उन्होंने हमेशा दरबार के लिए लिखा। सत्ता उन्हें प्रतिष्ठित करती रही, कभी पुरस्कार देकर, कभी पद देकर। बहरहाल अपना लिखा वे खुद भी कभी याद नहीं रख पाते, ठीक से पाठ नहीं कर पाते, जनता की ज़ुबान चढ़ना तो दूर की बात थी।
सभ्यता की यात्रा में सदियाँ बीत गईं। भौतिक रूप से आदिम उन्नत होता गया पर सोच के स्तर पर आदिम ही रहा। फलतः सत्ता अपनी विराटता के मद में साहित्य को बौना करने का प्रयास करती रही।
दूसरी ओर वह निरंतर लिखता रहा। अभिव्यक्त होता रहा श्वासोच्छवास की भाँति। अपनी पीड़ा, अपना हर्ष, आनंद, उमंग, कौतूहल, आस-निरास, सब कुछ उंडेलता रहा बारहमासी अविरल धारा की तरह। जनसामान्य उसकी रचनाओं में अपना अक्स देखता और उसकी रचनाएँ जनता की ज़ुबान पर चढ़ती गईं।
राजकवियों का कद बनाये रखने के लिए षढयंत्रों की आड़ में जनकवि को फाँसी मुकर्रर कर दी गई। शासन की मर्यादा की दुहाई देकर उसका स्वर हमेशा के लिए बंद कर दिया गया।
सत्ता का खेल अब भी जारी था। संतुलन बनाये रखने के लिए जनकवि की श्रद्धांजलि सभा की घोषणा की गई। सभा का समापन मुँहलगे राजकवि की कविता के सामूहिक पाठ से होना था। श्रद्धांजलि के लिए जनसैलाब उमड़ पड़ा। सत्ता और जुगाड़ुओं की चौकड़ियाँ एक-दूसरे को अर्थ भरी मुस्कराहट से निहार रही थीं।
पर ये क्या...! जैसे ही घोषणा हुई, जनसैलाब जनकवि की एक रचना का सामूहिक पाठ करने लगा। हर कंठ, हर स्वर में जनकवि। जहाँ देखो वहाँ जनकवि। अक्षर-अक्षर जनकवि। ऐसा लग रहा था मानो जनकवि असंख्य रूपों में अपनी रचना का सस्वर पाठ कर रहा हो..!
सत्ता का कद अब निरंतर बौना हो रहा था और साहित्य की विराटता कालजयी होकर उभर रही