नामवर सिंह. यह नाम कौन नहीं जानता? साहित्य का विद्यार्थी हो, राजनीति का या समाज के किसी भी क्षेत्र का. नामवर सिंह बने ही ऐसी मिट्टी के थे. वह देश और दुनिया में नामवर थे, नाम से ज्यादा अपने काम से. नामवर जी जब अपने नाम से ज्यादा नामवर हो गए तो दुनिया जानने-पहचानने-मानने लगी. वही दुनिया जिसने न उनके संघर्ष को देखना उचित समझा और न सुनना. साथ तो देने का सवाल ही नहीं. साथ था परिवार जिसे उन्होंने अपनी लगन के आगे कुछ माना नहीं, कुछ जाना नहीं. भरोसा ना हो तो उन्हीं के छोटे भाई काशीनाथ सिंह की "घर का जोगी जोगड़ा" पढ़ लीजिए. परत-दर-परत नामवर सिंह खुलते चले जाएंगे, बनते चले जाएंगे और उनके संघर्ष भी चलचित्र की तरह आपकी आंखों के सामने आते चले जाएंगे. अब यह आप पर है इन चित्रों को आप सिर्फ देखे भर या उसमें गोते लगाएं ( नामवर सिंह की तरह) अगर उनको जानने और समझने की लगन हो तो.
नामवर सिंह ने पढ़ाई-पढ़ाई-पढ़ाई.. इसके अलावा कुछ देखा ही कहां? किताबें, कलम और कमरा, चाहे बनारस का रहा हो या दिल्ली का. उनकी यह किताबें-यह कमरा धर्म पत्नी के लिए सौत सरीखी थी. यह हम नहीं कह रहे. कह रही है "घर का जोगी जोगड़ा". पिता (नागर सिंह), भाई ( राम जी और काशीनाथ सिंह), काशी नाथ जी की भौजी यानी नामवर जी की धर्मपत्नी.. नामवर जी के साथ अपने रिश्तो को पूरी जिंदगी जी नहीं पाए. पाते भी कैसे? नामवर जी की प्राथमिकता तो किताबें, किताबें और सिर्फ किताबे ही थी. इन सब का नंबर बाद में.
घर का जोगी जोगड़ा पढ़ते हुए ही आप जानेंगे "नामवर" बनने की डगर दरअसल ( नामवर जी होते तो दरअस्ल लिखते ) होती कितनी कठिन है? नामवर कोई यूं ही नहीं होता. उसके पीछे होती है-साधना-तपस्या-संघर्ष और धैर्य. हिमालय की वादियों में तपस्या फिर भी आसान है, लेकिन समाज में रहते-राजनीति करते अपने निर्धारित लक्ष्य को भेदने की क्षमता विकसित करना बहुत कठिन है. नामवरजी अपने जीवन में ऐसी ही कठिन साधना करते हुए नाम कमाते चलते चले गए.. पीछे लगने, आलोचना करने वाले करते ही रह गए- पिछड़ते गए.
1926 में जन्मे बड़के जने ( पिता उन्हें इसी नाम से पुकारते थे) 1941 यानी कुल जमा 15 साल की अवस्था में जीयनपुर ( पहले बनारस अब चंदौली का एक छोटा सा गांव ) से बनारस पढ़ाई करने चले गए. गए तो गए. फिर लौटकर गांव में कुछ दिन ही रुकना-रुकाना हुआ बाकी तो बनारस में ही.अपनी राह पर बढ़ते हुए नामवर जी ने क्या-क्या दिन नहीं देखे. काशी में फाकाकशी से लेकर निम्न दर्जे के विरोध तक. चुनाव लड़ कर और हारने और काशी विश्वविद्यालय से निकाले जाने के बाद भी नामवर जी अपनी "रौ" में ही रहे. " मुझे याद नहीं कि विश्वविद्यालय से निष्कासन की सूचना उन्हें चुनाव लड़ने के दौरान ही मिली थी या बाद में. बहरहाल हार के बाद में पार्टी ऑफिस से घर आए थे-थके-मांदे. मैंने आज तक ऐसे किसी आदमी की कल्पना नहीं की थी जिसके सारे दुखों, सारी परेशानियों, पराजयो तिरस्कारो और अपमानो का विकल्प अध्ययन हो". चुनाव हारने और अच्छी खासी नौकरी जाने का सियापा घर में हो और वह आदमी खर्राटे ले रहा हो या कमरा बंद करके किसी लेख की तैयारी कर रहा हो या पढ़ी गई किताब से नोट्स ले रहा हो" ( पेज नंबर 28).
नामवर तो नामवर थे सारे झंझावात हंसते-मुस्कुराते झेलते चलते रहे-चलते रहे और वह दिन भी आया जब दुर्दिन दूर हुए और दुनिया में नाम भी खूब लेकिन कभी नाम पर अभिमान नहीं किया. सरलता-सहजता सदैव आभूषण की तरह गले में पड़े रहे. यही उनकी पहचान भी-यही उनके स्वाभिमान भी. विश्वविद्यालय से निष्कासन को कोर्ट में चुनौती की सलाह को उन्होंने यह कह कर नकार दिया कि जिस विश्वविद्यालय में सम्मान से सात-आठ साल पढ़ाया हो वहां अब अदालत के हुक्म से नहीं पढ़ाऊंगा. कसम खाई थी अब विश्वविद्यालय में पैर नहीं रखूंगा तो नहीं ही रखा. तब भी जब मां पैर में फ्रैक्चर होने की वजह से 4 महीने विश्वविद्यालय के अस्पताल में एडमिट भी रही.
नामवर जी हिंदी साहित्य की एक ऐसी शख्सियत है, जिन्होंने पढ़ा ज्यादा-लिखा कम-कहा ज्यादा. सभाओं-सेमिनार और गोष्ठियों में उनका "कहा" साहित्य का शास्त्र माना जाता है. जो कह दिया वह कह दिया. छोटे भाई काशीनाथ सिंह लिखते हैं- " और भाषा पर ऐसा निर्बाध नियंत्रण की क्या कहिए? मजाल जो कोई शब्द या वाक्य या मुहावरा उनकी इच्छा के बिना अपनी मर्जी से कही ताक-तूककर चुपके से या जबरदस्ती घुस आने की जुर्रत करे" ( घर का जोगी जोगड़ा पेज नंबर-85).
वह लिखते हैं-" एक दिन जब मूड में थे, मैंने पूछा-" पिछले 10 सालों से जो घूम घूम कर अब यहां वहां भाषण करते फिर रहे हैं इसके पीछे क्या मकसद है आपका?" उन्होंने फिराक का एक शेर सुनाया-
दुविधा पैदा कर दे दिलों में
ईमानो को दे टकराने
बात वह कर इश्क कि जिससे
सब कायल हो कोई न माने" ( पेज नंबर-121 )
विश्व साहित्य के गंभीर अध्येता नामवर सिंह कुछ बातों को हल्के में निपटाने में भी माहिर थे. इसके एक नहीं ढेरों प्रसंग "घर का जोगी जोगड़ा" में ही मौजूद मिलते हैं.
नामवर जी की पैदाइश 28 जुलाई है, लेकिन कागजों में 1 मई लिख या लिखाई गई. उनकी जयंती 28 और 29 जुलाई दोनों ही दिन मनाए जाने का रिवाज सिर्फ साल भर बाद ही चल निकला है. नंबर जीके जीवन पर शोध ग्रंथ और किताबें लिखने वाले लेखक श्री भारत यायावर नामवर जी की जन्म तिथि 28 जुलाई मानते हैं और प्रख्यात पत्रकार एवं उनके साथ जीवन के तमाम वर्ष गुजारने वाले इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र नई दिल्ली के अध्यक्ष आदरणीय राम बहादुर राय के हिसाब से जयंती की तारीख 29 जुलाई है. हालांकि काशीनाथ सिंह ने "घर का जोगी जोगड़ा" में उनकी जन्म तिथि 1 मई लिखी है. राजकमल प्रकाशन ने उनके जन्मदिन मनाने की परंपरा शुरू की. यह उनके ना रहने के बाद भी चलती चली आ रही है. शायद चलती रहेगी भी. आज वह होते तो हम सब उनकी 93 वी जयंती मना रहे होते. अपने अनुयायियों के बीच में उनकी धीरता होती, गंभीरता होती और साथ में ठिठोली भी.
ऐसे नामवर जी से अपनी मुलाकात का यह 15 वां वर्ष होता. उनसे पहली बार मिलने का सुयोग आदरणीय प्रभाष जोशी जी और आदरणीय राम बहादुर राय जी के माध्यम से ही बना था. मौका था उन्नाव में डॉ शिवमंगल सिंह सुमन हिंदी भवन के लोकार्पण और उनकी आवक्ष प्रतिमा के अनावरण का. सुमन जी की प्रतिमा अनावरण के अनौपचारिक आमंत्रण के बिना ही नामवर जी केवल प्रभाष जोशी जी के अनुरोध पर उन्नाव इस कार्यक्रम में शिरकत करने आ गए थे. क्या आप आज या बीते हुए कल में किसी ऐसे "नामवर" इंसान के आयोजकों के बिना औपचारिक अनुरोध के किसी कार्यक्रम में पहुंच जाने की कल्पना भी कर सकते है? लेकिन नामवर को "नामवर" बनाने में संभवतः इन गुणों और संस्कारों का भी काफी योगदान रहा था. ऐसे गुण कढ़े-पढ़ें व्यक्ति में ही आते हैं. नामवर जी पढ़े भी थे और कढ़े भी. इसीलिए समाज पर उनकी छाप साहित्य से कम नहीं.
फिर तो उनके दर्शन और उनका सानिध्य खास खास मौकों पर (चाहे दिल्ली हो, लखनऊ या रायबरेली ) मिलता ही रहा. कहां उनके जैसा विराट व्यक्तित्व और कहां रायबरेली की एक साहित्यिक संस्था आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय स्मारक समिति का छोटा सा-" आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी युग प्रेरक सम्मान". इसे ग्रहण करने वह रायबरेली भी पधारे. हम सब को इस बात की खुशी है कि विकिपीडिया (गूगल) ने नामवर सिंह जी को अब तक मिले सम्मान की सूची में साहित्य अकादमी, साहित्य भूषण (उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान) के साथ " महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान 21 दिसंबर 2010" को भी शामिल कर रखा है. यह बिना नामवर जी के बताए तो नहीं ही दर्ज हुआ होगा. यह भी उनकी महानता का ही एक परिचय है.
नामवर जी की वह रायबरेली यात्रा हम सबके लिए आज भी यादगार है. हमें पक्की तरह से याद है, उन्होंने सम्मान ग्रहण करने के बाद कार्यक्रम में कहा था-" आचार्य द्विवेदी हिंदी साहित्य के प्रथम आचार्य है". पूरा उद्बोधन ही आचार्य द्विवेदी पर केंद्रित रहा. करीब 45 मिनट के उनके संबोधन को सुनने के लिए सभागार श्रोताओं से खचाखच भरा था.उनकी यह यात्रा यादगार इस मायने में और ज्यादा है कि दूसरे दिन उन्होंने आचार्य द्विवेदी के जन्म ग्राम दौलतपुर (जिसे साहित्य धाम कहा जाता है) गए और आचार्य द्विवेदी स्मृति पुस्तकालय का लोकार्पण भी किया. उद्घाटन का यह पत्थर आज भी उनकी इस यात्रा का गवाह है. आचार्य द्विवेदी द्वारा अपनी धर्मपत्नी की स्मृति में बनवाए गए " स्मृति मंदिर" में मूर्ति के समक्ष माथा टेकते हुए उन्होंने भाव पूर्वक यह भी कहा था-" गौरव, तुम धन्य हो, हमें दौलतपुर दिखा दिया". हृदय से निकले उनके इस आशीर्वाद को हम भूल कैसे सकते हैं? भूलने का मतलब है अपने को अंधेरे में धकेलना. कौन भला उजाले से अंधेरे में जाना चाहेगा?
ऐसे हिंदुस्तान भर के प्रिय एवं हम सबके श्रद्धेय नामवर जी को जयंती पर शत-शत नमन..
नामवर सिंह जयंती (28-29 जुलाई) पर विशेष यूं ही कोई नामवर नहीं होता..