(..... जीवन के अनापेक्षित संकटों से गुजरने के बावजूद भी अपने विश्वास पर अटल रहते हुए, अर्न्तद्वंद्व से जूझती और अंतर्निहित भावनाओं को अनावृत करती एक ममतामयी नारी की सोच, और उसके अनुरूप लिए गये फैसले का मार्मिक चित्रण)
“स्नेहा ! ओ स्नेहा ! अरे स्नेहा बेटी, तू तैयार हो गई न?”,
माँ का स्नेह और ममता में आरक्त स्वर गुंजायमान हो उठा था।
“देख तो मेरी बेटी कैसी सुन्दर लग रही है। बस चौबीस घण्टे की बात है, सबेरे ही तेरा दूल्हा मेरी फूल सी बेटी को, पलकों के पालने पर बिठा कर ले जायेगा!”,
माँ अभी भी उसे स्नेहवश उसे निहारे, जा रही थी। वैसा उसका पूरा नाम था स्नेहप्रिया! कर्ण प्रिय और मद्धिम सुरों में दूर से गूँजती हुई शहनाइयों के आलम में हास-परिहास करती हुई सहेलियाँ के बीच लाज से दुहरी हुई जा रही थी वह। जैसे-जैसे उसके जीवन की स्वर्णिम घड़ी नजदीक आ रही थी, वैसे ही वैसे रवि का आर्कषक व्यक्तित्व उसकी आंखों से हटाये नहीं हट रहा था। उसका प्रेमी... उसका पति रवि ! ऐसा लग रहा था मानो समय कुछ देर के लिए ठहर गया हो… परन्तु समय भला ठहरता कहाँ है?
आखिर वह घड़ी भी आ गयी, जब वह माँ बाप की देहरी छोड़कर उस अनजान अपरिचित द्वार पर आ गई। द्वाराचार का पूरा नेग उसकी बुआ-सास ने किया था। जिसने भी देखा, सभी ने उसे चाँद की संज्ञा दी। फिर, आरम्भ हुई वह प्रथम रात्रि के मिलन की घड़ियाँ... बिल्कुल अद्भुद व अलौकिक ! रवि और उसकी पसंद एक थी, यह वह पहले मिलन से ही समझ गई थी… और उसकी ख़ुशी का कोई ठिकाना ही न था. उसे और क्या चाहिए था भला!
दूसरे दिन रवि ने अपने छोटे भाई अनुज व बहन कनक से अनौपचारिक परिचय कराते हुए कहा,
“प्रिया, इनसे मिलो, यह मेरा छोटा भाई अनु ! इस वर्ष इण्टर की परीक्षा दी है। परीक्षा में हमेशा अव्वल आता है और ये मेरी बहन कनु इसने पांचवी की परीक्षा दी है। बहुत शैतान है यह, संभल कर रहना! यह छोटी जरूर है, मगर सबकी नानी है।”
अनु कुछ शर्मीला था, किन्तु उसने जल्दी से अपने भाभी के पैर छुए और भाभी ने भी अपना स्नेहयुक्त हाथ उसके बालों पर फेरकर आर्शीवाद दिया। कनु भी भाभी के वात्सल्यमयी रूप से आकर्षित होकर उसके आंचल में छिप गई, और प्रिया? उसे तो ऐसा लग रहा था मानो सारा स्वर्ग ही उसके आंचल मे छिपकर बैठ गया हो। दोनों के सुन्दर और निःश्छल… निष्कपट चेहरे देख कर उसके स्वयं के अन्दर की छिपी हुई ममता आँखों में उतर आई थी।
दोनों के कमरे से जाने के बाद रवि ने उदास होते हुए उसे बताया कि जब यह दोनों छोटे थे, तभी माँ-पिताजी की एक एक्सीडेन्ट मे मृत्यु हो गई थी। तभी से उसने दोनों को अपना बेटा और बेटी मानते हुए किसी अभाव को महसूस नहीं होने दिया।
“बस प्रिया, तुम मुझे एक वचन दो कि तुम दोनों को एक माँ जैसा प्यार दोगी। तुम्हारी ममता की छाँव पाकर यह बच्चे निहाल हो जायेंगे और मैं तुम्हारा ये एहसान कभी नहीं भूलूँगा। बोलो प्रिया! जबाब दो प्लीज, मुझ पर यह उपकार जरूर कर देना। रवि का स्वर विनम्रता व प्रार्थना से परिपूर्ण था।
प्रिया ने जब रवि को ऐसी स्थिति में देखा तो उसका हृदय भी द्रवित हो उठा। उसने तुरन्त रवि का हाथ अपने हाथ में लेकर दिलासा देते हुए विश्वासपूर्वक कहा,
“नाथ! आप ऐसा क्यों सोचते हैं? मैं तो स्वयं ही अनायास, और शीघ्र दो सुन्दर बच्चों की माँ बन गई हूँ! क्या आपका मुझ पर विश्वास नहीं ?”
रवि एकटक उसकी पवित्र भाव-भंगिमा, शालीनता ओढ़े ओजस्वी चेहरे और निर्मल मुस्कान को देखता ही रह गया। उसने मन ही मन उस अलौकिक नारी रूप देवी का नमन कर अपने आपको धन्य महसूस किया।
समय धीरे-धीरे गुजरता गया। एक वर्ष कैसे निकल गया, दोनों को ज्ञात ही नहीं हुआ। प्रिया तो दो फूल जैसे देवर-ननद और रवि जैसे पति को पाकर बहुत खुश थी और वह दोनों फूल भी अपनी छोटी सी बगिया को हमेशा महकाये रखते थे।
लेकिन शायद विधाता को यह खुशी ज्यादा रास नहीं आयी और आखिरकार उस महकती बगिया पर अमावस की घोर काली अंधेरी रात का साया पड़ ही गया। जब प्रिया को होश आया तब बहुत देर हो चुकी थी। प्रिया का प्रियतम, उसका सहारा, उसे अकेली छोड़कर उससे बहुत दूर जा चुका था। उफ! कैसी भयानक दुर्घटना ? उसका शरीर कंपकंपाने लगता है। मगर वह कैसे जीवित बच गई ? उसे भी अपने प्रियतम के साथ चला जाना चाहिए था। आखिर चन्द्रमा के बिना चकोर कैसे रह सकता है ?
जब होश आया तो उसका पूरा शरीर पट्टियों में लिपटा पड़ा था। प्रिया ने कराहकर ज्यों ही आंख खोली, पहले धुंधला, फिर सब स्पष्ट नजर आने लगा । आसपास परिचित नजर आ रहे थे, किन्तु उसमें दो ही सबसे ज्यादा नजदीकी चेहरे थे, वे थे अनु और कनु के चेहरे, जो बड़ी आशा से अपनी भाभी को अपलक निहारे जा रहे थे। दोनों बच्चों की आंखें रोते-रोते सूज गई थी। वह चेहरे पर मुर्दनी लिये अनाथ से प्रतीत हो रहे थे।
“अनु बेटा! मेरी बच्ची मेरे पास आओ”,
कराहते हुये प्रिया की दोनों बाहें स्वतः दोनों को आलिंगन मे लेने को उठ गई।
शायद दोनों बच्चें इसी की प्रतीक्षा में थे। दौड़कर आंचल में छिपकर सुबक पड़े। प्रिया का स्नेहासिक्त स्पर्श पाकर दोनों को धैर्य मिला कि अभी वे अनाथ नहीं हैं। दो दिन में ही दोनों कैसे मुरझा गये थे।
खुद को स्नेहा भी कुछ नहीं समझ पाई कि यह सन्निपात कैसे हो गया ? अब दिनों दिन वह खोयी-सी रहने लगी। रवि के बिना वह बिल्कुल पागल सी हो गई थी। दिन भर कमरे में बन्द रहती थी। कभी मुस्कुराने लगती तो कभी रोने लगती; अजीब मानसिक स्थिति से गुजर रही थी वह!
उसकी दशा देखकर अनु और कनु भी रोने लगते। घर अव्यवस्थित होने लगा। कनु तो अभी बहुत छोटी थी, हमेशा प्रिया से चिपकी रहती किन्तु अनु थोड़ा समझदार था। उसी ने धीरे-धीरे घर संभाल लिया। अपनी भाभी का खूब ध्यान रखता और उसे बुजुर्गों की तरह समझाने लगता। कभी समझाते-समझते वह खुद भी रोने लगती।
कहते हैं कि समय घाव पर मरहम लगा देता है। धीरे-धीरे प्रिया की भी चेतना लौटी और उसका यथार्थ तथा सत्य से परिचय हुआ। उसने अपने आपको एक दोराहे पर खड़ा पाया। सोचने लगी कि कैसे कटेगी यह पहाड सी जिन्दगी ? भाभी होने का एहसास, जिसमें दोनों बच्चों ने उसके अन्दर ’माँ का अस्तित्व पाया था, जिसका प्यार-दुलार पाकर दोनों पुलकित हो उठे थे, पर अब घर की अनु-कनु की, इतनी जिम्मेदारी, यह सब कैसे संभाल पायेगी वह?
समय का स्पंदन पाकर वह फिर उसी तरह अपने घर में रची-बसी रहने लगी। अपनी एम0ए0, बी0एड0 की डिग्री के अनुरूप वह वेकेन्सियां देखकर नौकरी हेतु आवेदन पत्र भरने लगी। नौकरी की तलाश में जुट गई। वह नहीं चाहती थी कि उसके प्यारे से बेटा-बेटी अपने भैया की कमी और किसी अभाव को महसूस करें। रवि के सपनों को साकार करने हेतु वह अनु और कनु की पढ़ाई का पूर्ण ध्यान रखने लगी। उसे रवि को दिया वचन याद था।
इसी बीच स्नेहा के माँ-बाप आते रहते और उसे समझाने की कोशिश करते कि तू यहाँ से चलकर मेरे साथ रह। एक दिन स्नेहा के पिताजी ने आते ही अपना भाषण शुरू कर दिया,
‘अरे बेटी’’, मैं तो तेरे भले के लिये ही कहता हूँ। बड़े हो जाने पर ये दोनों तेरा एहसान भूल जायेंगे। तू क्यों अपना समय इनके लिए नष्ट करती है ? अगर तू हाँ कहे तो मैं तेरा दूसरा ब्याह कर दूँगा।
“पिताजी! मैंने आप लोगों से इतनी बार कहा है कि अगर आप सिर्फ यही बात कहने के लिए यहाँ आते हैं तो आपका आना व्यर्थ है। मुझे आपकी बातों में कोई दिलचस्पी नहीं”,
स्नेहा झुँलाकर कहती।
“अरे बेटी, तू तो खामख्वाह बुरा मान जाती है। मेरा कहने का मतलब है कि तू अपना घर भी बसा ले और समय मिले तो साथ ही अपने देवर-ननद की सेवा करती रहना। ये तेरे कोई सगे थोडे़ ही न हैं। अभी तू सुन्दर है, जवान है, पड़ी लिखी भी है”,
स्नेहा के पिताजी अपनी बाणी को मधुर बनाते हुए कहते ।
“........!’’
बस एक मौन ही उसका जवाब होता।
“अच्छा बेटी, तो मैं अब चलता हूँ। कमबख्त ये बुढ़ापा ऐसा है कि तेरे पास आने तक ये ससुरी कमर ही टेढ़ी हो जावे। लेकिन बेटी मेरी बात पर गौर करके ठण्डे दिमाग से सोचना जरूर!”
बेचारी स्नेहा... सब स्थिति जानते हुए भी कुछ सोचने पर मजबूर हो जाती!
एक दिन वह खुशी से झूमती घर मे आई और दोनों को अपने से चिपटाते हुए, तो कभी प्यार करते हुए, मानो बावली हुई जा रही थी। जब अनु ने इस खुशी का राज जानना चाहा तो उसने प्यार से उसके चेहरे को अपने दोनों हाथों में लेकर बताया कि,
“मेरी इण्टर कॉलेज में लेक्चरर की सर्विस लग गयी है... अब मैं तुम दोनों को खूब पढ़ाऊँगी, और दूसरी, उसने लजाकर जैसे ही उसके हाथों को अपने चेहरे पर ढांप कर उसके चाचा बनने की खबर सुनाई, तो मारे खुशी के अनु का दिल बल्लियाँ उछलने लगा।
“तुम सच कह रहीं हो भाभी ?’ क्या सचमुच मैं चाचा बनूँगा और कनु बुआ?”,
उसने प्रसन्नता व आश्चर्य मिश्रित स्वर में पूँछा।
भाभी की मौन स्वीकृति पाकर उसने जोर से ’हुर्रे’ का नारा लगाकर कनु को गोद में उठाकर उसे नचाते हुए बताया कि अब तू बुआ बनेगी । फिर उसे उतारकर तीर की तरह तेजी से बाहर भागा । बेचारी कनु कुछ ज्यादा न समझ सकी। बस इतना ही कहा-
’’’भाभी, मैं किसकी बुआ हूँ ?
उसके भालेपन पर स्नेहा ने उसको कलेजे से लगाते हुए कहा,
“हाँ मेरी लाड़ो। मेरी गुड़िया! अब तेरा एक नन्हा साथी आने वाला है। तेरे भैया का छोटा रूप”,
और कनु को छाती से चिपकाये वह नन्हे मुन्ने के आगमन की कल्पना से ही सतरंगी सपनों में डूब गयी।
जिसे भी ज्ञात हुआ, बधाई देने आ पहुँचा। सभी स्त्रियां अपनी-अपनी समझ के अनुसार उसको सतर्क रहने का निर्देश देने चली आयीं। मायके से माँ-पिताजी भी आ पहुँचे। सभी बहुत खुश थे, कि चलो, अच्छा हुआ, अब स्नेह प्रिया को जीने का साधन मिल गया। डॉक्टर ने उसको चार महीने का गर्भ बताया था और कुछ आवश्यक निर्देश भी दिये थे।
किन्तु... हाय री किस्मत! स्नेह को यहाँ भी धोखा खाना पड़ा था। एक दिन कॉलेज से आते ही उसकी जो तबियत खराब हुई, पेट की तीव्र पीड़ा को झेलते हुए बेहोश होकर जब होश मे आयी तो डॉक्टर ने बताया कि उसे एबॉर्शन हो गया है। इस आघात को सहने के लिए प्रिया कतई तैयार न थी। बस आँखें फाड़े सबको ऐसे देख रही थी, मानो किसी जंगल में जंगली लोगों के बीच खड़ी हो! उसे कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा था, बस एकटक शून्य में ताके जा रही थी।
समय का चक्र अपनी गति से बढ़ता रहा, किन्तु उसके हृदय में जो रिक्तता थी वो समय का मरहम पाकर भी न भर सकी। एक बार फिर घर अव्यवस्थित होने लगा। प्रिया तो जैसे अपना विवेक ही खो चुकी थी। जो जैसा कहता वैसा ही करने लगती। उसका अपना वजूद तो जैसे रहा ही नहीं। प्रिया के माँ-पिताजी भी उसके दुःख को देखकर दुखी होते उसे समझाते, मगर उसे कुछ सुनाई ही नहीं देता।
उसका इतना सारा दुःख देखकर प्रिया की माँ स्नेह से अपनी बेटी के सिर पर हाथ फेरते हुई बोली,
“बेटी, अब मुझसे तेरा दुख देखा ही नही जाता। तू बस हाँ कह दे, तो मैं तुझे अपने साथ ले जाऊँगी। यहां तू इन दीवारों मे कैद होकर रह गई है। इन दीवारों के साये में लिपटी यादें तुझे चैन से जीने नहीं देगी। क्या तू यूँ ही घुट-घुट कर मरना चाहती है? अरी अभी तो तेरे माँ बाप जिन्दा हैं। पहले तो हम मरेंगें, तब मेरी लाश से तू निकलना। देख, यहां तेरी क्या हालत हो गई है? आज मैं तुझे ले जाने के लिये आई हूँ। तुझे मेरे साथ चलना ही पड़ेगा। चल उठ, जल्दी से तैयार हो जा। चल!”
मगर प्रिया तो अचल पर्वत की भांति बैठी थी।
“अरी, गूँगी हो गई है क्या? चल जल्दी से नहा ले और कुछ खा ले। जब तक तेरे बाबूजी रिक्शा लेकर आते हैं”,
माँ ने उसे लाड़ से झिड़की दी।
माँ ने उसे जबरदस्ती खड़ा कर दिया था। अनु घर मे नहीं था। कनु टुकुर-टुकुर सहमी सी एक तरफ खड़ी अपनी भाभी और उसकी माँ का वार्तालाप सुन रही थीं।
“अरी ओ रावण की नानी! क्या टुकुर-टुकुर देखे जा रही है? अरे कहां से मैंने अपनी बेटी को इस घर में ब्याह कर उसकी जिंदगी को तबाह कर दिया? सत्यानाश हो तेरा और तेरे भाई का! पहरेदार बनकर खड़े हो गये हो मेरी बिटिया की जिंन्दगी में! जा, चल भाग यहां से!”
बेचारी नादान कनु सहम कर सुबक-सुबक कर रोने लगी।
“अरी, क्या गला फाड़-फाड़कर रोती है, ऐं!”,
ज्योंहि उस ने नन्ही सी जान की मुलायम कलाई पकड़कर जो झटका दिया, तो वह सीधी अपनी ममतामयी भाभी के पैरों से जा टकराई। वह अबोध बच्ची प्रिया के पैरों से लिपट गई।
प्रिया अपनी मां के बहलाने-फुसलाने पर उसके साथ जाने को तैयार होकर आ रही थी, थोडे़ स्पष्ट भाव से बोली,
“माँ, इस बच्ची से कुछ मत कहना । मैंने आज तक इस पर हाथ नहीं उठाया। यह मेरी बेटी है… माँ!”,
कनु को अपने से सटाते हुये आगे बोली,
“उन्होनें तो आज तक इसे डांटा तक नहीं और तुमने इतनी बेरहमी से इसको धक्का दिया ?”
“हाँ..हाँ, तभी तो इतना सर चढ़ गई है तेरे! देख बेटी। यह सब माया में तू बंधी रहेगी तो इनके साथ तेरा भी भविष्य चौपट हो जायेगा। मेरी अच्छी बेटी, चल अब समय हो रहा है। तेरे पिताजी भी आने वाले होंगे”,
प्रिया की माँ ने दुलार से कहा।
“मगर अनु तो है नहीं माँ?”,
उसने धीरे से कहा ।
“अरे, तू अनु-पनु को छोड़ यहीं। क्या तूने इन्हें पालने का ठेका ले रखा है? आयेगा तो अपने आप संभालेगा इस सिरचढ़ी को। ले, आ गया तेरा देवर। चल निकल अब।”
“भाभी तुम कहीं जा रहीं हो क्या?”,
प्रिया को कहीं जाने की तैयारी में, वो भी सूटकेस सहित देखकर आश्चर्य किन्तु नम्रता से उसने पूछा।
“अरररे... आते ही तूने भी इससे दनादन सवाल पूछने शुरू कर दिये? क्या सुख मिला मेरी बेटी को यहां आकर? कैसी कुम्हला गयी है? पीस के रख दिया मेरी बेटी को नासपीटों ने। ले, संभाल अपनी इस नकचढ़ी बहन को । मै प्रिया को अपने साथ ले जा रहीं हूँ। अब यह यहाँ कभी नहीं आयेगी। समझे जनाब!”
मां फिर अपनी कडवी जुबान से बोली.
“मैं अपनी भाभी से, अपनी मां से बात कर रहा हूँ, तुमसे नहीं, समझी?”,
अनु भी क्रोधावेश में बोल उठा।
इतने मैं कनु भी ’भैया… भैया’ करती उससे लिपट गई। इस बीच अनु को परिस्थितियों ने गम्भीरता प्रदान कर दी थी, कनु भी उससे ही ज्यादा हिल मिल चुकी थी।
कनु को अपनी बांह में भरते हुए उसने प्यार किया, फिर प्रिया की ओर मुख करके आशा भरी निगाहों से देखकर फिर पूछा,
“भाभी, आपने जबाव नहीं दिया भाभी!”
“अरे वो क्या जबाव देगी? गूँगी करके रख दिया तुम लोगों ने बेचारी को! मैं कहूँगी, वही करेगी मेरी स्नेहा”,
प्रिया की मां ने हाथ तमतमा कर कहा।
और प्रिया… जैसे उसकी जबान पर ताला लग गया हो। ऐसा लग रहा था कि वह समझने की कोशिश करते हुए भी समझ नहीं पा रही है।
“भाभी ! मुझे छोड़कर मत जाओ भाभी ! तुम तो मेरी मां हो। अपने बेटे को तुम इस तरह कैसे छोड़कर जा सकती हो ? मुझे मालूम है भाभी। तुम बेटा चाहती थी, किन्तु भाग्य ने तुम्हारा साथ नहीं दिया। भैया की निशानी पृथ्वी पर आने से पहले ही विलीन हो गई। मगर इससे क्या भाभी। मैं तो इतने साल पहले ही तुम्हारा बेटा बनकर इस पृथ्वी पर आ गया था माँ। मैं भैया की कसम खाकर कहता हूँ माँ, मैं तुम्हें एक बेटे से भी बढ़कर आराम दूँगा। मगर मुझे और कनु को अकेला छोड़कर मत जाओ माँ। मत जाओ”,
और वह बिलख-बिलख कर उसके आँचल से लिपटकर रोने लगा।
अनु को रोता देखकर कनु भी जोर-जोर से रोने लगी। अनु को जो भी समझ मे आया, कहता गया। यहां तक अपनी और कनु की दुहाई देकर भी रोकने का प्रयास किया, किन्तु उस जीती जागती लाश पर कुछ असर नहीं हुआ।
इतने मे प्रिया के पिताजी भी रिक्शा लेकर आ गये। उन्होंने जब यह दृश्य देखा तो पत्नी की तरफ प्रश्नसूचक निगाहों से देखा। पत्नी ने उन्हें इशारे में ही चुप रहने को कहा।
“अरे बस भी करो ये नौटंकी! बहुत हो गया ये रोना-धोना! चलो बेटी, तेरे पिताजी रिक्शा ले आये हैं। जल्दी कर, नहीं तो ट्रेन छूट जायेगी”,
और उसे धकियाती हुई गेलरी से दरवाजे तक ले गयी । सामान पहले ही रिक्शे मे रखा जा चुका था।
“यह क्या?”
दरवाजे पर जाते ही प्रिया के कदम रूक गये। जैसे ही उसने पीछे मुड़कर आखिरी बार अपनी ससुराल के दर्शन करने चाहे, तभी अपनी जान से ज्यादा प्यारे दानों बच्चों के आंसू से तर मुखाकृति, सहमी, डरी हुई हिरनी की भांति कनु, जो अनु से सटी हुई खड़ी थी और अनु… वह उसे एक हाथ से कसकर पकड़े खड़ा था, कि कहीं उसकी गुड़िया भी ऐसे ही न चल दे?
आशाओं से भरी प्रतीक्षारत आंखें, मानों कुछ पल के लिये स्थिर हो गई हो। शायद उन आंखों को पूर्ण विश्वास था कि उनकी मां उन्हें कहीं छोड़कर नहीं जायेगी, कुछ ऐसी ही निर्मिमेष सी दृष्टि । यह दृश्य देखकर प्रिया के हृदय में जोर से बिजली कौंधी, सुषुप्त पडे़ दिमाग में भूकम्प का झटका आ गया हो मानो। उसे लगा, जैसे उसकी चेतना, सुध-बुध लौट रही है, और फिर देखते ही प्रिया को उन मासूम आंखों मेंं जाने क्या नजर आया, कि उसके दोनों हाथ अपनी ममता की प्यास बुझाने स्वतः उन्हें अपने अंक में लेने को मचल पड़े। वह दौड़ पड़ी दोनों मासूमों की तरफ!
एक क्षण बाद ही वह अपने जिगर के टुकड़ों को सीने से लगाये ताबड़तोड़ चुबनों की बौछार किये जा रही थी कनु तो उससे ऐसी लिपटी थी, मानों जिंदगी भर एक पल को भी उससे अलग न होगी।
प्रिया रोते-रोते वात्सल्यावेश में कहे जा रही थी,
“नहीं, मेरे बच्चों अब मैं तुम लोगों का छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगी मेरे बच्चों! मुझे माफ कर दो। अपनी इस नादान मां को क्षमा कर दो। मैं हमेशा तुम्हारे पास रहूँगी। एक पल को भी तुम से जुदा नहीं होऊँगी। तुम दोनों तो मेरी आत्मा हो। मेरे लाल ! मेरी बिटिया ! अब मैं तुम लोगों को कभी नहीं छोड़ँगी। कभी नहीं। कभी नहीं!”
अद्भुत भावनात्मक मिलन था वह! अलौकिक क्षण था वह उन सबके लिए।
उन तीनों के आंसू एकाकार हुये जा रहे थे। मानों वर्षों से बिछुड़े बेटे अपनी मां से मिल रहे हों। अनु की खुशी का पारावार न था आज। आखिर ममता की जीत हुई!
दिल की अशन्ति आंसू बनकर बह जाने पर उसने उन्हें पोंछकर एक तरफ अनु और दूसरी तरफ कनु को खड़ा किया और दोनों के कन्धों का सहारा लेते हुए, मानों वे ही उसके असली हाथ हैं, अन्दर की तरफ जाते हुए गम्भीर और कठोर आवाज में बोली,
“माँ! पिताजी! मेरा सामान अन्दर रख दीजिये। अब आप जा सकते हैं, दुबारा यहां आने की आवश्यकता नहीं है, मेरे पास जीने का पर्याप्त सहारा है, और मकसद भी!”
“मगर बेटी … ! बात तो सुनो!”
“बेटी स्नेह प्रि.....या…. !”,
लेकिन उन मां-बाप के शब्द स्नेहा के कानों तक पहुँचने में सफल नहीं हो पा रहे थे.
जब तक वह कुछ और कह पाते, तब तक स्नेहप्रिया सधी चाल चलते हुये दोनों बच्चों के हाथ थामे घर के भीतर प्रवेश कर चुकी थी!
स्नेहा ने अंततः फैसला ले लिया था!
अर्चना गुप्ता,
ई-5, माताटीला हाइडिल कॉलोनी, सिविल लाइन्स, झाँसी (उ0प्र0)
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