कहानी -नीलू-

  समय का चक्का एक समान भ्रमण कब करता है? जब अपनी गति से चलता है तो बेरहमी से क्या-क्या नहीं कुचल देता अपने नीचे? कभी सपने, कभी आकांक्षाएं, कभी श्रम और कभी-कभी तो पूरा जीवन ही। हे! त्रिदेव! तुम्हारी नियति इतनी निष्ठुर क्यों है? कहते हैं तुम्हीं मानव जाति के रचयिता तुम्हीं पालक हो तो फिर कैसे इतनी निष्ठुरता से संहारक भी बन जाते हो?

                    अम्मा बाबू ने तो मुझसे सम्वाद ही बन्द कर दिए थे। कोई काज या दायित्व भी नहीं सौंपते थे। भैया मेरे पास आना भी चाहता था लेकिन मेरे पास आते ही अम्मा उसे उठा के ले जातीं थीं। ऐसे में बब्बा का भोजन रखा मिल गया तो मैं ही तुम्हारे खेत तक ले जाने का मन बनाती भी, लेकिन अम्मा मुझ से वह पुटरिया छीन कर स्वयं ही आगे हो लेती।

                     नियति का लेखा मानकर मैं जीने लगी थी। इतना ही क्या कम था कि महादेव ने मुझे विवेक और संयम देकर विक्षिप्त होने से बचाये रखा। और विक्षिप्त होती भी क्यों? मैं तो प्रतिक्षिता थी तुम्हारी... जन्मजन्मांतर की प्रतिक्षिता।

                   भले ही मानुष अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के दबाव में आकर मुझे अपने से अलग कर दें। पर सुरभि गैया और तुम्हारे बैल मुझे कभी पराया नहीं करते थे। मुझे वही लाड़ और स्नेह  देते थे। तुम्हें याद है न? जब तुम खेत पर आते थे तो बैल तुम्हें देखकर सींग हिलाने लगते थे। तुम कितना डरते थे? मुझसे उनके गले की रस्सी अपने हाथ में पकड़ाने को कहते थे। मैं हँस-हँस के लोटपोट हो जाया करती थी। कितने भोले बैल थे तुम्हारे? मालिक को पराया और नौकर को मालिक समझते थे। तुम्हारे खेत में बैलों को चारापानी देने जाते समय मुझे उन दिनों की याद कर मलिन मुख पर हँसी आ गयी। तभी बिजली सी गिरी और हँसी थम गयी। जब मैंने देखा कि मेरी बालपन की परमसहेली अपने तीन सहोदरों के साथ गाँव आने वाली गैल में चली आ रही थी।

                         हे! महादेव! इन तीन भाइयों ने दुलहिन बना के तीन मास पहले ही विदा किया, वापसी इस वैधव्य में? मुझे क्षण भर को भी विश्वास नहीं हुआ। स्यात मुझे ही देखने में कोई भूल हुई हो?
                  मैंने आँखे मीड़ के ठीक से देखने की कोशिश की। क्या क्षण-क्षण पग बढ़ाते हुए चली आ रही श्वेत छाया क्या सचमुच मेरी सहेली नीलू थी? हाँ! नीलू ही थी, वही चाल वही चेहरा-मोहरा लेकिन  उस चाल में वह आत्मविश्वास नहीं था और चेहरे की रँगहीनता ऐसी जैसे कोई तेज़ अंतिम बार पूरी शक्ति से टिमटिमाते हुए बुझ गया हो, कभी फिर नहीं जलने के लिये।

स्मरण हो आया; जब वह अंतिम बार मुझसे मिलने आयी थी। कितनी संयमित और विवेकी वचन बोल कर मुझे प्रेरित करती रही! जब मैंने स्वयं को तुम्हारी ब्याहता घोषित किया तो कितने प्रश्न एक साथ कर बैठी?

                 कितनी सुंदर सजीली, नटखट, चटर-पटर बतोलों की ढेली, मेरी प्यारी सहेली जिसे मैंने ब्याह के लाल जोड़े में तो नहीं देखा था न उसे गले लगा के विदा कर सकी थी। वह मेरे सामने ऐसे देह में मात्र धड़कते हॄदय के साथ मिलेगी?
कैसे केशव से इठलाती हुई पूछती थी?
"केशव भैया! तुमाए कोई पुतरिया है का? शुभ के पुतरा है, अबै तो छोटो है। अगले साल ब्याओ करें।"
                        कैसे इतरा-इतरा कर रेडियो पर 'फौजी भाइयों के लिये फरमाइशी प्रोग्राम' को कान लगा कर सुना करती थी? जब उसके मंगेतर ने उसके नाम वह गीत समर्पित किया था "तुम तो प्यार हो सजनी" कितने दिनों तक गाते-गाते फिरती थी?
                         
                   मेरी सब सहेलियों में सबसे अधिक चंचल, वनभोजन में सबसे अच्छी सजावट करने वाली प्यारी दिलखुश और रंगबिरंगी लड़की, क्या यही है? क्या यही है जो मेरे पास आ रही है? हाँ! वही थी... वही नीलू जो अब बिल्कुल भी मेरी सहेली नीलू जैसी नहीं थी।

नीलू एकदम पास आ गयी थी। मुझे सम्मुख पाकर ठिठक गयी। स्याह दाग वाले पनीले नैनों से मुझे देखा और मैंने उसे क्षण के क्षणांश में गले से लगा लिया। मैं धार-धार रो रही थी। लेकिन नीलू चुप थी। न हिलकी न सिसकी बस उसके हृदय के निकट एक उच्छ्वास महसूस किया मैंने। कभी स्वप्न में भी न सोचा था कि जिस सहेली को ब्याह की विदा में गले लगा कर विदाई न दे सकी उसका इस वैधव्य रूप में स्वागत करना पड़ेगा?

"जो कैसें हो गओ भैया?" उसके पास तीनों भाइयों को आते देख मैंने पूछा।
"तुमाये सङ्ग को करिया ग्रहण पर गओ हमाई चन्दा सी बेन पे"
मुझसे निर्दयता से अलग कर ले जाते हुए बड़े भैया सहित  दोनो भाई भी जाते हुए मुझे धिक्कारपूर्ण दृष्टि से देखते गए।

मुझे उस क्षण अपने अपमान की चिंता कदाचित न थी। होती भी कैसे? धारणाओं में पले इंसान को अपने बोलों पर नियंत्रण कहाँ रहा करता है भला? मैं अवाक थी तो अपनी प्यारी सहेली नीलू के ऐसे उजड़े रूप को देखकर, जिसे कभी स्वप्न तो क्या स्वप्न के भी स्वप्न में नहीं सोचा जा सकता था।


                         मैं नीलू से मिलकर बतियाना चाहती थी, वो सब पढ़ना चाहती थी जो उसके स्याह मन पर लिखा था। पर मुझे उससे मिलने का कोई बहाना नहीं मिल रहा था न यथोचित स्थान। दैनिक उपयोग की वस्तुएँ लेने वह बाहर जाती नहीं थी। तुम्हारे कारण अम्मा बाबू तो गाँव में रहकर भी गांव से कटकर रहते थे। मुझसे तो भूलकर भी सम्वाद नहीं करते थे तो कैसे कहती कि नीलू के घर मुझे ले चलो?
तुम ही आ जाते! तब तो तुम ही स्वयं जाकर उसका दुःख हल्का कर आते।
सुबह कचरा फेंकने के लिये नीलू बाहर आती और दिनभर घर में रहती। मैं प्रतीक्षा करने लगी।

                      एक दिन मुझे अवसर मिला भी। महादेव का धन्यवाद कि वे मेरी प्रार्थना स्वीकार लेते हैं। साँझ के समय नीलू ताल से जल भरने जा रही थी। अम्मा खेत पर बब्बा को रोटी देने निकलीं और मैं नीलू के पीछे कसेंड़िया लेकर जल भरने के बहाने निकल पड़ी। नीलू जल का कलसा भर के ताल की पहली सीढ़ी पर आई और मैंने उसका कलसा लेकर धरती पर रख दिया। नीलू मेरे हृदय से लगकर रो पड़ी। कितनी देर तक वह सुबकती ही रही। संयत हुई तो स्वमेव ही गुबार फूट पड़ा।

                    विवाह के तीन ही महीने बाद हा! दुर्भाग्य कि पति परिणीता को दूभर सन्सार में अकेला छोड़ अकेले ही अनन्त यात्रा पर चल दिए। युद्ध की कोई सम्भावनाएँ नहीं थीं, न ही पति किसी आतंकी दुर्घटना में मारे गए। कोई साथी अपनी बंदूक साफ कर रहा था जिसमें कदाचित ग़लती से गोली रह गयी थी, वही उनके काल का कारण बनी। भविष्यति माता ने गर्भ में आये प्राणदीप को पग-पग सम्भाला, किंतु जिस पर विधाता ने निर्दयता की उस पर कौन दया करे? कच्चा घट फूट गया। माटी का शुभ घट असमय माटी में ही जा मिला। धर्म माता-पिता जिन्होंने बड़े लाड़ से एक अनजानी बिटिया को बहू बनाकर गृहप्रवेश कराया था वे तत्काल सास-ससुर बन बैठे। देवर, जो भावज को घर के रीति-रिवाज़ो से परिचय करवा कर फूला नहीं समा रहा था, उसे अग्रज की मृत्यु होते ही वह परघर की लगने लगी। उस घर की लक्ष्मी पल भर में लड़की हो गयी थी।

मायके सन्देश पठाया गया-  
"लै जाओ अपनी ई पागल मोड़ी खों। पागलन की तरह सबसे बच्चा खिलाबे खों माँगत।  कोई पागल के हाथ अपनों लाल देत है का? असगुनिया कहीं की! ससुराल में पाँव धरतनई  हमाये घर के दीपक की लौ लील गई।"

पिता के आदेश पर भाई अपनी आँखों की पुतली को घर ले आये थे।  

पति के दिवंगत होने के बाद वह वहीं रुक जाना चाहती थी। पति की यादें उस घर से थीं। पति के माता-पिता में पति की छवि देखकर शेष जीवन जी लेना चाहती थी। लेकिन भोर हुए सास उसका वैधव्य मुख देखकर अपशब्दों की बरसात करने लगतीं। उसे रसोई में कोई वस्तु छूने न दी जाती। भोजन तिरस्कारपूर्ण थाली में सरका के दिया जाने लगा।

                      पिताजी उसे अपने सामने पाकर अपने लाल को काल के मुख में जाने का ताना दिया करते। देवर जो हर समय अगुवानी करता, अतिथियों को "हमाई भौजाई आएँ जे" बोलकर मिलवाता, अक्सर उसके हाथ से चाय की ट्रे ले लेता, "भौजाई आज वा वारी धुतिया पैरियो जो भैया कश्मीर सें लियाये ते" जैसी मनुहारें करता न थकता था, उसने भी; सबने उसे पागल घोषित कर दिया। उनके अनुसार पति की मृत्यु में दुर्घटना का कारक यह 'असगुन लड़की' ही थी। क्योंकि सीमाओं की स्थिति सामान्य थीं। उनका पुत्र किसी सुरक्षाकारणों में भी नहीं गया था। इत्मीनान से फौज़ में अपनी नौकरी कर रहा था। कि किसी साथी की ग़लती से उसे गोली लगी और वह घटनास्थल पर ही मृत हो गया। यह दुर्घटना उनके ही पुत्र के साथ क्यों हुई? कोई और भी तो इस काल का भोग बन सकता था? ब्याह को भी अधिक समय न हुआ था। अवश्य ही इस 'कुलटा' के चरण उसके जीवन में पड़ने से उसके जीवन पर ग्रहण लगा और वह मृत्यु को प्राप्त हुआ।

                        पति की मृत्यु के दूसरे दिन ही गर्भवती होने की सूचना मिली तो गर्भ को घर का वंशज होने से अस्वीकार कर दिया गया। जहाँ बेला और तुरई बजने थे वहाँ शोकगीत के बोल रचे जाने लगे। उस पर गर्भ गिराने के दबाव डाला जाने लगा। उसने हाथ जोड़कर, रोकर, सौगंध खाकर गुहार की, कि वह उन्हीं के पुत्र की माता बनने वाली है। लेकिन इस वचन को सिरे से नकार दिया गया। हरसम्भव प्रयास कर गर्भ के नवदीप की ज्योति को प्राणवान न रख सकी और सुघड़ दाई को बुला कर 'पाप' का गर्भपात करवा दिया गया। अंधेरे जीवन की अंतिम टिमटिमाती लौ भी बुझ गयी।

                 गृहलक्ष्मी की उपमा से सीधे पागल लड़की पर आ गयी। घर में कोई मेहमान आता तो उनका बच्चा छीनकर खिलाने लगती। बाहर कोई बच्चा खेलता दिखाई देता तो उसे दौड़कर उठा लेती।
                   पुरा-पड़ोस के लोग दुःख समझने के बजाए भयभीत होने लगे। परिजनों से क्या दुःख साझा करती? जिन्होंने षड्यंत्र रच कर उसकी झोली खाली कर दी थी। एक दिन घर से भी बाहर निकाल दिया। दो दिनों बाहर देहरी पर बैठी रही। रोटी मिलती तो खाती अन्यथा पानी पीकर वहीं सो रही। दो दिन में सन्देसा पाकर भाई आये भाइयों को देखकर सास-ससुर ने खटाक से द्वार बंद कर दिये। तीनों भाई अपनी बहन को अपने साथ घर ले आये।

                       घर में क़दम रखते ही माता के ह्रदय लगकर रोती कि पिता ने उसे घर के पिछवाड़े बाग वाली आख़िरी  झोपड़ी में ले जाकर पटक दिया। माता कलपती रह गयी, भाई देखते रह गए। भावजों ने घूंघट डाल लिया और अपने आँचल में अपने जायों को छुपा लिया।

मायके में तीन सहोदर, तीन भावजें और तीनों के दो-दो पुत्र। किंतु किसी ने अपना लल्ला उस बिचारी की गोद में न धर दिया कि शुष्क मातृत्व को दुलार के कुछ छींटे ही मिल जाते।

                          अभी तीन मास पहले ही विदा हुई बुआ से बच्चे बहुत बहुत हिलेमिले थे। बुआ के साथ छुआछुआई खेलना, बुआ का कहानी सुनाकर मान-मनव्वल करके भोजन कराना उनको कल की ही बात लगती थी। साँझ ढले उनको 'इस्कूल के काम' कराना भी बुआ के दायित्व थे।  यदाकदा उनकी माताएँ काम में तल्लीन होतीं तो अपनी प्रिय बुआ के पास कभी खिंचे चले जाते, माताओं से छुपकर अपनी कभी बुआ को देखते, तो कभी उसके फूस के झोपड़े के द्वार पर जाकर खड़े हो जाते और उसे उत्सुकता से देखते। बुआ से रहा न गया तो उसने प्रेम से पुचकार के अंदर बुला लिया। बुआ भतीजों में अपना दुखड़ा भूल कर हँसने लगी। बच्चों ने कहानी सुनने की इच्छा जताई तो बुआ ने 'एक राजा था एक रानी थी' कहानी सुनाई। सब बच्चे खुश होकर ताली बजा कर हँसने लगे। शोर सुनकर माताएँ रसोई से निकलीं और तालियों के साथ हँसने की आवाज़ की दिशा में बढ़ीं। उनकी पागल और विधवा ननद दो छोटे लालों को गोद में बिठाए हँस रही थी और बाक़ी बच्चे उसे घेरकर तालियाँ बजा रहे थे। माताएँ क्रोध में जाकर अपने बच्चों को पीटती हुईं अपने कमरों में ले आयीं। सास भी डरती हुई पीछे आ गयी और अपनी बच्ची की दुर्दशा देखकर मुँह छुपाकर चली गयी। रोती हुयी नीलू "अम्मा अम्मा" पुकारती ही रह गयी।

                           साँझ ढले बाबू और भाइयों के बीच पागल विधवा की शिक़ायत रखी गयी। हर तरह के आरोप लगाए गए। बच्चों को वश में करने से लेकर विष देने की आशंका तक के विष उगले गए। अम्मा चुपचाप आँचल का छोर मुंह में लिए हिलकती रहीं। बच्चों को बुआ के पास न जाने के निर्देश दिए गए। अम्मा को दूर से उसके द्वारे पर भोजन धरने के निर्देश दिए गए। उसके स्नान आदि की व्यवस्था झोपड़ी के पीछे की गई और कचरा उसके झोपड़ी के पास ही लगाने का  नियम बनाया गया जिसे वह सुबह तड़के फेंक कर अपनी झोपड़ी में दिनभर रहे। जरूरत का कोई सामान ऐसा था नहीं कि खरीदारी करके लाया जा सकता। विधवा के शांत और संयमित जीवन के लिये सुविधाएं जुटा दी गयीं थीं। अब उसे शेष साँसे लेनी थी।
•••
दुःख की छाया पड़ने पर अपने सब पराए हो जाते हैं। दुःख में कोई किसी का नहीं होता। दुःख विधि के विधान हैं, जिनकी भोगनी लिखी रहती है उन्हें नियमानुसार अकेले ही भोगनी पड़ती है।

                        उसे रह-रह के याद आता गया कि कैसे तीसरे सहोदर के ब्याह में  तो खूब लरज-लरज के काम किया था उसने? अपनी जन्मभर की जमा पूँजी कैसे जुटाई थी उसने? कैसे नाच-नाच के निछावर करती थी वह? और यह तो मैंने  स्वयं देखा था कि उसकी छोटी भौजी जब माँ बनने वाली थी तो कैसे सन्तानउत्तपत्ति के समय सारे गाँव में ढंका पीट आई थी... "अरे! बुआ नइँ 'बुआअम्मा बनवे बारे हैं फिर कउं...।" किन्तु हुआ क्या? तृतीय सहोदर और उनकी अर्धा ने बच्चा पैदा करा के उसका एक एक सामान कमरे से फेंक दिया। और ईंट गारे के साथ संवादहीनता की भी दीवार बना ली बीच में। वह अपनी अम्मा के कमरे में आ गयी। न माँ-बाप कुछ कह सके न गाँव  का कोई भी इंसान। फिर अब तो उसका सिंगार भी जाता रहा। उसे सार्वजनिक तौर पर पागल और बच्चाभक्षी समझ लिया गया। उसके दुःख को दुःख नहीं बल्कि पूर्वजन्म के कर्मों का दंड समझा गया, और उसे महापापी।

                                  वह उठकर अपने आँसू पौंछती हुई अपना कलसा उठाया और जाने लगी-
"केशव भैया तुम्हें लुआवे आहें तो तुम जावे के पैलें  हमसे जरूर मिल के जइयो शुभ! ... घरे जा रय... देर हो जेहे तो कोनऊ हमें भी कोसै औ कोई अपने मोड़ा खों भी ढूंढन निकर जेहे। चाय मोड़ी-मोड़ा कउँ खेलन निकर जेँहे। कभउँ-कभार इतई मिलत रैयौ। अपनो ध्यान राखियो।"

                     धीरे-धीरे क़दमो से वह थकीहारी पागल और विधवा लड़की अपने कर्मों का भरा भारी कलसा उठाये चली गयी और मैं वहीं की वहीं रह गयी। ओ! केशव! वह भी तो तुम्हारे आने की आशा में थी। इतने दुःखों में डूब कर जी रही कोई दूसरों के सुख की कामना करे तो भी क्या उसके दुःख कम नहीं करोगे महादेव?

               महादेव! या तो उसे जीवन दो या मृत्यु दे दो। परन्तु यों मरते-मरते जीवित न रखो। मेरी सारी पूजाओं का फल नीलू को जाये। हे! महादेव!..हाथ जोड़ती हूँ... बिचारी नीलू... पता नहीं इसके भाग्य और भविष्य में क्या है?

                          जहाँ सूर्यदेव श्वेत रंग के चोले को उतार कर सिंदूरी सागर में डूबने की तैयारी में थे, अगले क्षणों में रात का काला अंधेरा छा जाने को आतुर था, वहाँ प्रकाश की आशा कैसे करे कोई?

                  उसका दीप गर्भ में ही बुझ गया। वह  मन का भी दीया नहीं जला सकी। जीवन के कोई त्योहार नहीं मना सकी सिवा वैधव्य के।  दुनिया भर के दुःख एक अकेली की झोली में थोक के भाव आन पड़े।  कितनी पूजाएँ की होंगी? फिर पूजा के बाद महादेव को प्रणाम भी तो किया होगा? पता नहीं उनको क्या स्वीकार रहा हो? या फिर 'जाही विधि राखे राम' के सहारे ही शेष संचित साँसे खर्च होंगी?

                  सूर्य ढलने के बाद दीपक उजियारा जाता है।  दीया की ज्योति प्रणम्य है फिर वह बुझ क्यों जाती है? फिर अंधेरे मन का तमस कौन हरे?