कहानी -टेढी उँगली-

पूर्वा एक्सप्रेस अपनी पूरी गति पर है। दिल्ली छूट चुकी है। शायद अलीगढ़ से भी आगे गाड़ी निकल चुकी है। मेरे बर्थ के ठीक सामने तीस-पैतीस साल का  चुस्त पोशाक में एक हृष्ट-पुष्ट युवक बैठा है। वह बोगी के भीतर की गतिविधियों से बिल्कुल विरक्त है। जब से ट्रेन खुली है, वह लगातार एक पुस्तक के पन्नो में डूबा है। मैं जरा झुककर देखता हूं, पुस्तक का नाम गाड फादर है। उसके सख्त चेहरे का राज शायद गाड फादर के दबंग चरित्र में छिपा है।


मैं देख रहा हूं-' तुम एक पैसा दोगे वो दस लाख देगा' गाने के साथ खंजड़ी पर ताल देता एक सूरदास मेरे बगल से गुजरता  है। वह आगे बढ़ कर ठीक उस युवक के बगल में खड़ा हो जाता है। पैसे के लिए गुहार लगाता है।  कुछ यात्री पैसे देते हैं। वह उस युवक के सामने भी हाथ फैला देता है। लेकिन उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। उसकी आँखें किताब के पन्ने से नहीं हटती हैं। वह उसे डांट कर भगा देता है। सूरदास आगे बढ़ जाता है।


ट्रेन यात्रियों को खटर-पटर की लोरी सुनाती, हिचकोले खिलाती निरंतर आगे बढ़ती जाती है। मैं थोड़ी देर के लिए ट्रेन के बाहर घुमती छटओं को देखने में मशगूल हो हो जाता हूं। अचानक पैर में किसी के ठेकने के कारण पुनः बोगी के भीतर की हलचलों में शामिल हो जाता हूं। देखता हूं, एक फटेहाल लड़का बड़ी तन्मयता से फर्श बुहार रहा है। बादाम एवं फल के छिलकों से फर्श गंदा हो गया था। कुछ देर बाद वह लड़का पुनः आता है। इस बार उसका हाथ यात्रियों के आगे बढ़ता है।  मौन याचना उसकी आँखों से झलक रही है। मैं दो रुपए का सिक्का उसकी हथेली पर रख देता हूं । उस लड़के की  हथेली किताब पढ़ रहे युवक के आगे भी फैल जाती है। लेकिन उसकी एकाग्रता में फर्क नहीं पड़ता है। लड़का भी अपना हक छोड़ने को तैयार नहीं है। वह हथेली फैलाये रहता है। युवक का ध्यान भंग होता है। वह कनखियों से वातावरण का जायजा लेता है। वह कई आंखें अपनी ओर उठता महसूस करता है। उसके चेहरे की नसें तन जाती हैं। वह लड़के को बुरी तरह घुड़क देता है। लड़का डरकर आगे बढ़ जाता है। मुझे अच्छा नहीं लगता। फिर सबकुछ पूर्ववत हो जाता है। कुछ देर के बाद ट्रेन की गति कम होने लगती है। ट्रेन रुक जाती है। चाय, फल आदि बेचने वालों की धमाचौकड़ी मचती है। यात्रियों के बीच खलबली मचती है फिर ट्रेन के पुनः खुलते ही सबकुछ सामान्य हो जाता है।


ट्रेन अपनी पूरी गति में आ भी नहीं  पाती कि बोगी के एक छोर से शोर उठता है। अजीब-अजीब सी आवाज निकलती, अंगुलियां चटकाती, तालियां बजाती छह सात की संख्या में कुछ औरतें पूरी बोगी में फैल जाती हैं।


-' दे दो रज्जा जी....., अरे इत्ते से मेरा क्या होगा। बलम जी, काहे मुंह फेर रहे हो। अपनी बीवी का तो बड़ा ख्याल रखते हो रज्जा जी। जरा मुझ पर भी रहम करो। अश्लील बातें और बेहूदी हरकतों से पूरी बोगी में अशिष्टता की दुर्गंध फैल जाती है। मैं जिन्हें औरत समझ लेता हूं दरअसल  वे किन्नर हैं। यह देखकर मैं उन्हें पैसे देकर अपना पिण्ड छुड़ा लेता हूं।


एक पका पकाया किन्नर उस युवक से  सट कर खड़ा हो जाता है। युवक थोड़ा सिमट जाता है लेकिन किताब से नजर नहीं हटाता है।


-' किताब में बड़ा डूबे हो बाबू, जरा इधर भी डूबकर देखो न। बिजली खड़ी है तुम्हारे पास। हजार वाट का झटका लगा दूंगा हां, राम कसम....पैसा नहीं दिए तो।'


युवक पर कोई असर नहीं देख वह दो चार को पास बुला लेती है-' अरी ओ बेला, फुलवा , गोरकी अरे ओ सब के सब , देख कैसा जबान गठीला है।' चार किन्नर उसे घेरकर खड़े हो जाते हैं।


युवक खुद को तमाशा बनता देख क्रोध से तिलमिला उठता है। शायद गाड फादर का दबंग नायक उस पर  सवार था। वह उन किन्नरों को डांटने लगता है।


-' काहे रज्जा, बड़ी मस्ती चढ़ी है का? सीधी तरह रुपैया निकाल बाबू नहीं तो।'


-' नहीं तो क्या बिगाड़ लोगी मेरा?' युवक का रौब उफान पर चला आता है।


- ' नजारा देखना है राजा, तो तू भी देख ही ले आज। चल रे फुलवा, गोरकी शुरू हो जा।' कहने के साथ ही वे साड़ी थोड़ा ऊपर उठाकर उस युवक को घेरे में लेने की कोशिश करने लगते हैं। बोगी में बैठी औरतें मुंह छुपा लेती हैं। पुरुष इधर उधर देखने लगते हैं। युवक हड़बड़ा जाता है। शायद ऐसी विकट  समस्या देख उस पर सवार गाड फादर का दबंग नायक दुम दबाकर भाग खड़ा होता है।


-' रुको,  रुको। क्या कर रहे हटो तुमलोग? लो भई, भागो यहां से। न जाने कहां से चले आते हैं । चैन से सफर भी नहीं करने देते।'


मैं देखता हूं, पचास का नोट मुट्ठी में दबाकर किन्नर उसकी बधाइयाँ लेते हुए चले जाते हैं। इसी के साथ तमाशे का पटाक्षेप हो जाता है। मेरे सामने एक सवाल उछलने लगता है- युवक द्वारा दुत्कार कर भगाये गये पहले दो जरूरतमंदों को ऐसा ही करना चाहिए था क्या??