'चिकनकारी' लखनऊ का अति प्राचीन षिल्प 'कसीदा' के रूप में प्रचलित है। यह कषीदा लखनऊ की संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग है। चिकनकारी का प्रचार-प्रसार विदेषों में भी हो रहा है। जिससे यहाँ की कला तथा कलाकारों की पहचान वैष्विक हो रही है। चिकन की षिल्पकारी अब केवल लखनऊ तक ही सीमित नहीं है, अपितु लखनऊ जनपद तथा आस-पास के अंचलों के गाँव-गाँव तक फैल गयी है। मुगलकाल में शुरू हुआ चिकनकारी का शानदार सफर-भू मण्डल के अनेक देषों की परिक्रमा करता हुआ आज भी जारी है, जिसे लोग उसके आकर्षण, आलेखन और अभिप्रायों के कारण आज भी उतने सत्साह से पसन्द करते हैं।
'चिकन' शब्द फारसी भाषा के 'चाकिन' से बिगड कर बना है 'चकिन' का अर्थ है कषीदाकारी या बेल-बूटे उभारना। जिस प्रकार मुगलकाल में भारत की कला, संगीत और संस्कृति को समृद्ध किया और देष को ताजमहल एवं लालकिले जैसी अनेक ऐतिहासिक इमारतें दी उसी प्रकार चिकनकारी भी मुगलिया तहजीब की एक अनमोल विरासत है।
कहा जाता है कि मुगल सम्राट जहाँगीर की पत्नी नूरजहाँ, इसे इरान से सीख कर आयी थीं। नूरजहाँ ने महलों और इमामबाडें की दीवार पर की गई नक्काषी को कपड़े पर समेट लेने का पूरा प्रयास किया। नवाबों के जमाने में भी चिकनकारी को खूब बढ़ावा मिला।
लखनऊ में हाथ से सुई और धागों के प्रयोग से बनाया गया चिकन ही असली चिकन माना गया है जिसको 'काॅटेज इण्डस्ट्री' का दर्जा हासिल है। लखनऊ और लखनऊ के इर्द-गिर्द कस्बों और गाँवों-गिराहों में तकरीबन तीन लाख औरतें खास तौर से चिकनकारी कर रही हैं और अपना रोजगार चला रही हैं। अब यहाँ चारों तरफ चिकन के काफी केन्द्र खुल गये है। जिसमें एक जगह पर किसी एक महिला की निगरानी में 15,20,25 औरतें जमा होकर चिकनकारी करती हैं। और यह माल वहां से बनकर साहूकार के पास जाता है। अब ऐसा भी हो गया है कि चिकन का काम और आर्डर लेकर किसी साहूकार का एजेन्ट लखनऊ के इर्द-गिर्द गाँव-गिराहों में उन सेन्टर्स पर जाता है, काम देता है। काम पूरा होने पर उनको भुगतान करके वहाँ से काम लेकर के साहूकार के पास जमा करता है, लेकिन इस वजह से जहाँ एक और चिकनकार को यह सहूलियत मिलती है कि उनको घर बैठे काम मिलता रहता है और दौड़ना भागना नहीं पड़ता तो दूसरी और नुकसान भी होता है कि चिकनकारों की आमदनी इन बिचैलियों में बँट जाती है।
चिकनकारी महीन कपड़े पर सुई धागे से विभिन्न टाँकों का प्रयोग करके की जाती है जिस कारण आँख की रोषनी पर बुरा प्रभाव पड़ता है लिहाजा चालीस-पचास साल की उम्र तक आते-आते चिकनकार की आँखों की रोषनी कम होने लगती है और महीन काम बनाने में दिक्कत होने लगती है।
इसलिए जरूरी है कि जहाँ चिकनकार काम बना रहेें हो वहां का माहौल अच्छा हो, रोषनी हो, सफाई हो तथा जब इनकी रोषनी पर असर पड़ने लगे तो उनके लिए सरकार की तरफ से चष्मों का, आँखें जांच कराने का मुफ्त में इन्तजाम किया जाये। जो बहुत आला पैमाने के कारीगर, चिकनकार हैं तथा जिनको उच्च पुरस्कार मिल चुके हैं, उनसे ऐसी कार्यषाला करायी जाये कि जो उभरते हुये चिकनकार हैं, वे पुराने अलंकरणों, नमूनों आदि को बनाना सीखे और अच्छी चिकनकारी को कायम रखने में मददगार साबित हों, जिससे लखनऊ की चिकनकारी की परंपरा सतत् चलती रहे। जो चिकनकार अपने केन्द्र चला रहे हैं उनके लिए अच्छा महीन कपड़ा, अच्छी किस्म का धागा उचित मूल्य पर सरकार की तरफ से उपलब्ध कराया जाता रहे तो चिकन को विषेष और अच्छा बनाने में मददगार साबित होगा।
देखा जा रहा है कि चिकन के इन अभिप्रायों को कला के अन्य रूपों में भी प्रयोग किया जा रहा है जो इसके प्रसार के लिहाज से अच्छा-संकेत है। यह चिकनकारी शीघ्र ही भौगोलिक सीमाओं से मुक्त होकर अपनी विषेष जगह बना सकेंगी, आषा है।