उपेक्षा का दंश सहते स्वतंत्रता संग्राम के नायकों के परिजन

देश की आजादी के लिये अपने प्राणों की बाजी लगा देने वाले वीर स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को आजादी के बाद मिली दर-दर की ठोकर और उपेक्षा ने उन्हें तोड़ कर रख दिया है। मात्र भूमि को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिये किये गये उनके त्याग और बलिदान की कीमत को स्वतंत्रता मिलने के बाद अपनों के हाथों अपमानित होने का दर्द सहने वाले अनेक आजादी के सिपाही आजादी के 6५ वर्ष के बाद भी अपने हकों को पाने के लिये इन्तजार में है। ललितपुर जनपद के परमानन्द मोदी ने 1942-43 में भूमिगत रहकर अंग्रेजों के विरूद्ध सत्याग्रह किया, लेकिन अभावों में लड़ता परमानन्द मोदी जिला प्रशासन के दर पर अनेक बार दस्तक देने के बाद भी सेनानी का दर्जा पाने के लिये आज भी संर्घष रत है तो दूसरी ओर इन्दौर में होलकर राज्य में प्रजा मण्डल के सदस्य के रूप में लम्बे समय तक संघर्ष करने वाले पण्डित बाल कृष्ण ने सरकारी सुविधाओं और प्रमाण पत्र तक नही लिया और देश के सामने एक अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करने की कोशिश की कि स्वतंत्रता संग्राम  के आन्दोलन में इसलिये भाग लिया था कि हमें अग्रेजों की गुलामी मंजूर नही लेकिन कहां सब को सबकुछ मिल जाता है।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के अनन्य सहयोगी महाराजा मर्दन सिंह चंदेरी बानपुर के वंशज आज रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत आवश्यकताओं से महरूम हैं। देश की आजादी के लिए अपना लहू देने वाले स्वतंत्रता सेनानियों के सैकड़ों परिवार इस देश में कंगाली का जीवन जीने को मजबूर हैं।
1857 के स्वतंत्रता-संग्राम में शौर्य के लिए सरनाम बुन्देलखण्ड के राजाओं, सामन्तों ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में संगठित होकर रणभूमि में अंग्रेजों के दांत खट्टे किये। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में बुन्देलखण्ड के जिन पड़ोसी राजा-महाराजाओं को रानी लक्ष्मीबाई ने युद्ध में  साथ देने के लिए अनुरोध पत्र भेजे, उनमें बानपुर के नरेश महाराजा मर्दन सिंह का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए रानी झांसी ने रणनैतिक दृष्टि से कई टुकडिय़ां बनाई थी। जिस टुकड़ी का नेतृत्व स्वयं रानी लक्ष्मीबाई कर रही थी, उसमें उन्होंने महाराज मर्दन सिंह को अपने साथ रखा था।
महाराजा मर्दन सिंह के परिजन छतरपुर में अपने अधिकार, पारिवारिक पेंशन और पैतृक सम्पत्ति की वापसी के लिए शासन-प्रशासन के आगे रोते-गिड़गिड़ाते घूम रहे है। अपने ऐतिहासिक पारिवारिक पृष्ठभूमि के अवशेषों को सुरक्षित रखते हुए आज यह राज परिवार अपने गुजारे के लिए शासन-प्रशासन से पारिवारिक पेंशन के लिए गुहार लगा रहा है, लेकिन आजादी के बाद सबकुछ भूल जाने वाले लोग इतने शर्मसार निकले कि  बानपुर ललितपुर में आवास हेतु शाही महल का खण्डहरनुमा मात्र ०.36 डिस्मिल का वह हिस्सा भी नहीं दिया गया जो, महाराज मर्दन सिंह केे सेवकों द्वारा आवास के रूप में उपयोग किया जाता था।
 महाराजा मर्दन सिंह के प्रपौत्र गोविन्द सिंह आज अपने दो भाईयां और अपने परिवार के साथ कृषि योग्य 1० एकड़ भूमि के सहारे ही जीवनयापन कर रहे हैं।
बड़ी विडम्बना है कि अंग्रेजों के गुलाम रहे राजा महाराजाओं के परिजन आज न सिर्फ वैभवपूर्ण राज्य महलों में ऐशों-आराम का जीवन व्यतीत कर रहे हैं, बल्कि अपने वैभव के बल पर राज्य सत्ता में भी अपना वर्चस्व बनाये हुए है। जबकि देश की आजादी के लिए अपना सब कुछ बलिदान करने वाले शहीदों के परिवार अभावों और कठिनाईयों में जिंदगी के दिन पूरे कर रहे हैं।
 जिला अधिकारी, ललितपुर (उत्तर प्रदेश) ने अपनी रिपोर्ट में राज्य को लिखा कि उक्त भूखण्ड महाराजा मर्दन सिंह की ही सम्पत्ति है, जिसे स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया था। परन्तु उनकी रिपोर्ट को दरकिनार करते हुए राज्य सरकार ने यह भूभाग नि:शुल्क देने से मना कर, क्षेत्रीय दर के हिसाब से देने का आदेश पारित कर जिला अधिकारी ललितपुर को पत्र संख्या- एम.एम. ०6/9-आ-42००2-2एन/2००० दिनांक 18 जुलाई 2००2 लिखा था। लेकिन राजनैतिक गुणदोष और ताकत न होने के कारण सिर्फ मर्दन सिंह के परिजन ही नहीं रानी झांसी के परिजन भी उपेक्षा के शिकार है। पिछले वर्षो में बड़ी मेहनत के बाद झांसी के नागरिकों ने इन्दौर मध्यप्रदेश में रानी झांसी के वंशजों को खोज निकाला था लेकिन उन्होंने झांसी में कोई भी सम्पत्ति पर अपना दवा पेश नही किया।