हिंदी कविता की दुनिया में गोपाल दास नीरज का लोहा भला कौन नहीं मानता। उनकी
कविताई पर राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने उन्हें 'हिंदी की वीणा' का तमगा
दिया था। फिल्म जगत के प्रख्यात अभिेनेता-निर्माता-निर्देशक राजकपूर और
देवानंद तो जीवन भर अपनी फिल्मों के लिए नीरज जी से गीत लिखवाते रहे हैं।
हिंदी गीतों में अद्भुत प्रयोगधर्मी इस कवि से पिछले दिनोें उनके लखनऊ स्थित
सरकारी आवास विभूतिखंड में मुलाकात हुई। उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें भाषा
संस्थान का अध्यक्ष बनाते हुए राज्यमंत्री का दर्जा दे रखा है। लेकिन नीरज
जी को इन सुख-सुविधाओं काेई मोह नहीं है। 90 बरस की उम्र में वह अब भी कविता
में रमे हुए हैं। इस उम्र में भी उनके हाव-भाव, ओजस्विता देख उनका लिखा गीत
'शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब...' बरबस याद आ जाता है। बहरहाल, नीरज जी
से जब बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो वह कलकल झरनों सा बहता चला गया। पेश हैं
उनसे हुई बातचीत के अंश-
नीरज जी, राष् ट्रकवि दिनकर ने आपको हिंदी की वीणा कहा तो किसी ने अश्वघोष
की संज्ञा दी। कुछ ने आपको संत कवि तो कुछ ने मृत्युवादी-निराशावादी कहा। आप
खुद को किस रूप में देखते हैं ?
मैं तो शुद्ध कविता का उपासक हूं। कविता में जीवन के बहुत से आयाम होते हैं।
कभी उम्मीद, कभी निराशा। देखिए यह सच है कि अगर जीवन है तो मृत्यु भी है, अगर
जय है तो साथ में पराजय भी है। दुनिया का स्वरूप ही द्वंद्वात्मक है। आखिर
अंधेरे के बाद रोशनी तो आती ही है। ऐसा ही कविता में भी होता है। कविता में
भोगवाद भी आता है, योगवाद भी आता है। मेरी कविता में आपको विरोध भी मिलेगा और
समन्वय भी।
*आप पर नास्तिक होने का आरोप लगता है ? *
मनु स्मृति की एक सूक्ति है। धर्म एव हतो हन्ति. धर्म एव हतो हन्ति धर्मो
रक्षति रक्षितः। इसका मतलब है कि मरा हुआ धर्म तुमको मार डालेगा। और जीवित
धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा। तो कौन सा मरा धर्म है और जीवित धर्म क्या है... ?
धर्म की अनुभूति थी। उसकी अनुभूति बड़े बड़े संतों को हुई, ज्ञानियों को हुई,
राम को हुई, कृष्ण को हुई, बुद्ध को हुई, मुहम्मद साहब को हुई,,गांधीजी को
हुई, टैगोर को हुई । लेकिन बाद के लोगों ने तोते के समान उसको रटना शुरू कर
दिया। तो आज जिस धर्म को लेकर लोग चल रहे हैं वो धर्म नही, धर्म की लाश है..।
उस लाश को जब तक घर से नहीं निकाला जाएगा तब तक संसार का कल्याण होने वाला
नहीं है। धर्म के नाम पर कितने विचार बने संसार में उन्होंने क्या किया ?
लेकिन खुद नीरज जी अपने आपको किस रूप में महसूस करते हैं ?
मेरा अस्तित्व तो कवितामय है। इसको मैंने अपनी साधना माना है, तपस्या माना
है। इसी को मैंने संपूर्ण जीवन दे दिया है। इसलिए कवि के अतिरिक्त मेरा और कोई
स्वरूप याद नहीं किया जाएगा। वैसे तो मैंने ज्योतिष में भी बहुत पढ़ा है,
लेकिन मुझे ज्योतिषी के रूप में मुझे थोड़ा किया जाएगा। मैं तो सिर्फ कवि के
रूप में ही मशहूर हूं, और यही रहना भी चाहता हूं।
मुझे भी हमेशा विवादास्पद माना गया, कोई मुझे निराशावादी समझता है, कोई
भोगवादी को कोई सुरावादी. मैंने लिखा-
हम तो इतने बदनाम हुए इस जमाने में
यारो सदियां लग जाएंगी हमें भुलाने में..
पर याद रखना, जो विवादास्पद होता है वही लोकप्रिय होता है।
आपने जिंदगी में बहुत से किताबें पढ़ी होंगी, कौन सी किताब आपको सबसे ज्यादा
अपील करती है?
मेरी रचनाओं का संग्रह तीन खंडो में निकला है- नीरज रचनावली, लेकिन मेरे दिल
के सबसे करीब दो किताबें हैं- प्राणगीत और दर्द दिया है। इसमें मेरे यौवनकाल
की कविता हैं।
ऐसा कोई दूसरा कवि है जिसकी रचनाओं ने आपको प्रभावित किया हो?
सबसे ज्यादा मुझे टैगोर पसंद हैं। टैगोर में उदात्तीकरण तत्व है जो बहुत कम
कवियों में मिल पाता है। वो जीवन भर कवि बने रहे और इसलिए कि वो विषय बदलते
रहे। अगर आप एक ही बात को पकड़ कर बैठ जाएंगे तो उस बात के लिए निष्ठुर हो
जाएंगे।
हिंदी कविता में आज के हास्य व्यंग्य के बारे में आपका क्या मंतव्य है?
हास्य व्यंग्य बहुत बड़ी चीज है। यह आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। जैसे-जैसे
समाज में विद्रूपताएं आती हैं, भ्रष्टाचार आता है. तनाव बढ़ता है, तब हास्य
व्यंग्य लिखा जाता है। हास्य व्यंग्य का मतलब- आपको हम कुरेद रहे हैं लेकिन
आपको ठीक करने के लिए कुरेद रहे हैं। पर आज हास्य व्यंग्य के नाम पर चुटकुले
मिमिक्री या अभिनय ही देखने को मिलता है।
ऐसी कोई किताब जिसे पढ़ने की ख्वाहिश हमेशा रही पर अभी तक नहीं पढ़ पाए?
पढ़ा तो बहुत कुछ; गीता पढ़ी, जीजस को पढ़ा, कुरान पढ़ी पर पूरी कोई नहीं पढ़
पाया. लेकिन अगर आपने गीता का दूसरा अध्याय पढ़ लिया और समझ लिया तो समझो सब
पढ़ लिया। उसमें है ही कुछ ऐसा।
आप 90 बरस के हो गए हैं। आपके जीवन में कोई लक्ष्य जो अभी बचा हो, आप उसे आगे
पूरा करना चाहते हों?
कविता, कविता, सिर्फ कविता। अपनी कविताई में, इस जन्म में जो लिख सका लिख
लिया, अगले जन्म में भी लिखना चाहूंगा।
यानी आप अगले जन्म में भी कवि ही बनना चाहते हैं?
बिलकुल। बेशक। मैं तो चाहता हूं, मृत्यु अंत नहीं है जीवन का। इस दरवाजे में
आप जो इच्छा लेकर जाओगे वैसे ही निकलोगे, ऐसा मेरा मानना है। लाओत्से दार्शनिक
था- वह बूढ़ा ही पैदा हुआ था। जुरथ्रुस्ट हंसता हुआ पैदा हुआ वो। दिनकर जी
क्या कहते हैं-
बड़ा वो आदमी जो जिंदगी भर काम करता है।
बड़ी वो रूह जो तन से बिना रोए निकलती है।
मैं चाहता हूं कि कविता करते हुए ही इस शरीर से प्राण निकलें।
आपने इतना कुछ लिखा, अपनी आत्मकथा क्यों नहीं लिखी ?
वह नहीं लिखूंगा। वह लिखूंगा तो सच लिखूंगा। सच लिखना कई मायने में अच्छा
नहीं होता। उसमें कई लोग बदनाम होते हैं। अगर आत्मकथा लिखी तो बड़े-बड़े लोग
भी बदनाम हो जाएंगे। इसलिए नहीं लिखूंगा।
आपने प्रेमगीत लिखे हैं। ऐसे शब्द पिरोए हैं कि उनका जवाब नहीं। अाखिर प्रेम
को कैसे परिभाषित करते हैं?
प्रेम के कई पायदान होते हैं। पहले तो शारीरिक आकर्षण भाव पैदा करते हैं। फिर
जब शरीर से ऊपर जब वो मन तक पहुंचता है तो प्रेम बनता है। प्रेम से उच्च दशा
भक्ति वाली होती है, भक्ति में भी आदान-प्रदान होता है। इसकी उच्च् स्थिति
में सिर्फ आनंद रह जाता है। जब काम ऊर्ध्वगामी होता है तो आनंद में बदल जाता
है। और अंतत: वह व्यक्ति प्रेम विश्वप्रेम में बदल जाता है। खुद के बारे में
कहूं तो कुछ ऐसे कि -
किन्तु पूछा गया नाम जब प्रेम से
खोजता ही फिरा किन्तु
मिल सका न तेरा ठिकाना कहीं।
ध्यान से बात की तो कहा बुद्धि ने
सत्य तो है मगर आजमाना नहीं।
बड़े-बड़े लोग बदनाम हो जाएंगे, इसलिए नहीं लिखूंगा अात्मकथा : नीरज