आखिरकार वह 'कल्पना' हो गयी। मैंने तो सोचा भी नहीं था कि वह पूरी तरह 'कल्पना' हो जायेगी किन्तु उसकी बात में दम था कि वह 'कल्पना' होकर रहेगी । उसने कहा था- 'मेरा नाम कल्पना है और मैं अपने इस नाम को सार्थक कर दूॅगी। एक दिन आयेगा, जब तुम सिर्फ मेरी 'कल्पना' करोगे। अभी तो तुम्हारे पास उनके कल्पनाएं हैं। हालाॅकि मैं भी उनमें से एक हूॅ।' मैंने उस समय आश्यर्च से पूॅछा था, 'क्या अभी तुम मेरी कल्पना नहीं हो? अरे! तुम तो मेरी पत्नी हो। पूरा समर्पण है, तुम्हारा मुझ पर? तो फिर यह कैसे कह सकती हो कि 'एक दिन ऐसा आयेगा, जब मैं और सिर्फ मैं तुम्हारी कल्पना बन जाऊॅगी। मेरी तो सिर्फ एक 'कल्पना है और वह हो सिर्फ तुम?
यह बात सन् 1990 की है, जब हमारी शादी के बाद पहली मुलाकात हुयी थी । 4 दिन बाद मुझे एम0 पी0, पी0यस0सी0 की मुख्य परीक्षा देने रींवा शहर जाना था। एक नवोढ़ा पत्नी की आकांक्षाओं-आशाओं पर तुषारापात करके रींवा जाना मुझे भी भदेस तो लग रहा था किन्तु भविष्य की चिन्ता के मद्देनजर वहाॅ जाना मेरी मजबूरी थी।
आखिरकार मैं भी अन्य महत्वाकांक्षी लड़कों की तरह पी0 सी0 एस0 बनने का सपना, जो आॅखों में पाल रखा था। पत्नी को वहाॅ जाना बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा था। लेकिन यह बात सोलहों आने सच है कि 'महात्वकांक्षा का मोती निष्ठुुरता की सीपी में ही पलता है।' मैं भी इसका शिकार था और फिर मैंने वही किया, जो पत्नी को तत्क्षण पसंद नहीं था। ऐसा नहीं था कि वह मेरे पी0सी0एस0 बनने की विरोधी थीं अपितु वह तो यह चाहती थीं कि मैं आई0ए0एस0 बनूॅ। बात सिर्फ इतनी थी कि तत्कालीन परिस्थितियों में वह मुझे रींवा नहीं जाने देना चाहती थीं।
उनका कहना था कि आखिरकार मुझे तुम्हारे घर में आये जुमां-जुमां 2 दिन ही हुये हैं। अभी तो मैं घर के सभी सदस्यों से ठीक से परिचित भी नहीं हो पायी हूॅ। केवल माता-पिता और तुम्हारे चचेरे छोटे भाई ज्ञानेन्द्र से ही जान-पहचान बन पायी है। ऐसे में मैं किसके सहारे अकेले रह पाऊॅगी? मैंने स्वीकारोक्ति भाव में सिर हिलाया और कहा कि 'अरे! धीरे-धीरे सभी परिचित हो जायेंगे। बड़े भैय्या, मझले भैय्या, भाभियाॅ और तीनों बहनें इसके अलावा, तीनों धर्म बुआयें-क्रमशः लपनी, बबनी और गुधुनी भी तुम्हारी खैरकदम बेन जायेंगी।' उन्होंने दबे मन से मुझे रींवा जाने की अनुमति तो दे दी लेकिन जाते-जाते उन्होंने मुझे वह पत्र भी दिखा दिया, जो कुछ समय पहले मैंने उन्हें लिखा था। शादी के करीब। माह पहले। पत्र का मजबून कुछ इस प्रकार था-
प्रिय कल्पना,
आशा है, तुम सवस्थ और सानंद होगी। तुम्हारा नाम 'कल्पना' है। यह अपने आप में बहुत ही रोचक और सम्मोहक है। तुम्हारे अभिभावकों ने बहुत ही सोच विचार कर यह नाम रखा होगा। वास्तव में, 'कल्पना' से ही 'सृष्टि' उत्पन्न हुई है। विशवकर्मा ने सृष्टि निर्माण के पहले उसकी कल्पना की होगीं। जैसे- हम कोई घर बनाते हैं, वृत्तचित्र या फिल्म बनाते हैं, कहानी या उपन्यास लिखते हैं तो उसके पहले एक कल्पना करते हैं। पेंटर जब पेंटिंग बनाता है या मूर्तिकार जब मूर्ति गढ़ता है तो उनके दिमाग में एक कल्पना कौंध जाती है। दुनिया में जो भी द्रष्टव्य है, उसके पीछे एक कल्पना है। जगत के कण-कण में कल्पना पख्यिाप्त है। हमारी कल्पना ही जगत रूप में दिखती है। यह जगत कल्पना-वाहय नहीं है। जगत के नष्ट हो जाने पर भी उसकी कल्पना बची रह जाती है। इसलिए मैं भी कल्पना के साथ आबद्व हूॅ। तुम मेरी कल्पना हो।
पत्र देखकर मैंने कहा कि 'इस पत्र के साथ मेरी संवेदनाएं गहरे में जुड़ी हुई हैं। 'कल्पना' जहाॅ समष्टि का अभूर्त समुच्चय है, वहीं यह व्यष्टि की निजी अनुभूति भी है। दोनों का समन्वय ही हमें उच्चतम लक्ष्य तक पहुॅचा सकता है। हृदय की अतल गहराइयों से इसे अनुभूत किया जा सकता है। मैं 'कल्पना' को व्यष्टि के रूप में और उसे समष्टि के रूप में भी महसूस कर सकता हूॅ। 'कल्पना' से ही दुनिया का परिचालन है। बिना कल्पना के दुनिया के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिहन लग जायेगा।' इस पर कल्पना ने कहा कि 'फिर तुम मुझे छोड़कर क्यों जा रहे हो? तुम्हारे इस 'चपरो' वाले गाॅव में न तो सड़क है, न बिजली है, न शुद्व पानी है और न ही घूमने के लिए कोई 'पिकनिक स्पाट' है। मनोरंजन के नाम पर सिर्फ एक ट्राॅजिस्टर भर है। घर के बाहर निकलना नयी बहू के लिए सामाजिक अपराध है। ऐसी स्थिति में मैं यहाॅ कैसे रहूॅ? किससे बात करूॅ? कैसे समय बिताऊॅ मैंने कहा कि 'मैं तुम्हें छोड़कर नहीं जा रहा हूॅ बल्कि तुम्हारे साथ जा रहा हूॅ। तुम्हारी कल्पना के साथ जा रहे हो? उन्होंने बात करते हुए कहा। 'तुम्हारी कल्पना ही मेरी कल्पना है'- मैंने कहा। ' एक मूर्त कल्पना को छोड़कार अभूर्त कल्पनाओं के साथ जा रहा हूॅ। फिर लौटकर अभूर्त कल्पनाओं को मूर्त कल्पना के साथ मिला दूॅगा।' यह बात मैंने उन्हें समझाने के अर्थ में कही थी। खैर! अंततोगत्वा उन्होंने जाने की इजाजत दे दी और मैं रींवा चला गया। रास्ते में मैं सोच रहा था कि शायद कल्पना ठीक ही कह रही थी। अभी मुझे घर पर कल्पना के ही साथ होना चाहिए था। पी0 सी0 एस0 और आई0 ए0 एस0 बनने के तो उनेक अवसर हैं। व्यक्ति का व्यक्ति के साथ साहचर्य अनमोल है। उसे किसी पद या प्रतिष्ठा से नहीं तौला जा सकता। पी0 सी0 एस0 बनने का मतलब है- कुछ पैसा, कुछ पावर और उससे सृजित कुछ सम्मान लेकिन क्या यह उस चाहत से बड़ा है, जिसे आपका कोई प्रियतम चाहता है? आखिर! कल्पना केवल मेरा सानिध्य ही तो चाहती थी। पद् प्रतिष्ठा और पैसा पाने के तो अनेक अवसर हैं किन्तु उसके अलावा अगर व्यक्ति का हृदय एक बार टूट जाय तो उसे दुबारा उस स्थिति में ला पाने के अवसर नगण्य हैं। कुछ लोगों की करूणा देखकर सिद्वार्थ ने कंचन और कामिनी को छोड़कर सन्यासी का जीवन अख्तियार कर लिया था और गौतम बुद्व हो गये। अगर कंचन और कामिनी में ही आनंद होता तो गौतम बुद्व उसे कभी न छोड़ते। लोगों को दुखों से मुक्ति दिलाना ही उनकी प्राथमिकता बन गयी थी। और मैं......कुछ भौतिक सुविधाओं को पाने के चक्कर में एक प्रिय व्यक्ति का हृदय तोड़ने पर आमादा हूॅ?
मैं इसी तरह सोचता जा रहा हूॅ और बस रींवा की तरफ धड़ाधड़ बढ़ती जा रही है। रींवा शहर कब आ गया, पता नहीं चल सका। तीन, साढ़े तीन घंटे का सफर ऐसे बीत गया, जैसे वह बीता ही न हो। रींवा पहुॅचकर मैंने एक होटल में कमरा लिया । जैसे ही कमरे से व्यवस्थित होकर चाय पीने बाहर निकला, वैसे ही मेरे एक मित्र प्रदीप सिंह होटल के बाहर मिल गये। प्रदीप सिंह भी पी0सी0एस0 मुख्य परीक्षा देने आये थे। मेरे कहने पर वह भी चाय पीने मेरे साथ हो लिये थे। मेरी शादी में वह भी शरीक हुए थे। इस बात पर उन्होंने हैरत भी जताया कि मैं क्यों नवोढ़ा पत्नी को छोड़कर परीक्षा देने चला आया।
प्रदीप सिंह का साथ मिल जाने पर एक काम तो अच्छा हो गया था कि मेरे सभी विषयों (जी0एस0, पालिटिक्स और फिलास्फी) का पुनर्शोधन अच्छी तरह से हो गया। वाद-प्रतिवाद के द्वारा हमने विषयों का 'रिवीजन' तो कर लिया था लेकिन मेरा मन अशांत था। जैसे ही उस समय की सुपर हिट पिक्चर 'आज का अर्जुन' के गाने बाहर सुनायी पड़ते, वैसे ही मैं अध्ययन छोड़कर कमरे से बाहर निकल गाने सुनने लगता। विशेष रूप से गोरी हैं, कलाइयाॅ तूॅ ला दे मुझे हरी-हरी चूॅड़ियाॅ' वाला गाना मुझे लगातार सम्मोहित करता रहा। खैर! जैसे-तैसे मैंने परीक्षा तो दे दिया लेकिन वहाॅ के 5-6 दिन मेरे लिए 5-6 महीने की तरह लगे। परीक्षा देकर जब घर लौटा तो पता चला कि कल्पना तो अपने मायके जा चुकी हैं। यह जानकर तो बहुत कष्ट हुआ लेकिन अभिव्यक्ति का कोई माध्यम भी नहीं था। दूसरे दिन मैं भी गाॅव से शहर अपने दारागंज (इलाहाबाद) वाले कमरे पर आ गया था। अपने छोटे भाई ज्ञानेन्द्र और उनके मित्र जयशंकर पांडे को अपनी ससुराल भेजकर पत्नी को अपने कमरे पर बुला लिया। उसके बाद मेरी बेचैनी तब कम हुई, जब उनसे अपने मन की सारी बातें कह लिया।
कल्पना ने स्मरण कराया कि 'एक दिन ऐसा आयेगा, जब तुम्हारे मनोमास्तिष्क में सिर्फ मैं ही रह जाऊॅगी।' यह बात सही भी निकली। रींवा जाने पर मुझे पता चला कि जिस 'कल्पना' को छोड़कर मैं यहाॅ परीक्षा देने आया हूॅ, वह तो यहाॅ भी मेरा पीछा कर रही है। यानी मैं 'कल्पना' की ही कल्पना में खोया हुआ था।'कल्पना' की भी क्या कल्पना होती कि मेरी कल्पना ही निरूतर हो जाती है। यह बात सुनकर वह खूब खिलखिलाकर हॅसती थीं और कहतीं कि आखिर तुम मेरी प्रभाविता को स्वीकार करते हो।
इलाहाबाद रहने क ेदौरान मेरी अक्सर मुलाकात उनसे हो जाया करती थी। कभी वह मेरे कमरे पर आ जातीं थी तो कभी मैं उनके घर चला जाता था। अक्सर विश्वविद्यालय में हमारी मुलाकात होती रही। वह एम0ए0 प्रथम वर्ष की छात्रा थीं और इतिहास विषय से अपना परास्नातक कर रहीं थीं। हालाॅकि वह दर्शन शास्त्र में विशेषरूचि रखतीं थीं। नारी-स्वातंत्रय की प्रबल पैरोकार थीं और लड़कियों की आर्थिक स्वाधीनता को इसके लिए अपरिहार्य मानती थीं। भारत में लड़कियों की वैवाहिक अनिवार्यता को वह गलत मानतीं थी और इसे नारी-स्वातंत्रय के लिए घातक बताती थीं। वह कहती थीं कि शादी की अनिवार्यता के ही कारण दहेज प्रथा को बढ़ावा मिला है।
93 में वह बीमार हो गयीं। रीढ़ की हड्डी में अक्सर दर्द बना रहता था। हड्डी रोग विशेषज्ञ का इलाज चल रहा था। बु्रफेन दवा के सेवन से उनके फेफड़ों में दिक्कतें बढ़ गयीं थीं।स्वाॅस लेने में दिक्कत होने लगी तो टी0बी0/फेफड़े विशेषज्ञ 'यू0सी0 गोयल' को दिखाया गया। 'प्रीति-हास्पिटल' में उनका इलाज चल रहा था। मेरी बेरोजगारी के चलते उनको इलाज का सारा खर्च उनके मायके वालों ने ही उठाया मैं तो चाहकर भी न इलाज करवा पाने की स्थिति में था और न ही घरवालों को इसके लिए राजी कर सकता था। कभी-कभी मन में यह खयाल चलता रहता था कि आखिर मेरी मर्जी के खिलाफ हुई शादी की नैतिक जिम्मेदारी किसकी थी? मेरी और मेरी पत्नी के जीवनोपयोगी खर्च का जिम्मेदार कौन था? लेकिन इसकी कहीं कोई अपील नहीं थी। अपने मित्र राकेश पाण्डेय, छोटे भाई ज्ञानेन्द्र व रिश्तेदार के0पी0 मिश्र के अलावा, मेरी बात भी कोई सुनने वाला नहीं था। सिर्फ मैं और मेरी कल्पना ही साथ थी।
'प्रीति हास्पिटल' में। महीने तक इलाज चला। कल्पना के फेफड़ों में पानी भर गया था। डाक्टर उसे लगातार नली के सहारे निकाल रहे थे किन्तु उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिल पा रही थी। अन्त में डाक्टरों ने भी हार मान ली और घोषित कर दिया कि अब वह 2-3 दिन की और मेहमान हैं। मेरे लिए यह बिजली के 'शाट' का झटका था किन्तु किसी तरह अपने को संतुलित रखते हुए पत्नी कल्पना से लगातार बातें करता रहा' उन्हें पूर्ण स्वस्थ हो जाने का हौंसला बॅधाता रहा। मैं पत्नी से झूठ बोल रहा था। इस झूठ की पीड़ा और 2-3 दिन बाद उनके न रह जाने की पीड़ा ने मुझे हिलाकर रख दिया था। झूठ इसलिए कि उनका जीवन शायद बच जाये। प्रतिजीवी क्षमता का शायद पुनर्वापसन संभव हो जाय? क्योंकि डाक्टरों ने भी यही कहा था कि अगर मरीज में आत्मविश्वास बनाये रखा जाय तो रोग प्रतिरोधक छमता में वृद्वि हो जाती है, जो मरीज को ठीक करने के लिए आवश्यक है। मेरा बेटा 'तनू' उस समय केवल 6 महीने का था। उसकी देखरेख की चिंता भी मुझे हताश कर रही थी। जीवन के स्र्वार्णम छण एक ही झटके में गिर जाने को आतुर थे। मुझे बार-बार 'कल्पना' की वही बातें याद आ रही थीं कि 'एक दिन ऐसा आयेगा, जब सिर्फ मैं तुम्हारी 'कल्पना' बन जाऊॅगी'। इस बीच गौतम बुद्व याद आये, जिन्होंने कहा था कि जीवन सिर्फ और सिर्फ एक छण का है।' अब मुझे वे छण भी याद आये, जब मैं पत्नी के साथ नहीं था।
नियति का चक्र कु्रर होता है। उसे किसी की भावना से क्या लेना-देना। वह अपना काम पूरा करता है। अंत में वह वीमत्स छण आ ही गया, जब पत्नी 'कल्पना' नहीं रहीं। सारे रिश्तों, नातों, आशाओं और आकांक्षाओं को एक छण में बदल दिया। अब 'कल्पना' ब्रहमाण्ड की कल्पना में समा गयी थी।शरीरी कल्पना का अवसान हो गया था किन्तु चैतन्यरूपा कल्पना आज भी हमारे चित्त में है। आज तो सिर्फ और सिर्फ उनकी 'कल्पना' है। उसके सामने सारी महत्वाकांक्षायें नतमस्तक है।