यह कैसी ऋतु आयी

यह कैसी ऋतु आयी।।


अफवाहें घूम रहीं 

इधर-उधर बौरायी।।

 

बेर-केर बन बैठे

निकट के पड़ोसी हैं।

नफरत की खेती के

कितने ही दोषी हैं।

 

गुड़हल, गेंदा झुलसे,

नागफनी हरियायी।।1।।

 

छतों और छज्जों से

पत्थर हैं उछल रहे।

रक्तपान करने को

चाकू हैं मचल रहे।

 

बारूदी गंध मुई

आंगन तक घुस आयी।।2।।

 

सन्नाटे टहल रहे

गलियों, चौराहों पर।

भड़काऊ नारों की

नज़र है गुनाहों पर।

 

रह-रह गरजे कट्टे,

तलवारें लहरायीं।

यह कैसी ऋतु आयी।।

 

डा. मृदुल शर्मा,

569क/108/2, स्नेह नगर,

आलमबाग, लखन ऊ-226005