?
 आदिदेव - महादेवी ! जीवात्म रोगादि से ग्रसित होकर दैहिक दुःख, प्राकृतिक प्रकोप का शिकार होकर दैविक दुःख और धन एवं वैभव की हानि उठाकर भौतिक दुःखों से ग्रसित रहती है। जीवात्मा पर उसके प्रारब्ध कर्मों के फलस्वरूप दैहिक, दैविक और भौतिक दुःखों का प्रहार उसके जीवन पर्यन्त होते रहते हैं। जीवात्मा के दुःख मुख्यतः इन्हीं तीन कोटियों में आते हैं।
 माॅं पार्वती - स्वामी ! इससे मुक्ति के उपाय क्या हैं ? 
 आदिदेव शिव - कर्म-बन्धन से मुक्ति ही समस्त दुःखों से मुक्ति है। यही मोक्ष की अवस्था है, जहाॅं जीवात्मा जन्म और मृत्यु के भव-चक्र से मुक्त हो जाती है। 
 माॅं पार्वती - मोक्ष प्राप्ति के साधन क्या हैं देव ? 
 आदिदेव शिव - महादेवी ! भक्ति, ज्ञान और वांछित नैतिक कर्म, जिन्हें वेदान्त दर्शन में नित्य और नैमित्तिक कर्म कहा गया है, मोक्ष प्राप्ति के साधन हैं। वेदान्त दर्शन में उल्लिखित ‘‘साधन चतुष्टय’’ में मोक्ष प्राप्ति के स्पष्ट उपाय वर्णित है। ‘‘साधन चतुष्टय’’ के अन्तर्गत निम्नांकित तथ्यों को आत्मसात करना होता है-
 (1) नित्यानित्यवस्तुविवेक - नित्य और अनित्य वस्तुओं में भेद करना और  तद्नुरूप वस्तुओं के प्रति आचरण करना।
 (2) इहामुत्तार्थभोगविराग - लौकिक और पारलौकिक सुख-भोग की  कामना का  परित्याग।
 (3) शमदमादिसाधनसम्पत् - शम (मन का नियंत्रण), दम (इन्द्रियों पर  नियंत्रण) आदि गुणों से युक्त होना अर्थात् जितेन्द्रिय व्यक्ति होना। 
(4) मुमुक्षुत्व - मोक्ष प्राप्ति की विह्वलता। नित्य आत्मतत्व रूपी ईश्वर को ध्यान में रखते हुए उनका मनन करना ताकि सांसारिक आसक्ति से उत्पन्न कर्मगत कमजोरी से जीवात्मा स्वयं की रक्षा कर सके। 
  देवी ! ‘‘साधन चतुष्टय’’ मोक्ष के ज्ञान मार्ग हैं। वेदान्त दर्शन में मोक्ष के भक्ति मार्ग को ‘‘साधनसप्तक’’ कहते हैं। ‘‘साधनसप्तक’’ में इन बातों को आचरण में लाना चाहिए -
 (1) विवेक- सात्विक भोजन।
 (2) विमोक - काम, क्रोध, लोभ, पूर्वाग्रह और अहंकार का त्याग करना।
 (3) अभ्यास - अन्तर्यामी आत्मा का ध्यान।
 (4) क्रिया - कत्र्तव्य पालन।
 (5) कल्याण - सत्य आदि का ध्यान।
 (6) अनवसाद - दुःख और निराशा का त्याग करना। 
(7) अनुद्धर्ष अर्थात् मध्यम मार्ग - अति संतुष्टि और असंतुष्टि के बीच का मार्ग। 
 देवी ! मोक्ष की प्राप्ति के लिए ईश्वरीय सत्ता में आस्था और आत्मसंयम  आवश्यक है। ‘‘ईश्वरीय आस्था’’ और ‘‘आत्मसंयम’’ से जीव कर्मजन्य फल को कम करते हुए तटस्थ जीवन के पथ पर अग्रसर हो सकता है। यह सब मनन और प्रयत्न से किसी के लिए भी संभव है। इस हेतु किसी प्रकार की कठिन साधना आवश्यक नहीं है।
 माॅं के मुख पर संतुष्टि का भाव उभर आया। माॅं ने कहा - देव ! सत्य आप हैं। जगत् परिवर्तनशील होने के कारण मिथ्या है। असत्य का कहीं अस्तित्व नहीं है। जीव की अनुभूति में सत्ता अर्थात् अस्तित्व के कई रूप उभरते और मिटते रहते हैं। ‘‘सत्ता’’ के वास्तविक स्वरूप और स्तर क्या हंै प्रभु ?
 आदिदेव शिव - महादेवी ! सत्ता के विविध और वास्तविक स्वरूप एवं स्तर को अभिव्यक्त नहीं, बल्कि वास्तव में केवल अनुभूत किया जा सकता है तथापि वेदान्त दर्शन में सत्ता के तीन स्तर वर्णित हैं। आदि शंकराचार्य के रूप में मैंने ही जम्बू द्वीप के इस पावन भू-खण्ड पर आकर इस दर्शन का प्रतिपादन करके सनातन एवं शाश्वत चिन्तन को संरक्षित तथा पोषित किया था। वेदान्त दर्शन मंे वर्णित सत्ता के तीन स्तर इस प्रकार हैं -
(1) पारमार्थिक सत्ता - यह त्रिकालाबाधित सत्ता है। यह सत्ता केवल हम हैं। यह सत्ता का सर्वोच्च और वास्तविक स्तर है। यह सत्ता अपरिवर्तनशील और नित्य है।
 (2) प्रातिभासिक सत्ता - यह व्यक्ति विशेष के अनुभव में आती है और  कुछ समय तक अस्तित्व में रहती है। मनुष्य के स्वप्न इसके सुन्दर दृष्टान्त हैं। 
 (3) व्यावहारिक सत्ता - व्यावहारिक सत्ता सार्वभौम अनुभव का विषय है और  यह दीर्घकाल तक अस्तित्व रखती है। जगत् व्यावहारिक सत्ता का सुस्पष्ट दृष्टान्त  है। 
 उल्लेखनीय है कि व्यावहारिक सत्ता प्रातिभाषिक सत्ता से उच्चतर है, जबकि पारमार्थिक सत्ता से निम्नतर है। स्वप्न देख रहे मनुष्य के लिए स्वप्न की घटनाएॅं वास्तविक प्रतीत होती हंै। वस्तुतः वह उस समय प्रातिभाषिक सत्ता को अनुभूत कर रहा होता है। जैसे ही मनुष्य नींद से जागकर व्यावहारिक सत्ता अर्थात् जगत् को देखता है, उसे स्वप्न में दिख रही प्रातिभाषिक सत्ता की घटनाएॅं असत्य और हास्यास्पद प्रतीत होने लगती है। उसी प्रकार जब जीव को मेरी सत्ता अर्थात् पारमार्थिक सत्ता का ज्ञान हो जाता है या जिसे इस पारमार्थिक सत्ता का ज्ञान है, उसे जगत् अर्थात् व्यावहारिक सत्ता स्वप्न की तरह असार, असत्य और अल्पकालिक प्रतीत होती है और ऐेसी चेतना से सम्पन्न जीव संसार के प्रति तटस्थ एवं जीवमात्र के प्रति मानवीय तथा करूणाशील होकर जीता है। वह कभी अपने स्वार्थ के लिए क्षुद्रता, अनुदारता और परपीड़ा जैसे कर्मों का वरण नहीं करता है। मनुष्यता ही उसका प्रथम धर्म होता है। वह संसार में सर्वत्र मुझे ही देखता है। ऐसा मनुष्य संसार की आसक्ति से उत्पन्न कर्मों के विकारों से सदा मुक्त रहता है। जीव के जीवन की सार्थकता इसी में है कि वह पारमार्थिक सत्ता अर्थात् मुझे हमेशा ध्यान में रखकर व्यावहारिक सत्ता अर्थात् जगत् में वांछित कर्मों का निष्पादन करते हुए मोक्ष को प्राप्त करे।



 माॅं पार्वती - भगवन ! आपने अनेक विषयों पर मेरी जिज्ञासा शांत कर दी है। जगत् में कई जीव आपका स्मरण, मनन एवं आराधना करते रहते हैं। ऐसे भक्त जीवों की अनुभूति हमें प्रतिपल होती रहती है। वास्तव में कौन आपका सच्चा भक्त और सच्चा अनुयायी है ?
 आदिदेव शिव - महादेवी ! तुम सर्वज्ञाता हो। तुम्हारे लिए किसी प्रकार की जिज्ञासा अशेष नहीं है। तथापि हम तुम्हारे इच्छानुरूप संवाद को आगे बढ़ाते हैं। प्रिये ! ज्ञान से बढ़कर आचरण है। जीव कितना ज्ञानी है, कितना सोचता है, कितना दूरदर्शी है, उसके हृदयगत भाव कितने अच्छे हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि वह करता क्या है, उसका आचरण कैसा है ? जिसका आचरण पवित्र और मानवीय है, वही सन्त है। ज्ञाता विद्वान से सरल आचरण और पवित्र हृदय वाला सन्त मुझे प्रिय है। मैं शिव परिवार के रूप में जगत् के मनुष्य को निरंतर अपना संदेश देता रहता हूॅं। विरोधियों के साथ सामंजस्य ही मेरा संदेश है और यही जगत् की सभ्यता का चरम लक्ष्य भी है। हमारा शिव परिवार स्वभाव से एक-दूसरे का घोर विरोधी है। कार्तिक का वाहन मयूर मेरे गले में स्थित सर्प का शत्रु है। गणेश के वाहन चूहे का भक्षण सर्प कर लेता है। तुम्हारा वाहन सिंह मेरे वाहन बैल को मार देता है अर्थात् सब परस्पर विरोधी हैं। जगत् में ये सब एक-दूसरे के घोर शत्रु हैं, परन्तु मेरे परिवार और मेरी चेतना के आलोक में आकर सब मैत्री-भाव से एक-दूसरे के साथ बैठे रहते हैं। यही सामंजस्य और सहृदयता मुझे प्रिय है। मेरा सच्चा अनुयायी ही अपने विरोधी की वाणी को धैर्य और सम्मान से सुनते हुए वैचारिक विरोध के प्रति भी सदा सहृदय और सहिष्णु रह सकता है। मेरा सच्चा भक्त और अनुयायी वही है, जो विरोधियों के बीच शिव परिवार की तरह सामंजस्य, सहृदयता और सदाशयता स्थापित करके लोककल्याण के भाव को धारण करते हुए जगत् के सभी जीवों में मेरी ही उपस्थिति को अनुभूत करता हुआ जीवमात्र के प्रति अपनत्व और आत्मीयता के अनुराग से परिपूर्ण हो। 
 माॅं पार्वती - नाथ ! मेरी अभिलाषा यही है कि जगत् कल्याण के लिए जन-जन में आपके ये भाव प्रसारित होकर मनुष्य के आचरण में उतर आएं, क्योंकि मनुष्यता की सार्थकता ज्ञान में नहीं ज्ञानानुरूप आचरण में है।
 आदिदेव शिव ने आदिशक्ति माॅं पार्वती के साथ पुनः प्रशस्त भारतवर्ष को विहंगम दृष्टि से अवलोकित किया, तत्पश्चात वे वरदान मुद्रा में हाथ उठाकर जगत् को कल्याण का आशीर्वाद देते हुए तीव्र वेग से जगदम्बा के साथ अनन्त अंतरिक्ष में विलीन हो गए।