आज हमारे मोदीजी जो वेटी वचाओ वेटी पढ़ाओ की बात करते हैं वह नयी नहीं ,बल्कि हमारी धार्मिक महत्व की बात है। वेटियों की रक्षा और महत्त्व देने के लिए ही यह व्यवस्था धार्मिक ग्रंथों में की गयी थी कि कन्यादान करना ही स्वर्ग जाने का पहला सोपान है ।ताकि लोग वेटियों पर ज्यादा महत्व दें अब दूसरी व्यवस्था यह थी कि दुर्भाग्यवश आप के वेटी नहीं है तो आप रिश्तेदारों, पड़ोसियों,या गरीबों की वेटियों का कन्यादान ले सकते हैं। इससे सामाजिकता को मजबूती मिलेगी साथ ही कुछ गरीबों की इसी वहाने मदद हो जायेगी ।
और अगर ऐसा भी कुछ न कर सके तो व्यवस्था है कि आप देवोत्थानी एकादशी को तुलसी महारानी का कन्यादान लेकर शालिग्राम से उनका विवाह करायें । अर्थात स्वर्ग की लालसा के बहाने ही समाज को बेटियों को महत्व देने के बारे में प्रेरित किया जा सके ।
मुझे लगता है कि इस सब के मूल में वेटी की महत्ता को वेटे बरावर आंकने की ही मंशा छुपी है ।
एक कथा है कि शिव ने अपना तेज समुद्र में फेंक दिया उससे एक बच्चा पैदा हुआ जो जोर जोर से रोने लगा तव व्रह्मा ने उसे पालने हेतु गोद में ले लिया ।उस रोते बालक ने ब्रह्मा जी की दाढ़ी इतने जौरों से खींची की उनके आंसू निकलने लगे तब ब्रह्मा ने इस बालक का नाम जलन्धर दिया ।कहते हैं कि पंजाब का प्रसिद्ध शहर जालंधर इसी ने वसाया था।
बड़ा होकर यह बालक बड़ा वीर वना और इसने इन्द्र को हटाकर उस के लोक पर कब्जा कर लिया ।
सब और राज्य फैलाने के बाद इसने लक्ष्मी जी को छीनने की कोशिश की , लेकिन जब लक्ष्मी जी ने बताया कि समुद्र से ही पैदा होने के कारण वह दोनों भाई बहिन हैं तब यह पीछे हट गया ।
फिर इसने माता पार्वती जी को छीनने की कोशिश की,तब भगवान शंकर से इसका भीषण युद्ध हुआ जिसमें शंकर हार गये ।
अब तो जलन्धर एक समस्या वन गया ।ऐसे में भगवान विष्णु ने पता लगाया कि इसकी शक्ति के मूल में कौन है तब पता लगा कि इसके शक्ति के मूल में इसकी पत्नि वृन्दा का सतीत्व है जब तक उसका सतीत्व भंग नहीं होता तब तक उसे मारना आसान नहीं है ।
अब भगवान बिष्णु , जलन्धर का रुप वना कर वृन्दा के पास गये । वृन्दा इन्हें पहचान नहीं सकी और पत्नी वत व्यवहार करने लगी और उसका सतीत्व भंग हो गया ।
इधर भगवान शिव ने जलन्धर का वध कर दिया ।
तब तक वृन्दा को बिष्णु की असलियत का पता चल गया और उसने बिष्णु को पत्थर वन जाने का श्राप दिया ।तब बिष्णु शालिग्राम की वटइया के रुप में परिवर्तित हो गये ।
वृन्दा ने अपने आप को अग्नि से भस्म कर लिया और सती हो गयी । कालान्तर में उसी के जलने से वनी भस्म की राख से तुलसी नामक पोधे के रूप में वृन्दा ने जन्म लिया ।
भगवान बिष्णु ने वृन्दा से कहा कि में तुम्हारे सतीत्व से अभिभूत हूं और तुम्हें लक्ष्मी से अधिक प्रिय मानता हूं व शादी का इच्छुक हूं और उससे शादी कर ली।तभी से शालिग्राम की वटइया रुपी बिष्णू और तुलसी के विरवा रुपी वृन्दा के विवाह की धार्मिक प्रथा शुरू हुयी ।
भगवान बिष्णु ने कहा कि इस विवाह का धार्मिक आयोजन करने पर भी हम भक्तों को कन्यादान का फल मिलेगा ।
हमारे पौराणिक बांग्यमय में कथा चलती है कि कि आषाढ़ की नवमी को भगवान बिष्णु चारमाह की नींद में चले जाते हैं और देवोत्थानी एकादशी को जागते हैं इस लिए इन चार महीने में शादियां और कुछ शुभ कार्य बन्द हो जाते हैं इस दौरान संसार की व्यवस्था शिव जी व अन्य देवता देखते हैं इसी लिये इन चार महीने के प्रमुख देवता शिव हो जाते हैं सावन में शिव की आराधना करने का चलन है तो नवदुर्गा में मां पार्वती की पूजा और दीपावली को विना बिष्णु के सिर्फ लक्ष्मी, गणेश की पूजा की जाती है ।
बैसे ऋतु परिवर्तन के कारण भी देवोत्थानी एकादशी में ऋतुओं के फल फूल चढ़ाने का धार्मिक महत्व कर दिया गया ।और बैसे भी चार माह बरसात के होने के कारण ठहरने व आवागमन में दिक्कत होती थी इसलिए त्योहार के बहाने शादी रोकने की परम्परा लौकिक रुप से ठीक थी ।हमारे बुन्देलखण्ड में रात्रि में इस पूजा में जोर जोर से "उठो देव,उठो देव" चिल्लाने की परम्परा है । ग्रामीण क्षेत्रों में रात्रि की नीरवता में उठो देव की गूंजती आवाजें एक अजीब आध्यात्मिकता को जन्म देती है ।
हालांकि सैकड़ों विदेशी आक्रमणों से आहत मध्यम काल में हम अपने धर्म को भूल कर कन्याओं को दोयम दर्जे पर रखने लगे थे उनके अधिकार भी हमने सीमित कर दिये थे लेकिन आज हम स्वतंत्र हैं और किसी आक्रान्ता से हमें कोई भय नहीं है इस लिए आओ आज हम सब प्रण लें कि हम अपनी पुरानी धार्मिकता के अनुसार आज से पुनः प्राचीन परम्परा की तरह वेटियों को वेटों बरावर ही महत्त्व देंगे