उन दोनों को आगे की सीट मिल गयी थी। बस जैसे ही खुली, गोपाल प्रसाद ने मुस्कुराकर अपनी पत्नी की ओर देखा, फिर इत्मीनान से अपनी आँखें मूँद लीं। वे चलती हुई बस में खिड़की से आती हुई ठंडी हवा के झोंके का आनंद लेने लगे। वे भूल गये कि अपनी आँखों के आॅपरेशन के लिए बड़े शहर में जा रहे हैं और यह भी कि कितनी मुश्किल से इसके लिए पैसों का इंतजाम किया था। अभी तो उन्हें लग रहा था कि कहीं घूमने ही निकले हैं। वे याद करने लगे कि कब से गौरी उन्हें कह रही थी कि उसे कहीं घुमाने नहीं ले जाते हैं। यही उलाहना सुनते-सुनते उम्र बीत गयी थी। आपरेशन के लिए ही निकले थे तो न जाने क्यों पत्नी का संग उन्हें इतना अच्छा लग रहा था। ऐसा महसूस हो रहा था जैसे वे पत्नी के साथ पर्यटन पर निकले हैं। अचानक बस ने जोर से ब्रेक लिया तो उनकी आँखें खुल गयीं। सड़क पर एक महिला दिखायी दी। फिर वह महिला अदृश्य हो गयी। शायद पहिये के नीचे......आ......गयी.....होगी। यह सोचते ही वे चिल्ला उठे, ‘‘अरे-रे.......बस रोकिये-रोकिये।’’
दूसरे यात्री ने पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’
उन्होंने कहा, ‘‘एक औरत को शायद ठोकर लगी है।’’
उनकी पत्नी गौरी ने पूछा, ‘‘क्या?’’
वे धीरे से बोले, ‘‘ठोकर लगी है......पता नहीं क्या हुआ? मर गयी क्या?’’
तभी सड़क पर बस की दोनों ओर लोग चिल्लाने लगे, ‘‘रोको-रोको।’’
एक युवक ने चिल्लाकर कहा, ‘‘अबे रोक। ठोकर मारकर भागा जा रहा है?’’
तभी कई लोगों की आवाजें आने लगीं। बौखलायी हुई आवाजें, चिल्लाहटें........।
‘‘स्साले पीकर चलाते हैं।’’
‘‘अरे.......बस को रोकिये।’’
‘‘भाग रहा है। भागने न पाये।’’
‘‘नहीं। इसे भागने नहीं देंगे हम।’’
कुछ लोग सड़क पर बस के सामने खड़े होकर हाथ उठाकर ‘‘रोको-रोको’’ कहकर बस को रोकने की कोषिष कर रहे थे। पर अचानक धीमी हुई बस की रफ्तार ड्राइवर ने बढ़ा दी। तब सभी रास्ते से हट गये और बस भाग चली। गौरी और बस में बैठे अन्य यात्री घबरा गये थे। औरतें तो खास तौर पर आँखें विस्फारित कर देख रही थीं कि अब क्या होगा? क्या होने वाला है?
गौरी ने अपने पति से पूछा, ‘‘अब क्या होगा? ये बस को कहाँ लिये जा रहा है?’’
गोपाल प्रसाद क्या जवाब देते? चुपचाप रह गये। घबराहट तो उन्हें भी हो रही थी। सभी यात्री आपस में कानाफूसी कर रहे थे।
एक यात्री ने उनसे पूछा, ‘‘क्या हुआ है भाई साहब?’’
उन्होंने धीमे स्वर में कहा, ‘‘एक औरत बस के नीचे आ गयी है।’’
सड़क के बाहर कई युवक बाइक से बस का पीछा कर रहे थे और बस भागी जा रही थी। बाहर हंगामा मच गया था। उस महिला को सड़क की एक ओर सुला दिया गया था। वह निष्प्राण हो चुकी थी। कुछ लोग मोबाइल से नंबर मिला-मिलाकर फोन करने लगे और सड़क पर भागमभाग का माहौल व्याप्त हो गया। आमलोग इस उग्र भीड़ से बचने के लिए दुकानों में शरण लेने लगे। लड़के बस पर पत्थर फेंकने लगे थे। मासूम बाइक सवार यह नजारा देखकर अपनी और अपनी बाइक की सुरक्षा के लिए मुख्य सड़क से अलग हटकर गलियों में घुस गये। आती-जाती गाड़ियाँ रुक गयी या किनारे हो गयीं। न जाने कहाँ से, देखते-ही-देखते युवकों के हाथ में डंडे और लाठियाँ आ गयी थीं। हर क्षण उनकी संख्या बढ़ती जा रही थी। कई युवकों ने खड़ी कारों पर डंडे मारकर उनके शीशे तोड़ डाले। उधर बस पागल की तरह बेतहाशा भागी जा रही थी। सामने आते हुए वाहन यदि अपने को नहीं बचाते तो वह दो-चार वाहनों को दुर्घटनाग्रस्त करती और दो-चार जानें और ले लेती। तभी एक पत्थर खिड़की के भीतर से घुसा और गौरी की आँख में लग गया। चोट कसकर लगी थी। वह आह-आह करने लगी और अपने आँचल से आँख को दबा दिया। गोपाल प्रसाद अपना रूमाल निकालकर अपनी बीवी की चोट लगी आँख से बहते खून को पोंछना चाह रहे थे। पर वह अपना आँचल हटा ही नहीं रही थी और दर्द से तड़प रही थी। वे बस को रोकने के लिए नहीं कह सकते थे। एक तो बस रुकती नहीं, दूसरे बस रोकने पर न जाने लड़के क्या करते? कहीं बस को जला देते? इसलिए अब तो सब कुछ परिस्थिति पर छोड़ देना था। जो हो रहा था उसे भोगना था।
भागती हुई बस जब तक बाइपास चैक पर पहुँची, तब तक लाठी, डंडे, सरिया से लैस भीड़ वहाँ जमा हो चुकी थी; क्योंकि मोबाइल से उन्हें खबर दे दी गयी थी। उनलोगों ने सड़क घेरकर बस को रोक दिया। उसके बाद कुछ लोग बस में चढ़ गये और ड्राइवर को नीचे उतारकर उसे पीटने लगे। लात-घूँसों के प्रहार के कारण ड्राइवर अधमरा हो चला था।
तभी पुलिस की जीप वहाँ आ पहुँची। पुलिस अधिकारी ने बीच बचाव करते हुए ड्राइवर को छुड़ाकर जीप में बैठा लिया। इस हरकत से लड़के और बौखला गये और अधिकारियों से हाथापाई करने लगे।
एक लड़का चिल्लाया, ‘‘उतारो बस ड्राइवर को।’’
दूसरा बोला, ‘‘हाँ-हाँ, चलो हमारे हवाले करो उसे।’’
‘‘सब इसीलिए तो इसे लेकर जा रहे हैं कि घूस खाकर छोड़ देंगे इसे।’’
‘‘हाँ-हाँ! और क्या?’’
‘‘यही तरीका है इनका।’’
‘‘अबे उतार न! कहा न?’’
सब इसी तरह चीख रहे थे। पुलिस की जीप के ड्राइवर ने ज्योंहि जीप स्टार्ट की कि उसे सब मिलकर पीटने लगे। किसी तरह वह जीप लेकर वहाँ से भागने में सफल हुआ और थाने पहुँचा। लड़के भी बाइक से पीछा करते हुए थाने पहुँच गये और लाठी-डंडे लेकर खिड़कियों के शीशे बजाने लगे। चनाक्-चनाक् की आवाजों के साथ शीशे चिनचिनाते हुए टूटकर नीचे गिरने लगे। उन लोगों ने कुर्सियाँ उलट दीं। फाइलें फेंक दीं। पुलिसकर्मी सहमे हुए मुँह छुपाने लगे।
उस स्थान पर जहाँ उस महिला की मौत हुई थी, वहाँ से लेकर थाने और बाइपास चैक तक बवालियों के झुण्ड-के-झुण्ड गश्त लगा रहे थे और अपनी लाठियाँ हवा में लहरा रहे थे। किसी-किसी के पास तलवार भी थी। उनलोगों ने मृतका को सड़क पर रखवाकर सड़क जाम करवा दिया। मृतका के परिजन तो शोक में डूबे हुए थे। उन्हें होश भी नहीं था कि क्या करना चाहिए। वह किसी की माँ थी। किसी की पत्नी थी। कुछ बच्चे बिन माँ के हो गये थे। कोई विधुर हो गया था।
अब लड़कों ने दूसरे मुहल्ले का रुख किया। वे हंगामा करते हुए सड़कों पर घूम रहे थे और अपनी खुराफाती नजरों से चारो ओर ऐसे देख रहे थे जैसे आज और अभी क्या-क्या कर दें कि उन्हें बहादुरी का खिताब मिल जाये। नारेबाजी, जुलूस और हड़ताल की संस्कृति में बड़े हुए लोगों के लिए लड़कों का सड़कों पर इस तरह घूमना कोई चैंकाने वाली बात नहीं थी। कुछ दुकानदार बैठे-बैठे दिलचस्पी लेकर यह सब देख रहे थे कि ऐसा तो कभी देखने को न मिला.....अजीब नजारा है! तभी कुछ लड़के दुकानों में घुस गये और दुकानदारों से उलझने लगे। रोबीली आवाज में एक बोला, ‘‘अरे, अपनी दुकान बंद कर।’’
दुकानदार जब तक कुछ समझता और जवाब देता, तब तक दो-चार लड़के आये। किसी ने आटा का पैकेट उठाया और बाइक पर लाद लिया। किसी ने लपककर स्नैक्स-बिस्कुट के पैकेट ले लिये। कई सामान निकाल-निकाल बाहर फेंकने लगे।
दुकानदार चिल्लाने लगा तो उसे चाकू दिखाया। यह सब देखते ही अन्य दुकानों के शटर खटाखट बंद होने लगे। जिन दुकानों के शटर गिरने में देर हुई उन दुकानों में वे सब घुस गये। किसी दुकान से चप्पल-जूते उठा लिये गये तो किसी दुकान से बाल्टियाँ, मग वगैरह उठा लिये गये। दूध के पार्लर से दूध के ट्रे तक उठा लिये गये। सड़क पर बिछी मछलियों की दुकानों से मछलियाँ भी गायब हो गयीं। पान के दुकानों से बंदनवार की तरह लटकी गुटकों की लंबी-लंबी मालाएँ देखते-देखते तोड़ ली गयीं।
थोड़ी दूर पर सब्जी वालों ने अपना बाजार पसार रखा था खुले आकाश के नीचे, सड़क के किनारे। उनके पास शटर कहाँ था कि गिराते? दुकानें कहाँ थीं जो बंद कर दी जातीं? वे तो ठेले पर गाँव से सब्जियाँ लादकर रोज ले आते थे और सड़क के किनारे रखकर बेचते थे। वे घबरा उठे कि कैसे क्या करें? पर मन में विश्वास था कि उनकी सब्जियों को कौन छुयेगा? बहुत होगा तो मारपीट करेंगे और चले जायेंगे। तमाशबीन बने वे देख रहे थे सब। कुछ सब्जीवालियाँ भयभीत होकर बुत बनी बैठी हुई थीं। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। इस आफत से कैसे बचें वे?
तभी एक झुंड उनके पास भी पहुँचा। किसी ने पैर से सब्जी की टोकरी में ठोकर मारी। फिर तो कई टोकरियाँ उलटा दी गयीं। दो लपकते हुए आये और कपड़े पर बिछी सब्जियों को गठरी बाँधकर उठाया और फरार हो गये। कुछेक ने टमाटर की टोकरी उठा ली तो किसी ने कद्दू। एक लड़के ने सब्जीवाली की कमर से बटुआ निकाल लिया। वह चिल्लाती रह गयी। फिर उसकी चिल्लाहट विलाप में बदल गयी और वह सड़क के किनारे खड़ी-खड़ी फूट-फूटकर रोने लगी।
दीपक आज पहली बार फल बेचने निकला था। रोज बाप की झिड़की सुनता था कि कुछ कमाता नहीं है। कहाँ से क्या करता? पैसे तो थे नहीं उसके पास। न ही बाप इतना समर्थ था कि उसे देता तो कर्ज़ उठाकर उसने हरे-हरे सिंगापुरी केले खरीदे थे और लाल-लाल सेब। अपने सजे हुए ठेले को उसने अपनी आँखों भर देखा था। लड़कों की लूटपाट देखकर वह तेजी से ठेला डगराते हुए चल पड़ा था कि लड़के उसके पास पहुँच गये। कुछ केले छील-छीलकर खाने लगे। कई लड़के केलों के हत्थे-के-हत्थे उठाकर भाग चले तो एक ने उसकी पहली कमाई के सारे पैसे छीन लिये। वह वहीं-का-वहीं खड़ा रह गया-लुटा हुआ। फिर लड़कों ने और कई ठेले लूट लिये।
जगह-जगह टायर जला दिये गये थे। आमलोग डरकर अपने-अपने घरों में बंद हो गये थे और खिड़कियों से या छतों पर चढ़कर यह तमाशा देख रहे थे।
अस्पताल में अब गौरी की आँखों का आॅपरेशन हो रहा था। गोपाल प्रसाद आॅपरेशन थियेटर के बाहर बैठे थे उनकी मोतियाबिंदी आँखें बार-बार नम हुई जा रही थीं।
सारा दिन लूटपाट और दहशत में बीत गया था। काली रात में कफ्र्यू जैसा सन्नाटा पसरा हुआ था। मृतका के घर में मातम था। पर कई घरों से मसालेदार सब्जी और मछली की गंध उठ रही थी।