उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द उर्दू का संस्कार लेकर हिन्दी में आए और हिन्दी के महान लेखक बने। उन्होंने हिन्दी को अपना खास मुहावरा और खुलापन दिया। कथा लेखन के क्षेत्र में उन्होंने युगान्तरकारी परिवर्तन किए। आम आदमी को उन्होंने अपनी रचनाओं का विषय बनाया और दमन, शोषण और भ्रष्ट चेहरों की गिरफ्त में पिसती उनकी ज़िन्दगी की समस्याओं पर खुलकर कलम चलाते हुए उन्हें समाज के सही नायकों के पद पर आसीन किया।
प्रेमचंद ने साहित्य को कल्पना लोक से सच्चाई के धरातल पर उतारा। वे साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार, जमींदारी, कर्जखोरी, गरीबी, उपनिवेशवाद, पूंजीवाद, सामाजिक विषमता, विसंगति और संवेदना के तिरोभाव पर आजीवन लिखते रहे। वे आम भारतीय जीवन के सहज व सजग रचनाकार थे। प्रेमचंद हिन्दी साहित्य के युग प्रवर्तक हैं। उन्होंने हिन्दी कहानी में समाज को खोखला करने वाले भ्रष्ट और दोहरे चरित्रों का खुलासा करते हुए ज़मीनी सच्चाई को स्वर देने की एक नई परम्परा शुरू की। आज भी प्रेमचंद के ज़िक्र के बगैर हिन्दी भाषा और साहित्य की विरासत या भारत के भविष्य का कोई भी विमर्श यदि अधूरा माना जाता है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
प्रेमचंद ने लगभग तीन सौ कहानियां लिखकर राष्ट्र भारती के कोष को समृद्ध किया है। उनकी कहानियों में जगह-जगह पर वंचितों के लिए संवेदना और सोये हुए लोगों के लिए झकझोर कर जगा देने वाली भाषा और विचार का सशक्त रूप देखा जा सकता है। भाषा को संवेदना और संवेदना को भाषा बना देने वाली कला का अनोखा उदाहरण है मुंशी प्रेमचंद की विश्व प्रसिद्द कहानी कफ़न। हिन्दी में इसे प्रगतिशीलता और नई कहानी की ज़मीन पर बार-बार देखने और समझने-समझाने का दौर चला, वह आज भी निरंतर है। लेकिन, कफ़न कहानी की दर्दबयानी को किसी सांचे में ढालकर देखना आज भी मुमकिन नहीं है। दरअसल ऎसी कहानियाँ अपनी मिसाल आप हुआ करती हैं।
एकबारगी देखें तो कफ़न में कहानीकार ने महज़ तीन दृश्य उपस्थित किये हैं। पहले में घीसू और माधव के आलू खाकर अजगर की तरह पड़ जाने और बुधिया के प्रसव पीड़ा से कराहते रहने का है। दूसरे में बुधिया की मृत्यु और बाप-बेटे द्वारा कफ़न के लिए पैसे माँग लाने का है। तीसरा दृश्य कफ़न खरीदते हुए 'दैव कृपा' से मधुशाला में पहुँचने और नशे में मदमस्त होकर डूब जाने का है। कहानी के पहले और तीसरे दृश्य में विरोधी रंगों का प्रयोग कर कहानीकार ने जिस तल्ख़ अंदाज़ में व्यंग्य का सहारा लेकर समाज की विसंगत और दोमुंही व्यवस्था का रेशा-रेशा अनावरण किया है, उससे कफ़न कहानी को बेजोड़ होने का दर्ज़ा स्वाभाविक रूप से मिल गया है।
पहले दृश्य में लेखक ने ठाकुर की बारात का स्मृति-दृश्य उपस्थित किया है। जीवन की एक मात्र लालसा वह भोजन ही है, किन्तु वास्तविक धरातल पर पिता-पुत्र में चोरी के भुने हुए आलुओं पर टूट पड़ने की प्रतिस्पर्धा है। भूख को बेसब्र कर देने वाला वातावरण स्वादिष्ट भोजन के सौभाग्य की लालसा को चरम तक पहुंचा देता है। यही कारण है कि कहानी के अंत में घीसू और माधव मधुशाला पहुंचकर अपने 'अनपेक्षित सौभाग्य' पर खूब खुश होते हैं और बुधिया की तरफ संकेत कर कहते हैं कि मरते-मरते हमारी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गई। इस तरह कफ़न कहानी का पहला दृश्य ही कहानी के अंत की आधार बन जाता है।
विडंबना देखिये कि बाप-बेटे दोनों अपनी ही बहू या पत्नी के मानवीय संबंधों को ताक़ पर रखकर ज़बान जल जाने की परवाह न करते हुए भुने हुए आलू खाने की स्पर्धा में जुटे हैं। यहाँ ठाकुर की बारात के व्यंजनों की तुलना में घीसू और माधव की भूख को मापा जा सकता है। भूख और पचास पूरी के बीच अंतर समाज की विषमता का ही एक रूप है। इस अंतर को दोनों जैसे एक ही दिन में मिटा देने के लिए टूट पड़ते हैं।
घीसू के लिए ठाकुर का भोज परम मुक्ति का मार्ग है। माधव उसकी प्रत्याशा में बेचैन है। यहाँ मानवीय रिश्ते जड़ हो जाते हैं। आलू खाकर पिता-पुत्र पानी पीते हैं और पाँव पेट में डालकर सो जाते हैं। उधर बुधिया कराह रही है। पर दोनों बेखबर जैसे हैं। भूख के आगे उनकी चेतना जड़ हो गई है। कहानी के आरम्भ में मुंशी जी ने जिस बुझे हुए अलाव का उल्लेख किया है, वह वास्तव में मानवीय संबंधों के बुझते जाने का प्रतीक है।
कहानी के प्रारम्भ में पाठक का आक्रोश घीसू और माधव की बेदर्दी पर हो सकता है, पर लेखक की दूरदृष्टि इस आक्रोश को सामाजिक व्यवस्था की कमजोरियों की तरफ स्थानांतरित कर देती है। घीसू ने भली भांति जान लिया है कि जब सब कुछ झोंक देने का परिणाम भी कुछ नहीं है तो इतनी मेहनत करने का क्या फायदा ? कहानी के दूसरे दृश्य में चरित्र के दुहरे रंगों को उजागर किया गया है। घीसू और माधव को संवेदना का मुखौटा पहनाकर कहानीकार ने गहरा व्यंग्य किया है। जीवन भर यह दिल कठोर बना रहता है किन्तु मृत्यु के समय औपचारिक संवेदना व्यक्त कर वे कर्तव्यों की इति श्री समझ लेते हैं।
तीसरे दृश्य में बाप-बेटे कफ़न खरीदने बाज़ार जाते हैं। कफ़न पसंद नहीं आता और शाम ढल जाती है। दोनों समाज की व्यवस्था को जली-कटी सुनाते हुए दैवी प्रेरणा से मधुशाला पहुँच जाते हैं। उधर लोग बुधिया की मिट्टी को उठाने के लिए बांस-वांस की तैयारी करते हैं और उनके निकटतम जो लोग हैं वे इस वक्त शान से पूरियों पर टूटे हुए हैं। यद्यपि इस हालात में भी उन्हें लोक निंदा का ख़याल आता है पर दोनों दार्शनिकों वाले अंदाज़ में अपने मन को समझा लेते हैं। इस तरह चेतना का अलाव पूरी तरह बुझ जाता है। दोनों गाते हैं, नाचते हैं और मदमस्त होकर गिर पड़ते हैं और मानवीय संबंधों की जड़ता को सामाजिक यथार्थ के स्तर पर उद्घाटित करने वाली इस कहानी का अंत हो जाता है। व्यवस्था की विषम चट्टान पर मानवीय चेतना खुद पथरा जाती है।
कहानी के अंत में यद्यपि लगता है कि कोई समाधान नहीं मिलता किन्तु प्रेमचंद जी जैसे कथा लेखक समाधान से अधिक सवाल छोड़ जाने में यकीन करते थे शायद, यही कारण है कि वे और उनके सवाल आज भी प्रासंगिक हैं। इस तरह कफ़न, कहानी की शक्ति का परिचायक तो बना ही, वह भविष्य की कहानी का संकेत भी बन गया।
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