स्क्रीन पर विभिन्न मुद्राओं/भंगिमाओं के साथ उभरती आस्वाभाविक मानवाकृति, क्षण-क्षण बदलते चेहरे के रंग, अनेक जन्मों की दास्ताँ, बयाँ करती छवियों के अनेक भाव, किसी विचित्र लोक के रहस्यों से परदा उठाते, करीब आते परिप्रेक्ष्य और विभिन्न आकृतियाँ जिनकी तीव्रता संतुलन बिगाड़ दें, प्रकाश की कौंधती अनगिनत बहुरंगी तानें, वातावरण का पल-पल बदलता मिजाज, अत्यधिक चमकीले रंगों में लिखा ‘आइ लव यू’ साथ में नाद के सभी तानों का आनन्द ले रहे कानों में बिजली कड़कने की एक भयानक आवाज की गूँज.... कला का यह नया रूप है, जिसे न्यू मीडिया आर्ट कहा जा रहा है।
2002 में आइकन गैलरी, बमिंघम में इसी तरह देखे गये ‘वीडियो इंस्टालेशन’ (या कहें न्यू मीडिया आर्ट) को देखने के उपरान्त मैने ‘कला दीर्घा’ के सम्पादकीय में इसका जिक्र किया था। तब मैं इसका रसास्वादन पूरी तरह नहीं कर पाया था। मेरे लिए यह बहुत रूचिकर भी नहीं था और कहें तो भारत में बहुत प्रचलन में भी नहीं था पर सोचता हूँ और अनुभव करता हूँ कि वह एक दस्तक थी बहुत बड़े परिवर्तन की, कला में एक नयी दृष्टि की, नये विचारों की, नये प्रयोगों की, एक ट्रेन्ड की जिसका तेजी से प्रसार पूरे विश्व में हुआ और आज सभी देशों में न्यू मीडिया में काम करने वाले बहुतायत कलाकार सामने आये जो एक नई सोच के साथ विज्ञान को अपना टूल बनाकर कला में प्रयोग कर रहें हैं। आज लगभग एक दशक बाद यंत्रों और विज्ञान के साथ अनेक प्रकार से हो रही कलात्मक प्रस्तुतियों को देखने के उपरान्त इसे गहनता से समझने, विचार करने और इसकी सम्भावनाओं की तलाश करने की आवश्यकता अनुभव कर रहा हूँ। इस परिपे्रक्ष्य में भी देखने का प्रयास कर रहा हूँ कि छेनी-हथौड़ी और कैनवास पर तूलिका के माध्यम से परम्परागत तरीके से काम कर रहे कलाकार इससे कितना सहज हो पायेंगे या कितनी रचनात्मकता का अनुभव पा सकेंगे, क्योंकि पारम्परिक ढंग से प्रयुक्त हो रहे माध्यमों के साथ जो कला कर्म होते आ रहे थे उनके लिये न्यू मीडिया एक चुनौती है क्योंकि आज कला की परिभाषा/उसके प्रति सोच बदल रही है। लोग पुराने प्रतीकों, संयोजनों और आकारों से हटकर कुछ अलग देखना चाहते हैं। उस कला कर्म, सृजन का हिस्सा बनना चाहते हैं खोजना चाहते हैं, कि इसमें मैं कहाँ हूँ। इसलिए आज की कला में कोई गम्भीर रहस्य और दर्शन ढूँढने के बजाय दर्शक आस-पास की जिन्दगी से जुड़ी हुई घटनाओं, समस्याओं, मुद्दों, सम्भावनाओं, चुनौतियों, आकारों, रंगों और वातावरण में ही कुछ नयापन देखना चाहता है। जिन्दगी को देखने की नई दृष्टि चाहता है, जो वह सामान्यतः नहीं देख पा रहा था।
न्यू मीडिया की उत्पत्ति और उसका विकास/प्रसार इसी आवश्यकता का परिणाम है जिसको अस्तित्व में आये लगभग पाँच दशक से अधिक समय हो गए। हालाँकि इसकी स्वीकृति समज में अपेक्षाकृत धीमी गति से रही। इसे एक तरह से मशीनी प्रस्तुति माना गया जिसमें दुहराव की संभावना अत्यधिक रहती है और कलाकृतियों के सर्वमान्य मानकों के अनुसार यह सबसे बड़ा दुर्गुण है।
फिलहाल न्यू मीडिया के पहले चरण में इंस्टालेशन चर्चित हुआ फिर वीडियो इंस्टालेशन तदुपरान्त विज्ञान और तकनीक के अन्य नए प्रयोग।
इंस्टालेशन, हालाँकि प्रयोगों की दृष्टि से आज बहुचर्चित माध्यम है जो भारत के लिए नया नहीं है। पर इस माध्यम में सदैव ही संभावनाएँ बनी रही हैं। वैसे तो हम अपने घरों में, गाँवों में, मंदिरों या अन्य धार्मिक स्थलों पर, विवाह या अन्य मांगलिक अवसरों पर, त्योहारों, जलसों, मेलों आदि में अथवा जीवन के रोजमर्रा के कामों को करते समय अनेक प्रकार से इंस्टालेशन का कोई न कोई रूप देखते रहते हैं। अब हम कलाकारों के लिए यह भी चुनौती है कि इन्हीं मौलिक तत्वों को समाहित करते हुए इसे कोई नया रूप दें, नई दृष्टि दें, दर्शक को चमत्कृत करने जैसी कलात्मक प्रस्तुति हो और न्यू मीडिया के प्रयोगों मे ंऐसा हो भी रहा है। अनेक कलाकार बड़ी ही सार्थक अभिव्यक्ति के साथ सृजनरत् हैं। इस प्रयास में हम अनुपयोगी या कम उपयोगी सामग्रियों को प्रयोग कर एक ‘कृति’ की तो रचना कर ही रहें हैं, अनुपयोगी सामग्रियों को भी पुनः एक जीवन देते हैं। पुनराविष्कृत होने के कारण यह व्यावहारिक जीवन के अति निकट का अनुभव कराती हैं।
इंस्टालेशन के अनेक रूप समकालीन कला प्रयोगों के संदर्भ में देखने को मिलते हैं। कहीं कलाकार कागज की सैकड़ों नावें, कागज की एयरोप्लेन, हँडिया, पुरानी कारें, किचेन के बर्तन, बिस्तर बंद, मानव शरीर पर लिपि या गोदना, अपने शरीर का प्लास्टर या मेटल मोल्ड, गुब्बारे, रोबोट, शोरूम में रखे जाने वाले बच्चों व स्त्री-पुरूष के पुतले, मानव कंकाल, कंकाल के रूप में मोटरों के ढाँचे, फाँसी पर लटकते लोगों के पुतले, विभिन्न स्थ्तिियों में जानवरों के पुतले, पेड़ों और बड़ी-छोटी झाड़ियों का प्रतिरूप, अनीश कपूर के मेघद्वार जैसा प्रयोग, मछली घरों का प्रतिरूप, (इलेक्ट्रानिक प्रजे़न्टेशन), बन्दूक नुमा गमले में गेंहूँ का उपजाना, बड़ी-बड़ी होर्डिंग पर कुछ स्क्रिप्ट एवं अन्य तरह का विजुअल, पुराने सिनेमा पोस्टरों की नवीन प्रस्तुति, रिक्शे पर बैठे मध्यम वर्गीय परिवार का पुतला, साइकिल पर बँधे दूध के डिब्बे, भूतनाथ फिल्म के एक दृश्य- खिड़की से हवा के झोंके के साथ आती पत्तियाँ, कलाकार द्वारा अपने शरीर का गैलरियों में नग्न प्रदर्शन, स्त्री की आँखों पर पट्टी बाँध कर उसके शरीर पर पुरूषांगों को स्थापित करना, किसी सोफे को पहाड़ के सामने या जल प्रपात अथवा झील के सामने या फिर किसी महत्वपूर्ण स्मारक/इमारत के सामने विभिन्न मौसमों/प्रकाश के विभिन्न मूड्स में देखना आदि अनेक रूपों में इंस्टालेशन के आस्वाद की अनुभूति प्राप्त किया है।
प्रयोग के स्तर पर सराहनीय कार्य भी हुए हैं पर स्थिति तब भयावह हो जाती है जब कलाकार उपलों के बीच अपने को ढँक लेता है, अपने को दीवारों में चुनवाता है, बिच्छू घास को अपने पूरे शरीर पर मल लेता है और शरीर पर उपजे फफोलों का प्रदर्शन करता है अथवा किसी वीथिका में जिन्दा कुत्ते को भूखा रखकर मरने के लिए कई दिनों तक एक कलाकृति-इंस्टालेशन के रूप में बाँध देता है और उसके चिल्ला-चिल्लाकर मरने का तमाशा दर्शकों को दिखाता है।
कुछ अपवादों को छोड़ दें तो देश में अनेक कलाकार इंस्टालेशन के क्षेत्र में अच्छा काम कर रहे हैं। उनके प्रयोगों से न कि सिर्फ देश ही बल्कि वैश्विक स्तर पर कला जगत समृद्ध हुआ है और कला प्रयोगों पर सोचने विचार करने को एक नई दिशा मिली है।
इस विधा/टेªन्ड में चित्र गणेश का Upon Her Precipice, Mixed Media Installation, 2007, How I Found Her, Mixed Media Installation, Fabric, Wood and Polaroid's, 2007;अतुल डेडिया का The main Shri Bhupen Khakkar Memorial Bust against 36 Shri Bhupen Khakkhar Memorial Busts in the background, Fiberglass, 2005; Nityashishu, Mild steel and cast iron dumts-bell; ठुकराल एण्ड टागरा का Installation shot of coming soon at your Neighborhood from New Improved Bosedk with the artists, 2008 (Chatterjee & Lal Gallery)जितीश कल्लाट का Autosaurus Tripons, Mix Media, 2007, भारती खेर का Solarium Series, Fiberglass and Metal, 2007, शेबा छाछी का Simurgh-Phoenix from Winged Pilgrims : A chronicle from Asia (Moving Image, Light-box, 2006; Peacock-Lute from winged Pilgrims : A chronicle from Asia, Moving image light-box, 2006; Robes from Winged Pilgrims, Installation shot 2007; टी.वी. सन्तोष का Houndingdown, Sculptural Installation in Fiberglass, metal and LED screens;एस्टी आॅर्सेड (Estee Oarsed) dk How to Outwit a Mosquito, Hand written texts on wall 515x295 cms, 2007; बैप्टिस्ट कोयलो (Baptist Coelho) का Installation 2006, चिन्तन उपाध्याय का Iconic Shrine जो जवाहर कला केन्द्र जयपुर में प्रदर्शित किया गया था Umbilical Cord; Captivating - Performance in Moultry, USA (चिन्तन उपाध्याय रणवीर कालेका का Man with Cockerel,किरन सुबैया का Suicide Note; अनीश कपूर का मेघद्वार kj (Cloud Gate);
सुबोध गुप्ता के किचेन वेयर और दूध के केन (डिब्बे) पर आधारित अनेक इंस्टालेशन आदि महत्वपूर्ण उदाहरण हैं।
इन उल्लेखनीय कलाकारों और कृतियों में अतिरिक्त भारत वर्ष में अनेक कलाकार विभिन्न प्रकार के प्रयोग मिट्टी, रेत, झील, समुद्र और आकाश में जाकर कर रहे हैं और नित नए आयाम सामने ला रहे हैं।
यह प्रशन अलग है कि इस टेªन्ड का भविष्य क्या होगा पर यह न्यू मीडिया के विकास का पहला चरण कहा जा सकता है। इसका दूसरा चरण पूरी तरह डिजिटल प्रजेंटेशन पर आधारित है। न्यू मीडिया के विकास के इसी रूप का जिक्र आरम्भ में आइकन गैलरी, बर्मिधम का उदाहरण देते हुए किया है।
देश में कई वीथिकाएँ आज न्यू मीडिया - वीडियो आर्ट/वीडियो इंस्टालेशन को प्रोत्साहित कर रही हैं। इसके अंतर्गत आने वाले कला रूप हैं- कांसेप्चुअल आर्ट, डिजिटल आर्ट, एनीमेशन, मल्टी मीडिया आर्ट, एवोल्यूशनटी आर्ट, रोबोटिक आर्ट, वीडियो टेप्स, सीडी रोम्स, वेबसाइट, इंटरनेट, यू ट्यूब, फेसबुक, आरकुट इत्यादि। यह सभी कमोवेश तकनीकी और यांत्रिक विधाएँ हैं और कम्प्यूटर उनका आधार है। इसके लिए कला- प्रयोगोन्मुखी होने के साथ ही विज्ञान और तकनीक को भी जानना ही नहीं उससे अति सहज भी होना आवश्यक हैं जबकि भारतवर्ष के अधिकांश ख्याति प्राप्त कलाकार अभी कम्प्यूटर से अद्यतन नहीं है। वह डिजिटल आर्ट, वीडियो इंस्टालेशन या रोबेटिक आर्ट अथवा अन्य इस तरह के मीडिया से सहज नहीं है। वे न तो इस दिशा में अग्रसर हो सकते हैं न ही इसे सहजता से स्वीकार कर सकते हैं।
वह कला कम इसे यान्त्रिक अधिक मानते हैं। युवा कलाकार जो विज्ञान और नई तकनीकों से सहज हैं और शिल्पगत, दक्षता के साथ ही नए विचारों, नई खोजों से अपने को सहज कर पाए हैं और इसके प्रदर्शन का अवसर भी उन्हें प्राप्त हुआ है वही इस ओर प्रयोगोन्मुखी हैं। न्यू मीडिया में काम करने वाले कलाकारों में जी.आर. इरन्ना, अनीश कपूर, सुनयना आनन्द, बैजू पारथन, हीटेन पटेल, सुरेखां, शेबा छाछी, अतुल डोडिया, सुबोध केलकर, स्वर्णजीत सबी, भारती खेर, टागरा एण्ड ठुकराल, चिन्तन उपाध्याय, अबीर करमाकर, चित्रा गणेश, विभा गहलोत्रा आदि मुख्य रूप से प्रकाश-वृत्त में हैं। ये कलाकार आज भारतवर्ष में न्यू मीडिया को लोकप्रिय बनाने के लिए अनेकानेक प्रयोग कर रहे हैं और अपनी विधा को विकसित, प्रसारित करने के लिए विश्व के कोने-कोने में या कहें विभिन्न नगरों में जाकर लोगों से विचारों का विनिमय भी।
इनमें अधिकांश कलाकार ऐसे हैं जो स्वयं डिजिटल स्टूडियो बनाकर या टेक्नीशियन की सहायता से अपने विचारों को साकार कर रहे हैं। विभा गहलोत्रा का वह इंस्टालेशन जो बढ़ते अपार्टमेंट कल्चर और उसके ढह जाने को (नष्ट हो जाने को) इंगित करता है, उल्लेखनीय उदाहरण है। विभा का प्रदूषण पर आधारित वीडियो इंस्टालेशन भी महत्वपूर्ण है, जिसमें सभी किरदार (सहभागी) पिग-मास्क लगाकर दिखाए गए हैं। यूरोपीय देशों में इस तरह के प्रयोग लगभग पाँच दशक पूर्व से हो रहे हैं। इसका प्रचार प्रसार भी मीडिया/इंटरनेट पर काफी होता रहा है। एक बार तो इसके पक्ष और पारंपरिक ढंग से होती आ रही कला के विपक्ष में ऐसा वातावरण भी बनने लगा था कि कैनवस/मूर्तियों की जगह अब न्यू मीडिया ले लेगा। वीडियो आर्ट बनाम कैनवस जैसे विषयों पर चर्चा भी शुरू हो गई पर आर्थिक मंदी के पैर पसारते ही परिस्थितियाँ कुछ बदलीं और कला की समस्त विधाएँ यथोचित महत्व पाते हुए समानान्तर रूप से फलती-फूलती रहीं। आज जहाँ न्यू मीडिया का स्वागत है, उचित प्रोत्साहन है वहीं कैनवस को नकारा भी नहीं जा रहा है।
आज न्यू मीडिया की लोकप्रियता/प्रचार-प्रसार के साथ एक सवाल अवश्य खड़ा हो रहा है कि क्या हमें ऐसे प्रयोगों की आवश्यकता है या कुछ नया, कुछ अलग करने के लिए ही हम विभिन्न विधाओं की ओर प्रयोगोन्मुखी हैं? क्या हम बाज़ार का किसी साजिश का शिकार तो नहीं हैं? क्या इन प्रयोगों पर रचनात्मक नियंत्रण ढीला तो नहीं होता जा रहा है? यदि हम बाजार द्वारा नियंत्रित हैं और किसी खास कारण से कला और कलाकार को टूल्स बनाया जा रहा है तो हमें सावधान होने की भी आवश्यकता है क्योंकि किसी से छुपा नहीं है कि बाजार में किस-किस तरह के प्रयोगों को प्रोत्साहित किया है (कहना गलत नहीं होगा कि कला/कलाकारों को औजार की तरह प्रयोग किया) और रचनात्मकता की दिशा बदलने का प्रयास किया। इससे नई पीढ़ी में एक भ्रम की स्थिति भी पैदा हुई। प्रश्न खड़े हुए ‘‘स्किल आॅर टेक्नीक’’? कला बाजार का ग्लैमर देखकर कला के अप्रशिक्षित बहुत सारे टेक्नीशियन कला में अपना भाग्य अजमाने लगे।
आज की स्थिति सुखद है। वह जो कला के लिए ही जीते हैं, जिनकी अन्तरात्मा में केवल कला है, रच कर आहलादित होते हैं वही कला कर्म कर रहे हैं। ग्लैमर की चकाचैंध से प्रभावित कलाकार हाशिये पर जाने लगे हैं। हमें स्वागत करना चाहिए उन कलाकारों का, उनके प्रयोगों का जो समाज को, देश को कुछ नया देना चाहते हैं। उनकी विधायें/माध्यम कोई भी हों, तकनीक कोई भी हो ‘‘समय का प्रतिनिधित्व करती हुई रचनाओं की सार्थक अभिव्यक्ति’’ को महत्त्व देना चाहिए। इसी तरह न्यू मीडिया विज्ञान और अभियान्त्रिकी से जुड़े होने के कारण रचनात्मकता के नए द्वार खोल सकती है और अद्यतन/समयानुकूल विषयों की अभिव्यक्ति का माध्यम इसे बनाया जा सके तो हम कला को और समृद्ध कर सकते हैं। इस विषय पर राष्ट्रीय/अन्तरराष्ट्रीय स्तर की गंभीर चर्चा ही नहीं होनी चाहिए बल्कि इसे हर स्तर पर प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, मुख्य धारा में लाना चाहिए।