प्रभु श्री राम रावण पर विजय प्राप्त कर अयोध्या लौट आए थे। प्रभु के अद्वितीय एवं अविस्मरणीय राज्याभिषेक की अह्लादकारी स्मृति से अवधवासियों का मन-मानस रह रहकर पुलकित हो उठता था। महाप्रतापी इक्क्ष्वाकु वंश के अखण्ड यश का कीर्ति-ध्वज प्रभु श्रीराम के अवध के सिंहासन पर आसीन होते ही अमित एवं अक्षय गौरव के साथ लहरा उठा था। प्रभु के साथ सिंहासन पर बायीं तरफ लक्ष्मी स्वरूपा भगवती मांॅं जनकदुलारी विराजमान थीं। अमित कीर्तिधारक रघुवंश के राजसिंहासन पर भगवन एवं जनकनन्दिनी की आभा ललितादित्य के समान प्रखर, पावन एवं मनभावन लग रही थी। प्रभु का अयोध्या का राजपद धारण करना ऐसा लग रहा था जैसे स्वयं नारायण ने ही बैकुण्ठ छोड़कर अवध के राजपद का वरण कर लिया हो।
महाप्रतापी रघुवंश की अतुल्य गौरवगाथा सम्पूर्ण गरिमा के साथ प्रभु के संरक्षण में कालप्रवाह संग आगे बढ़ रही थी। रघुवंश के प्रजापालक, अतुलबलशाली एवं पराक्रमी सम्राटों से अह्लादित एवं गौरवान्वित राजदरबार आज प्रभु श्रीराम एवं माँ लक्ष्मी स्वरूपा जनकनन्दिनी को सिंहासन पर पाकर कृतार्थ हो रहा था। राजदरबार में लंकापति विभीषण, किष्किन्धा नरेश सुग्रीव, नीतिज्ञ जामवंत, अनुज भरत, वीरवर लक्ष्मण, राजकुमार अंगद एवं महाबलशाली हनुमान की उपस्थिति से ऐसा लग रहा था कि समस्त उज्ज्वल एवं दिव्य भाव ही शरीरधारण करके स्वयं प्रभु नारायण एवं माँ लक्ष्मी के समक्ष विभिन्न रूपों में विराजमान हो। लंका-विजय की उपलब्धि एवं प्रभु के सान्निध्य की प्रसन्नता सबके मुखमण्डल पर उभर आयी थी। राजदरबार में विशिष्टजन की गरिमामयी उपस्थिति एवं भगवन के सान्निध्य से पुलकित होकर माँ जानकी ने प्रभु से कहा- करूणानिधान ! मनुष्य का जीवन सर्वाधिक प्रभावित किससे होता है- ज्ञान, कर्म, प्रेम, साहस, आशा, परोपकार, कठिन परिश्रम, ईश्वर-भक्ति, प्रारब्ध या किसी अन्य गुण से। भगवन ने मन्द मुस्कान के साथ मौन रहते हुए लंकापति की ओर उत्तर की अपेक्षा में संकेत किया। लंकापति विभीषण करबद्ध बोल उठे- प्रभु ! निःसन्देह माँ के प्रश्न का उत्तर जीवन के प्रबल प्रेरणा-पथ को प्रशस्त करने वाला सिद्ध होगा। मैं अपनी मति के अनुरूप तो यही कह सकता हूॅं कि ’’आपसी पे्रम’’ मनुष्य के जीवन पर गहरा प्रभाव डालता है। लंकापति रावण के पास क्या नहीं था प्रभु , ज्ञान, बल और शिव-भक्ति में उनकी कीर्ति-पताका सदा ऊँचाई पर लहराती रही। वे शस्त्र और शास्त्र में ही पारंगत नहीं थे बल्कि सोने की समृ़़़द्ध लंका के वे महान प्रजापालक भी थे लेकिन भाई और भाई के बीच आपसी प्रेम न रहने के कारण आप वनवासी होकर भी विजयी रहे। मैं अपने अनुभव एवं सम्पूर्ण विश्वास के साथ कह सकता हूंॅ कि 84 दिनों के लंका-युद्ध में प्रभु आपकी प्रबल शक्ति एवं अतुलित क्षमता आप दोनों भाइयों का प्रेम था और यही भ्रातृ-प्रेम मेरे महाबलशाली अहंकारी भाई के अपरिमित बल एवं पराक्रम को निस्तेज करके उनके विनाश का मार्ग प्रशस्त कर दिया। प्रभु को लगा कि विभीषण की वाणी में न केवल उनका अनुभव बल्कि गहन पश्चाताप भी झलक रहा है। रक्त-सम्बन्ध को मिटाकर हम कितने ही महान लक्ष्य को क्यों न पा लें लेकिन हमारी सजग चेतना सदा हमारी अन्तरात्मा को धिक्कारती रहती है। विभीषण की वाणी में सत्य के साथ-साथ उनकी सजग चेतना का धिक्कार भी प्रकट हो रहा था। प्रभु का मौन यथावत था। अन्तर्यामी प्रभु अपने मित्र लंकापति की पीड़ा गहरायी से अनुभूत कर रहे थे। विभीषण ने अपनी वाणी की फंूक से आत्मा पर पड़ी ग्लानि की धूल को उड़ाने की चेष्टा की थी परन्तु ऐसा लगा कि धूल उड़कर पुनः उनके तन-मन से चिपक गई हो। जीवन्त आत्मा के लिए कोई भी कलंक गहन पीड़ादायक होता है। विभीषण करबद्ध मुद्रा में नत होकर मौन हो गए।
प्रभु ने किष्किन्धा नरेश सुग्रीव की ओर उत्तर की आशा में संकेत किया। सुग्रीव ने आत्मविश्वास के साथ ‘‘ साहस एवं आशा ’’ को जीवन का सर्वाधिक प्रभावकारी गुण बताते हुए कहा कि साहस एवं आशा के कारण ही प्रभु आपके सहयोग से मैं परम बलशाली बालि पर विजय प्राप्त कर सका। यदि मैं साहस और आशा की डोर छोड़ देता तो आज न तो आपकी कृपा प्राप्त होती और न ही आज मैं किष्किन्धा नरेश होता।
सुग्रीव के मौन होते ही प्रभु की दृष्टि नीतिज्ञ जामवंत पर पड़ी। जामवंत ने ‘’ समर्थ स्वामी का संरक्षण ’’ को मनुष्य के जीवन के लिए सर्वाधिक प्रभावी मानते हुए कहा कि इसका प्रबल प्रमाण प्रभु आपका महाप्रतापी सूर्यवंश है। इस प्रजापालक राजवंश के माध्यम से अवध की प्रजा को एक से बढ़कर एक प्रतापी नरेश का संरक्षण प्राप्त हुआ जिससे यहां की प्रजा को बैकुण्ठ के समतुल्य सुख-सुविधा का सौभाग्य मिला है। समर्थ स्वामी परम वात्सल्य माॅं के समान अपने अधीनस्थ का पोषण एवं संरक्षण करते हैं। प्रभु ! मेरा यह मत अनुभव एवं ज्ञान की पृष्ठभूमि से निकला है, हो सकता है यह अर्द्धसत्य हो क्योंकि सम्पूर्ण सत्य के ज्ञाता आपके सिवा इस ब्रह्माण्ड में कोई नहीं है। जामवंत प्रभु को नमन कर मौन हो गए।
प्रभु ने राजकुमार अंगद की ओर संकेत किया। अंगद को ’’अग्रज की आज्ञा का पालन’’ श्रेयस्कर प्रतीत हुआ। उन्होंने इसे विस्तार देते हुए कहा कि प्रभु परम प्रतापी पिताश्री महाराज बालि ने प्राण उत्सर्ग करते समय मुझे मन-वचन-कर्म से आपकी सेवा में रत रहने की आज्ञा दी थी। मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं कि मैंने उनकी आज्ञा का पालन करके स्वयं के जीवन को धन्य किया है। अंगद के प्रति प्रभु का वात्सल्य प्रेम आंखों से छलक उठा। अंगद ने नत-मस्तक होकर प्रभु को नमन किया।
प्रभु ने कहा-भरत इस विषय में तुम्हारा क्या मत है ? भरत नतमस्तक हो करबद्ध मुद्रा में बोल उठे-भ्राताश्री ’’ सत्यनिष्ठा के साथ समर्पण की भावना’’ हमारे जीवन की दशा और दिशा तय करती है। मैंने इस सत्य को न केवल अनुभूत किया बल्कि आपकी वनवास-अवधि में इसे जीकर भी देखा है। प्रभु! ज्ञान और यथार्थ की सम्मिलित विचार-भूमि से मैंने इस वैचारिक रत्न को पाया है जिसे मैं आपकी आज्ञा से आपके समक्ष रख रहा हूंॅ। भगवन राजसिंहासन पर संतुष्टि के भाव में नेत्र मूंदकर मुस्करा उठे।
प्रभु की दृष्टि लक्ष्मण पर पड़ी। लक्ष्मण ने करबद्ध मुद्रा में अपनी बातें प्रबलता से रखते हुए कहा-भैय्या! ’’लक्ष्य के प्रति कठिन साधना एवं परिश्रम’’ ही हमें जीवन की समस्याओं पर विजय प्राप्त करने की क्षमता देती है। मेरी दृष्टि में मनुष्य के प्रभावी गुणों में इसकी गणना आदिकाल से होती आयी है। लक्ष्मण के उद्बोधन से प्रभु के मानस-पटल पर लक्ष्मण का आत्मविश्वास, युद्ध में उनका पराक्रम एवं संघर्ष के क्षणों उनकी दृढ़ता की स्मृतियाॅं एक-एक करके साकार होती गई। भगवन प्रसन्न मुद्रा में अवध के राजसिंहासन पर माॅं जानकी के साथ सागर की अथाह एवं शांत जलराशि की भांति गभीर एवं मौन थे।
भगवन के नेत्र कुछ क्षण बन्द रहे। राजदरबार की शोभा आदित्य की प्रखर किरण की तरह दीप्त हो रही थी। राजदरबार के आसनों में जड़े बहुमूल्य प्रकाशमान रत्न नक्षत्रों के समान दीप्त होकर राजदरबार की आभा को अलौकिकता प्रदान कर रहे थे। ऐसा लग रहा था कि सम्पूर्ण ब्रहम्ाण्ड में अयोध्या के राजदरबार के समान रमणीय एवं वैभवपूर्ण स्थल कहीं नहीं है। प्रभु ने पवनपुत्र हनुमान को मुस्कराकर इस विषय में अपना मत रखने की आज्ञा दी। प्रभु का अनन्य सेवक हनुमान भाव-विह्वल हो उठा। हाथ जोड़कर उन्होंने प्रभु को प्रणाम करते हुए कहा- भगवन ! आप सत्य भी हैं और सत्य के ज्ञाता भी, जगत् के शेष सब ज्ञान अर्द्धसत्य है। प्रत्येक व्यक्ति का सत्य स्वयं उसके ही जीवन के अनुभव की अभिव्यक्ति है। यही कारण है कि इस मोहरूपी संसार में सत्य के अनेक रूप हैं। आवश्यक नहीं कि किसी एक व्यक्ति का सत्य दूसरे के लिए भी सत्य हो। अतः सज्जनता यही कहती है कि हमें सभी के सत्य के प्रति सहिष्णु एवं श्रद्धानवत् रहना चाहिए। व्यक्ति अपने अनुभूत सत्य के अनुरूप ही सोचता और व्यवहार करता है। अतएव, व्यक्तियों के बीच विरोध एवं अलग विचारों का होना स्वाभाविक मानवीय विशेषता है। अभी इस राजदरबार के गुणी वक्ताओं द्वारा व्यक्त विचार भिन्न होते हुए भी किसी न किसी दृष्टि से सत्य है। प्रभु ! मेरा मत है जो इन विरोधाभासी सत्यों को सहिष्णुता से आत्मसात कर अपने कर्मों को प्रभु चरणों में अर्पित करते हुए जीवन-पथ पर अग्रसर है, ऐसे सात्विकजन का सदा सत्संग ही मनुष्य के जीवन पर सर्वाधिक प्रभाव डालता है। भगवन ! यह मेरे जीवन का अटल अनुभूत सत्य है। प्रभु ! मेरा सौभाग्य है कि सेवक के रूप में मैं आपका सत्संग प्राप्त कर पाया। आपके सत्संग ने मेरे जीवन को धन्य कर दिया। अतः मेरा अनुभूत सत्य तो यही कहता है कि सत्संग का जीवन पर सर्वाधिक गहरा एवं परिवर्तनकारी प्रभाव पड़ता है। यद्यपि मुझे जन्म से ही अतुलित बल प्राप्त था तथापि मैं ऋष्यमूक पर्वत पर बालि के भय से महाराज सुग्रीव के साथ छिपकर जी रहा था। छिपकर जीना पुरूषार्थ नहीं कायरता है और कायरता हमारी चेतना को निस्तेज करके व्यक्तित्व को मलिन बना देती है। यह ज्ञात होते हुए मैं छिपकर जीने के लिए अभिशप्त था। आपके सन्निध्य के उपरान्त ही मुझे अपनी क्षमता एवं जीवन-उद्देश्य का बोध हुआ। प्रभु! मेरे जीवन की सार्थकता एवं मेरा विमल यश आपके सत्संग का ही अमोघ प्रतिफल है। पवन पुत्र इतना कहकर नमन की मुद्रा में ही मौन हो गए।
प्रभु कुछ क्षण शांत रहने के उपरान्त अपना सम्बोधन प्रारम्भ किया। सभी की दृष्टि प्रभु के मुखारविन्द पर अटक गई। वे बोल उठे - इस विषय पर आप सभी के विचार उत्कृष्ट एवं सत्य हैं। आप सबके द्वारा कही गई मानवीय विशेषताएं एक-दूसरे से अलग होते हुए भी सत्य एवं मानव जीवन के लिए प्रभावकारी है। यह निर्णय अब जानकनन्दिनी करेगीं कि सर्वाधिक प्रभावकारी कौन सी मानवीय विशेषता है। मांॅ जानकी भी प्रभु के मुखारविन्द को ही निहार रही थी। मांॅ ने मन्द मुस्कान के साथ प्रभु द्वारा प्रदत्त दायित्व को स्वीकार करते हुए कहा-वास्तव में सभी के विचार सत्य एवं हृदयग्राही हैं। हमारे लिए परम सौभाग्य की बात है कि ऐसे गुणी एवं विचारवान लोग हमारे साथी, सहयोगी एवं सेवक हैं। आप सबके परम अनुकरणीय उद्गारों के बीच मैंने जो अनुभूत किया वह यह है कि पुत्र हनुमान का कथन मुझे अत्यन्त मनभावन लगा। वत्स हनुमान ने सत्य कहा कि ‘’सत्संग’‘ का हमारे जीवन पर सर्वाधिक परिवर्तनकारी प्रभाव पड़ता है। सात्विक पुरूष का सत्संग व्यक्ति के सौभाग्य को दिखाता है और ऐसे सात्विक सत्संगी को सदा जीवन में बनाए रखना व्यक्ति की योग्यता एवं संस्कार को दर्शाता है। यह करूणानिधान एवं हनुमान का परम सौभाग्य था कि परिस्थितिवश वे एक-दूसरे से मिले परन्तु दोनों महात्माओं का एक-दूसरे के जीवन में सदा बना रहना दोनों की विलक्षण योग्यता एवं अद्भुत संस्कार को प्रमाणित करता है। जनकनन्दिनी के उद्बोधन पर सम्पूर्ण राजदरबार जय ! जय ! की ध्वनि के साथ उनके प्रति सम्मान व्यक्त किया। हर्ष ध्वनि शांत होते ही प्रभु बोल उठे-वत्स हनुमान ! तुम अतुलित बल लेकर इस पृथ्वी पर आए थे। जनकनन्दिनी ने तुम्हें अमर होने का आशीर्वाद दिया। आज मैं तुम्हें ज्ञानियों में अग्रगण्य होने का वरदान देता हूॅं। आज से अतुलित बल एवं अमरत्व के साथ-साथ तुम ज्ञानियों में भी सदा श्रेष्ठ माने जाओगे। अंजनिपुत्र हनुमान का मुखमण्डल प्रभु के प्रति कृतज्ञता से दीप्त हो उठा। प्रभु के अम्बुज-चरण पर मस्तक रखकर पवनपुत्र हनुमान अत्यन्त विह्वलता के साथ जय सियाराम बोल उठे।
अग्रगण्य ज्ञानी