ट्रेन के आने में विलंब था कारण रेलवे का आधुनिकीकरण और अनुरक्षण अर्थात विकास कार्य।विकसित होने के पूर्व का विकास काल आने वाले कल के लिये अच्छा होता है,जो वर्तमान की कठनाइयों को पैदा करता ही है।विलम्बित होती जा रही ट्रेन की खीज मैंने रेलवे में कार्यरत अपने इंजीनियर मित्र रघुराज पर फोन से उतारी । स्वभाव से अति विनम्र मित्र दिलासा देता बोला, 'हो रहे विकास कार्यों के बाद का सुख देखिएगा बहुत सी सुविधाओं के साथ ट्रेनों के आवागमन में गुणात्मक सुधार होने से यात्रा सरल व सुगम होगी।' कहां जा रहे और कब वापसी है कि औपचारिक वार्ता के साथ फोन भंग हुआ ।
रेलवे प्लेटफार्म की बेंच पर ही अपना सूटकेश व भोजन सामग्री से भरा थैला, जिसमें सुधा ने बेटी पूजा के लिये नाना प्रकार की खाद्य सामग्री उसके नाश्ते के लिये रख दी थीं ।पूजा की मनपसंद बेसन,अजवाइन व हींग से बनी खरखरी नमकीन बिसनोटी भी काफी मात्रा में सुधा ने रख छोड़ी थीं , रख दिया और स्वयम मोबाईल पर अपडेट देखते समय व्यतीत करने लगा।
मोबायल से जल्दी ही बोर होने लगा कारण कोई खास अपडेट नहीं था न ही कोई मजेदार चुटकुला न ही कोई वीडियो अभी तक किसी ने पोस्ट किया था । मोबायल बन्द कर उसे जेब के हवाले कर थैले में रखी पानी की बोतल से पानी पिया । बेंच के ऊपर लगे पंखे की हवा से मैं झपकने लगा ,' स्वप्न सा दिखा कोई साथ का भारी भरकम थैला चुरा कर लिये जा रहा है।' छणिक दिवास्वप्न से तंद्रा तिरोहित हुई।देखा अरे वाकई सूटकेश के पास से थैला गायब था।
मैंने भौचक्क यहां वहां दृष्टि दौड़ाई ।प्लेटफॉर्म में ज्यादा भीड़ नहीं थी, आखिर पल भर में भारीभरकम थैला कौन उठा ले गया?
रेलवेपुल के जीने की सीढ़ियां धीरे धीरे चढ़ती एक महिला की पीठ पर लदा दिख गया थैला। मैं पलक झपकते जीने की ओर बढ़ा तीन चार सीढ़ियां एक साथ लांघते मैं उस चोरनी के सामने था। क्रोध भरे आवेश के साथ मैंने उसका कंधा झिंझोड़ा।वह एक उम्रदराज वृद्धा थी। मेरा दाहिना हाथ हवा में ही रुक गया। मन मे एकाएक प्रश्न उठा 'इतनी उम्रदराज औरत और यह हरकत' मैने उससे पूछा , "तुम्हे चोरी करते शर्म नहीं आई।क्या समझ के मेरा थैला उठा लाई थी।"
थैला उसने सीढ़ी पर रख दिया था और मौन मुझे कातर भाव से देखते उसने हाथ जोड़ लिए ।मानो कह रही हो 'गलती हुई अब जाने भी दो।'
वृद्धा की कातर सजल हों आईं आंखों के सामने मेरा गुस्सा पहले ही काफूर हो चुका था। मुझे लगा जैसे उसने थैला गलती से उठा लिया होगा।
बात आई गई सी हो गई । वह वृद्धा धीरे-धीरे जीने की शेष सीढियां चढ़ने लग गई और मैं अपना थैला थामे मौन अपनी बेंच पर आ बैठा।एक उचटती सी दृष्टि मैंने जीने को ओर डाली, मन्थर गति से सीढ़ियां चढ़ती वृद्धा की पीठ देखते मुझसे रहा नहीं गया,ह्दय के किसी कोने में सोई सम्वेदना उसकी क्षमा-याचना और प्रयाश्चित के भाव लिए सजल नेत्रों के स्मरण आते ही जाग्रत हो चुकी थी।प्रश्न अपनी जगह यथावत था,'आखिर ऐसी क्या वजह थी जो उसे इस उम्र में चोरी करनी पड़ रही है और चोरी पकड़े जाने के बाद के अपमान को सहन कर ले जाने की स्थिति के लिये उसने स्वयम को कैसे तैयार किया होगा? ऐसे कई प्रश्न चिन्ह मेरे मन-मष्तिष्क में कौंध गए।मुझसे रहा नहीं गया और कुछ क्षणों बाद ही मैं पुनः जीने की सीढ़ी चढ़ती हुई उस वृद्धा के सन्मुख जा खड़ा हुआ।
वृद्धा ने पुनः कातर दृष्टि से अपने दोनों हाथ जोड़ते मुझे देखा ।उसकी मौन वाणी मुझे सुनाई दी ,' गलती हो गई साहब!, क्षमा कीजिये मुझ असहाय पर और जाने दीजिए।'
मैंने वृद्धा के जुड़े हाथ थाम लिए, ' माई! ऐसी क्या मजबूरी है ,जो इस उम्र में तुहें चोरी करने के लिये मजबूर होना पड़ रहा है?' मैं वृद्धा का हाथ यदि मजबूती से न पकड़े होता तो वह भरभराकर वहीं जीने में ढह जाती। मैं उसे सहारा देते अपनी बेंच की ओर ले आया।पानी पिलाते मैंने पूछा, 'भूखी हो माई?' उंगली से उसने दो दिन का इशारा किया। 'ओह' मुझसे रहा नहीं गया मैने वृद्धा का सिर अपने सीने से पल भर को लगाया और अपना टिफिन खोल कर उसके सामने रख दिया।भूखी माई ने आलू की सूखी सब्जी और पूड़ियाँ मन से खाई, इस बीच मैं दो चाय बनवा लाया।
भोजन से तृप्त व्यक्ति का चेहरा अलग ही आभास देने लग जाता है।ऊर्जा से भरपूर बूढ़ी माई ने अपनी दोनों हथेलियों से मेरी बलैया ली, आशीष देते मेरे सिर पर हाथ रखते वह बोली, ' बेटा! खूब खुश रहो। भगवान तुम्हारा और तुम्हारे घर-परिवार, बाल-बच्चों का भला करे।'
माई की मर्दानी आवाज ने मुझे सोचने पर विवश किया, मझोला कद कुछ थुलथुल सी काठी दाएं गाल पर बड़ा सा मस्सा जिसमे तीन- चार लम्बे श्वेत बाल,तन पर ब्लाऊज-साड़ी धारण किए क्या यह वृद्ध माई स्त्री भेष में किन्नर हैं?
वृद्ध माई बोले जा रही थी, ' बेटा! मैं वक्त की मारी एक किन्नर हूँ।होश सम्भालने से लेकर आज तक उंगलियों में गिने जाने वाले तुम जैसे कुछ परोपकारियों को छोड़ मुझे कहीं इज्जत-सम्मान तो दूर की बात हमेशा अपमान और दुत्कार मिला । घर-परिवार और समाज से शोषित,प्रताडित,तिरष्कृत औऱ बहिष्कृत रही हूँ।सदा ही उपेक्षा ही मिली।'
मर्दानी आवाज और बोलने के हाव-भाव से वृद्ध माई का किन्नर रूप अब स्वत: ही स्पष्ट कर रहा था।
'अब ज्यादा क्या कहूं बेटा! मुझे गैरों से ज्यादा अपनों ने हमारी ही विरादरी वालों ने ठगा और इस हाल में ला दिया।आज जब भूख सहन न हुई तो जीवन मे पहली बार चोरी की और पकड़ी गयी।वह तो तुम जैसे नेक-दिल इंसान का सामान था कोई और होता तो... ' माई का गला रुंध गया,आंखों से जलधार बह निकली।
भरे गले वह बोली, ' क्या सोच में पड़ गए भैया! चलती हूँ ,भगवान तुम्हे, तुम्हारे बाल-बच्चों को खुश रखे।' माई ने अपने दोनों हाथ ऊपर उठाएं और चलने को उद्धत हुई।
' माई... माई कहा है तुम्हें! कहां रहती हो? कैसे रहती हो? क्या तुम्हारा अतीत रहा है? मुझे उससे कोई सरोकार नहीं है और अब यह भी जानता हूँ कि तुम एक किन्नर हो,फिर भी मुझे तुमसे एक बात कहनी है,चाहो तो अब तुम अपना शेष जीवन हमारे साथ,हमारे परिवार की वरिष्ठ सदस्य की हैसियत से व्यतीत कर सकती हो।' मैंने माई की दोनों हथेलियां मजबूती से थामी हुई थीं ।
किन्नर माई की आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे । वह भाव-विह्ल्व मुझसे लिपट गई।
मैं अपने पूर्वनिर्धारित कार्यों के निष्पादन के उपरांत बनारस से दो दिन के बाद वापस आ गया था। माई मुझे पहले से तयशुदा स्थान पर मेरी प्रतीक्षा करते मिल गई थी ।
मैंने पुष्पा को फोन द्वारा पहले ही सारे घटनाक्रम से अवगत करा दिया था।बेटी ने भी मेरे निर्णय का स्वागत किया।
किन्नर माई को हमारे घर मे आये आज लगभग पाँच वर्ष हो रहे हैं।माई को परिवार में बुजुर्ग की हैसियत प्राप्त थी।घर,मोहल्ला व परिचित लोग 'माई' का सम्बोधन देते और उनसे आशीष ग्रहण करते ।घर के लगभग सारे काम माई से पूछ कर होते।सनातन धर्म की मान्यतानुसार दैवीय आभामण्डल किन्नर के साथ रहता है,वे किसी को श्राप नहीं देते,वे केवल और केवल आशीष देना जानते हैं।दूसरों के सुख में खुश होकर नाचते-गाते-बजाते हैं।अपने दुःख को कभी किसी को अनावश्यक रूप से व्यक्त भी नहीं करते।उनके अंदर भी मानवीय गुण होतें हैं ,वे भी समाज के लिये कुछ करने का जज्बा रखते है ।
प्रत्येक किन्नर का अपना एक अतीत होता है,उसका स्वयं का झेला संघर्ष होता है । परिवार से विस्थापन का दंश सर्वप्रथम उन्हें ही भुगतना होता है।
किन्नर माई का भी अपना अतीत था।पुष्पा को एक बार बताया था कि, 'जब वह छोटी थी तब 'नदिया के पार' फ़िल्म आई थी ।वह भी फ़िल्म की नायिका जैसी उछलकूद करने वाली और भरपूर शरारती थी।माता पिता ने फ़िल्म देखने के बाद उसका नाम फ़िल्म की नायिका के नाम पर 'गुंजा' रख दिया था। कम उम्र में ही उसका विवाह हो गया था । विवाह के बाद उसे पता चला कि वह न नर है न नारी बल्कि वह एक किन्नर है।पहली शादी छूटी, फिर दूसरी, फिर तीसरी कुल चार शादियां हुई उसकी और सब की सब छूट गई।बाद का जीवन किन्नर समाज मे रहकर बधाई में जाकर,किन्नर गुरुओं की सेवा टहल में रहते कटा पर बुढापा आते ही वह डेरे पर बोझ समझी जाने लगी और एक दिन बहुत बीमार होने पर उसे शहर लाकर एक सरकारी अस्पताल में भर्ती करा कर डेरे के कारिंदे रफूचक्कर हो गए।अस्पताल में वह मरते-मरते बची । अस्पताल से बाहर आते ही उसकी नरकीय जिंदगी शुरू हो गई । कुछ अच्छे कर्म किये थे शायद जो उस दिन स्टेशन में भैया मिल गए थे।'
किन्नर माई आज हमारे साथ बहुत खुश हैं।जब से माई हमारे परिवार में सम्मिलित हुई हैं तभी से ईश्वर की असीम अनुकम्पा हम पर बरस रहीं है। सनातनी परम्परा के अनुपालन में यह विश्वास दृढ़ है कि दैवीय शक्ति से सुशोभित किन्नर का आशीर्वाद फलदायी होता है, जो किसी-किसी को कभी-कभार मिलता है जबकि मुझे और मेरे परिवार में तो यह कृपा किन्नर माई से प्रतिदिन,प्रतिपल मिल रहा थी। मेरी पदोन्नति,बेटी का न्यायिक सेवा में चयन और अच्छे वर से विवाह ।ऐसा मेरा विश्वास है कि यह सभी सुफल 'किन्नर माई' के होते सुलभ हुए थे ।
मैं अनाथालय में पला-बढा हूँ । तय है मैंने कभी अपने माँ-बाप को नहीं देखा उनकी कोई छवि-स्मृति मेरे मानस पटल में नहीं है,पर हाँ इधर एक विश्वास पनपा है, दोनों की प्रतिमूर्ति मुझे 'किन्नर माई' में झलकती है।
नोट- यह कहानी नूतन कहानियां के सितम्बर अंक 2018 में प्रकाशित हुयी है।कापीराइट अधिकार के तहत पुर्न प्रकाशन हेतु नूतन कहानियां की अनुमति अनिवार्य है।