सीप में सागर ( नूतन कहानियाँ के मार्च अंक 2019 में प्रकाशित कहानी )


 


खिड़कियों को मोटे - मोटे पर्दों से ढंकते हुए संजीवन कह रहे थे ," इस बार बर्फ़बारी बंद होने का नाम नहीं ले रही है। तृषा ,तुमने अलाव जला दी है न ,आज रूम हीटर से काम नहीं चलेगा। ""आ - हाँ "दुबारा शायद उन्होंने यह बात कही थी ,क्योंकि आवाज़ में थोड़ी सख्ती थी। "हाँ जी ,बैठक कक्ष में तो शाम से ही अलाव जला दी थी। पिछले दो - तीन सालों  से शिमला में  बर्फ़बारी काफी होने लगी है। सच पूछो तो बर्फ़बारी मुझे बहुत अच्छा लगता है। रूई के फाहों जैसे बर्फ जब पत्तियों पर जम जाते तो अलग सी खूबसूरती दिखलाई देती। पर इस बार की बर्फ को मेरे अंदर की ज्वाला मात दे रही थी। बाहर की बर्फ भले ही ठंडी और कठोर हो ,पर मेरे अंदर ,मेरे अतीत पे   तीस सालों से जमी बर्फ अख़बार के एक कोने पर छपी खबर से यूँ पिघल गयी मानो यह लम्हा इतना लंबा न रह कर कल की बात हो।प्रोफेसर उत्कर्ष बिनानी ,भारत मूल के  वैज्ञानिक को हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की ओर से विश्व का सर्वोच्च "साइंटिफिक अवार्ड "रसायन शास्त्र के क्षेत्र में उनके अमूल्य शोध के लिए दिया जाएगा। उन्होंने पहले भी केमिस्ट्री के अनेक तथ्यों को सरल करते हुए पाठ्य क्रम को मनोरंजक बनाने का प्रयास किया था जिसे नामचीन वैज्ञानिकों ने बहुत  सराहा था। इस समाचार को पढ़ने के बाद अजीब सी बेचैनी और प्रसन्नता दोनों का अहसास हो रहा था। करीब अट्ठाइस साल के बाद उत्कर्ष को टी वी पर देखूँगी। कैसा लगता होगा वह! बाल झड़ गए होंगे क्योंकि कॉलेज के समय से ही उसके बाल झड़ने लगे थे   और उसकी दाढ़ी.. . फ्रेंच कट दाढ़ी पक गयी होगी। मेरी तरह ही चेहरे पे झुर्रियां हो आई होंगी। उम्र की मार कमोबेश सब पर एक ही जैसी होती है।मैंने समाचार पढ़ते ही भावों के अतिरेक को यथा सम्भव छिपाते हुए घोषणा कर दी कि शनिवार के दिन जो अवार्ड समारोह का लाइव टेलीकास्ट होगा ,वो मैं देखूंगी। संजीवन ने कहा ,"ठीक है यह बोरिंग प्रोग्राम जब तक तुम देखोगी ,मैं क्लब चला जाऊँगा। "बेटे  ने भी घोषणा कर दी ,"बाप रे ,फिर वही लम्बा चटाऊ वाला प्रोग्राम। साक्षात्कार भी होगा न... आपकी सफलता का राज कौन स्त्री,घर- परिवार में किसने मदद की और किसने ऑब्जेक्ट किया वगैरह - वगैरह। "संभावित प्रश्नों की झड़ी लगा दी बेटे ने। "ठीक है माँ ,मैं उस समय कुछ काम निबटा लूँगा ,और चिंता न करो ,बीच - बीच में तुम्हे आवाज़ दे दिया करूँगा कि कहीं तुम बोर होकर सो न जाओ। "संजीवन और संदीप ज्यादातर स्पोर्ट्स और न्यूज़ चैनल ही देखते हैं ,उन्हें इस तरह  के गंभीर विषय नहीं  भाते  हैं। संदीप के कथन पर अब तक मेरा ध्यान जिस पहलु पर नहीं गया था ,उस पर भी चला गया। "सचमुच कैसी होगी उत्कर्ष की पत्नी ?क्या मेरी तरह ही या कुछ अलग। गोरी चमड़ी वाली मेम भी हो सकती है क्योंकि वर्षों से वह इंग्लैंड में रह रहा है। " मेरे रूप पर तो उसने वांछित परिवर्तन किये थे मसलन हेयर स्टाइल कैसे रखने हैं ,क्या पहनना है आदि - आदि। मैंने बड़ी शिद्दत से उसकी बातों को माना था। क्या उसकी पत्नी भी उसके मनोनुकूल चलती होगी ? बहुत सारे सवाल मन में उथल - पुथल हो रहे थे।  रात की नींद उड़ गयी थी ,सोते - जागते हर समय उसका ही ख्याल रहता।


मेरे पापा और उत्कर्ष के पापा रेलवे में काम करते थे और अगल - बगल ही रेलवे क्वार्टर में रहते थे।  साथ - साथ हम स्कूल जाते। रास्ते भर लड़ते - झगड़ते। वह अक्सर मेरे स्कूल बैग से पानी की बोतल निकाल लेता और स्कूल पहुँचने के पहले ही पीकर ख़त्म कर देता। इस बात पर मैं उससे खूब लड़ती। लड़ाई की और वजहें थीं। उसे कुछ बोलना होता तो बड़ी बेदर्दी से मेरे बाल खींच कर मुझे बुलाता। फिर मैं उसे मारने दौड़ती। वह आगे - आगे ,मैं उसके पीछे - पीछे। छोटी कक्षाओं में हम साथ - साथ बैठते। अगर हमें टीचर अलग करतीं तो हम रोने लगते। फिर घर से पापा का आग्रह - पत्र जाता कि हमें साथ बैठने दिया जाए। उत्कर्ष बचपन से ही मेधावी था। हाई स्कूल आते - आते हमारे बैठने का स्थान बदल गया। आठवीं कक्षा में उसने एक कहानी लिखी जो हमारे स्कूल की पत्रिका में छपी।  स्कूल से लौटते हुए उसने कहा ," मेरे जीवन की  पहली कहानी तुम्हे समर्पित है। देखा ,इसकी नायिका तुम्हारी तरह है। " "हें... ये समर्पित - वमर्पित क्या होता है। "लापरवाही से मैंने पूछा था। उसने कोई जवाब नहीं दिया ,बस गहरी निगाहों से मुझे निहारता रहा। उसके बाद के सालों में साहित्य की दुनिया में उसने तहलका मचा दिया।  बारहवीं तक पहुँचते - पहुँचते अनेक कहानियां प्रकाशित हुईं। था तो वह साइंस का स्टूडेंट ,लेकिन कला और साहित्य का मर्मज्ञ। हाई स्कूल की परीक्षाओं में खरा उतरने के कारण ऐसे भी सभी शिक्षकों की आँखों का तारा बन चुका था।


अब पहले वाली चुहलबाजियां कम हो गयी थीं। स्कूल में भी हमारी बातें कम होतीं क्योंकि हमारी दोस्ती पर सभी की नज़रें रहतीं। एक दिन स्कूल से घर लौटते समय उत्कर्ष ने कहा ,"देखो दीपाली ,बारहवीं के रिजल्ट पर हमारा भविष्य टिका हुआ है। तुम भी मन लगा कर पढ़ो। इधर देख रहा हूँ कि तुम हर दिन बदल - बदल कर नेल - पॉलिश लगाती रहती हो और बनने - संवारने में ज्यादा ध्यान देती हो। इन सब को छोड़ो ,याद रखो ,सादगी में सुंदरता है। तुम एक लम्बी चोटी या खुले बालों में ही अच्छी लगती हो। " "आदतन उसकी बातों का मज़ाक उड़ाते हुए मैंने  कहा ," बड़े आए ज्ञान बांटने वाले ,मेरी मर्ज़ी ,मैं सजूँ या न सजूँ ....  तुम्हे क्या फर्क पड़ता है ?"  "फर्क पड़ता है ,अन्य लड़के तुम पर फब्तियां कसते हैं ,तुम्हारी तस्वीर कॉपी में बना कर भद्दी - भद्दी बातें लिखते हैं ,जो मुझे पसंद नहीं। "


"क्यों पसंद नहीं ,.... क्या तुम्हे  प्यार है मुझसे ?"


अचानक उत्कर्ष ने मेरे कंधे को पकड़ कर सागवान के एक बड़े से पेड़ से मुझे टिका दिया और मेरी आँखों में आँखें डाल कर कहा ," हाँ ,प्यार है ,तुम्हे भी है। "


 "मुझे भी है वो तुम कैसे जानते हो ?"


"…क़्योकि उस दिन जब क्लास में श्रीमाली और ऋषिका मुझसे हंसी - मज़ाक कर रही थीं ,तुम उन्हें घूर कर देख रही थी और उनके चले जाने के बाद याद करो क्या कहा था तुमने …। "


"हाँ ,वो... मैंने कहा था ,ये तुमसे इतना हँस - हँस कर क्यों बात कर रहीं थीं ,तुम इनसे  दूर ही रहना। "


"तो फिर ,क्यों जलन हो रही थी तुम्हे उनसे ,क्योंकि तुम मुझे चाहती हो। " शरारत से मुस्कुराते हुए उसने मेरे कमर को हौले से खींच कर मेरे मस्तक पर जीवन के पहले प्यार की चुम्बन जड़ दिया। 


घर पहुँच कर काफी देर तक मैं  प्यार की ,उस छुअन की पहली अनुभूति की खुमारी में गोते लगाती रही थी। और उस दिन से लेकर आज तक मैंने कभी नेल पॉलिश को नहीं छूआ। अपने ख्यालों में खोई हुई थी कि संजीवन की आवाज़ सुनाई दी ," आज खाने में पकौड़ियाँ तल दो तृषा ,काफी दिन हो गए तुम्हारे हाथ की पकौड़ियाँ खाए। "मैं रसोई के सारे काम तल्लीनता से पूरी कर रही थी पर दिल के एक कोने में उत्कर्ष से जुड़ी तमाम स्मृतियाँ करवटे ले रहीं थीं। सारे काम निबटा कर जब बिस्तर पर पहुंची ,संजीवन ने रूम को अच्छा गर्म कर दिया था। संजीवन को लेटते के साथ नींद आ जाती है ,पर मेरी आँखों से तो नींद गायब हो चुकी थी।


बारहवीं में मुझे साइंस में दिक्कत होने लगी। कोचिंग की ज़रुरत पड़ने लगी थी। मैंने उसी कोचिंग इंस्टिट्यूट को ज्वाइन किया जिसे उत्कर्ष ने किया हुआ था। पिताजी को तसल्ली थी कि आधे घंटे के इस रास्ते में जहां एक जगह पर ऑटो बदलना भी पड़ता है ,मुझे कोई परेशानी नहीं होगी अगर उत्कर्ष मेरे साथ होगा। हमें ऑटो में अगल - बगल बैठना बहुत अच्छा लगता। एक दिन ऑटो स्टैंड पर हम खड़े थे कि बारिश होने लगी। निकट की एक दूकान में बचने के लिए हम दौड़ पड़े। फिर भी उस बंद दूकान के बरामदे में पहुँचते - पहुँचते हम दोनों भींग गए थे।  उस समय रात के आठ बजे थे।  कोचिंग से लौटते हुए अक्सर इतनी देर हो जाती थी। दुकान के बरामदे में मैं अपने दुपट्टे को सुखाने  का यत्न करने लगी। मैंने महसूस किया कि उत्कर्ष बड़े ही रोमांटिक अंदाज़ में मुझे निहार रहा है। उसे नज़रअंदाज़ करना चाह रही थी कि अचानक उसने मेरी  कमर को पकड़ कर धीरे से अपनी ओर खींचा और मेरे मस्तक  पर अपने गर्म होंठ रख दिए। फिर मेरी आँखों पर ,गालों पर और होंठ पर अपने दहकते स्पर्श की मोहर लगा दी।तरुणाई का यह प्यार आज तक जेहन में जिन्दा है। मैंने संजीवन की और देखा ,वह नींद की आगोश में  दिन भर की थकावट निकाल रहे थे। बहुत  मासूम  लग रहे थे। जाने क्यों बदन में एक सिहरन सी उठी ,शायद उत्कर्ष के साथ की ये यादें मुझे गुदगुदा रहीं थीं।


            हमने कॉलेज में विज्ञान संकाय में प्रवेश लिया था। स्नातक करने की अवधि में उत्कर्ष की योग्यता निखर कर सामने आयी। उसके तर्क ,दलील और अपने विषय में गहरी पकड़ देख कर प्रोफेसर्स उसे आगे की पढ़ाई के लिए हमेशा विदेश जाने की सलाह देते। रसायन शास्त्र के किसी  विषय को  वह अपने वाद - विवाद में उलझा कर अक्सर शिक्षकों को उलझा देता फिर स्वयं ही उसका हल निकाल देता। फ्री टाइम में कहानियों के माध्यम से समाज की घटनाओं पर लिखता। उसकी कहानियों का मूल आधार  प्रेम ही था।एक दिन उसने कहा  ,"मेरी नयी  कहानी की नायिका तुम ही हो  - लम्बे, घने, काले बाल और भरी - भरी देह वाली। " "अच्छा ,तो मेरा मोटापा अब देश - दुनिया में जानी जाएगी?…तो लो ,मैं स्लिम हो कर दिखा देती हूँ। और सचमुच मैंने अपना नार्मल डाइट काम कर दिया। इसके कारण मुझे कुछ ही दिन बाद  कमज़ोरी होने लगी। चक्कर भी आने लगे और तीन दिन तक कॉलेज नहीं गयी। अचानक यूँ अनुपस्थित देख चौथे दिन वह मेरे घर आया। माँ ने उसे मेरे कमरे में भेज दिया और शिकायत भी की ,"जाने क्या डाइटिंग का शौक चढ़ा है ,हालत ख़राब हो रही है ,पर भरपेट खा नहीं रही। समझाओ इसे  कि पहले वाली दीपाली ही अच्छी थी। "माँ उसे मेरे कमरे में पहुँचा कर चली गयी।   "यह क्या रुग्ण काया बना रखी हो ,अचानक वेट - लॉस का क्या भूत चढ़ गया तुम्हे ?" मैंने नज़रें नीची करते हुए कहा ,"यूँ ही ,यह तो आजकल का ट्रेंड है,फिर तुम्हारी हीरोइन भी दुबली - पतली रहेगी तो अच्छी लगेगी। "


ऐसा लगा जैसे मेरी बातों से उसे चोट पहुंची हो। मेरे गालों को अपनी हथेलियों के बीच दबा कर उसने कहा ," ऐसी ही हीरोइन चाहिए मुझे भरी - भरी देह वाली ,और हाँ किसी ग़लतफ़हमी में न रहना कि मैं आज कल के ट्रेंड का दीवाना हूँ। उसकी पतली - पतली चित्रकार सी अंगुलियां मेरे कमर के इर्द - गिर्द रेंगने लगी और एक झटके से मुझे खींच कर अपने अधरों को मेरी आँखों पर रख दिया। उसकी साँसों की गर्मी  थी या स्पर्श का सुख... मैं  बिलकुल स्वस्थ महसूस करने लगी। कॉलेज की लाइब्रेरी में हम छुट्टी के बाद एकाध घंटा अवश्य बैठते। नयी पत्र - पत्रिकाओं का अध्ययन करते। मेरे लिए तो उसका मेरे साथ होना इतना मायने रखता कि अनेक बार वहाँ मेरे काम की किताबें न भी होतीं तो मैं सिर्फ उत्कर्ष के लिए बैठी रहती। एक  अजीब सा खिंचाव महसूस करती। रात करवटों में बीत जाती। सुबह होने और कॉलेज में उत्कर्ष से मिलने के लिए मन बेचैन रहता। उसके घर में आगे की पढ़ाई के लिए उसे इंग्लैंड भेजने की बात चल रही थी। जब  भी वह इन बातों को छेड़ता मैं परेशान हो जाती। कैसे जीऊँगी उसके बिना और वहाँ जाकर यदि वह बदल जाए तो मेरा क्या होगा ,मैंने तो किसी और के साथ ज़िन्दगी गुजारने की कल्पना भी नहीं की थी। एक दिन मेरा यह डर उभर कर उसके सामने आ गया। मैं उसके कंधे पर सर रख कर रो पड़ी। उसने मुझे अपनी बाहों में भरते हुए कहा ,"यह क्या पागलों जैसी बातें कर रही हो?मैं तुम्हे कैसे भूल सकता हूँ। तुम तो मेरी प्रेरणा हो। मेरे बचपन की कली जिसे मैंने अपने मन मुताबिक खिलाया है। तुम  तो मेरी  इबादत हो। " उसके बाद हमारा मिलना और भी कम हो गया क्योंकि उसे कई प्रतियोगिताओं में बैठना था और उनकी तैयारी में वह जी- जान से जुट गया। उसकी मेहनत रंग लाई। करीबन सभी प्रतियोगिताओं में वह सफल रहा। उसके पापा उसकी हर कामयाबी की खबर देने हमारे घर आते।


  वह भी आता ,मेरे पापा - मम्मी के पैर छू कर आशीर्वाद लेता। मैं दरवाज़े की ओट से उसे देखती और जब नज़रें मिल जातीं तब शरारत से वह आँख मार देता। अंततः वह दिन भी आया जब उसे हार्वर्ड में प्रवेश मिल गया। उसने मुझे स्कूल के रास्ते वाले पार्क में मिलने को बुलाया। सागवान के पेड़ के नीचे की बेंच में हम बैठ गए।  शाम का धुंधलका घिर रहा था। उत्कर्ष ने मेरी हाथों को थाम रखा था।  "दीपाली ,मैं कल जा रहा हूँ। पहले दिल्ली फिर वहाँ से लंदन। तुम अपना जीवन बिलकुल स्वाभाविक तौर पे जीना। ऐसा नही कि मेरी याद में कुम्हला जाओ। " उत्कर्ष ने ऐसे ही बात की शुरुआत की थी।


" पर यह कैसे मुमकिन है ,उत्कर्ष ……मैंने  तो तुम्हारे बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की है। अब तो कल से तुम्हारे वापस आने की बाट जोहती रहूंगी। "


"नहीं तुम ऐसा कुछ नहीं करोगी ,अन्यथा मेरा भी मन उदास रहेगा और जिस लक्ष्य को प्राप्त करने मैं जा रहा हूँ ,शायद उससे विमुख भी हो जाऊं।  तुम्हारे दिल की हर आवाज़ मुझ तक पहुँचती है। इसलिए  मुझे याद कर कभी आंसू न बहाना।" कहते - कहते उसने मुझे अपनी बाँहों में भर लिया। एक दोस्त ,एक गार्जियन की तरह मुझे वह समझाता रहा।  मैंने अपनी आँखों के आंसू  पी लिए। हम घर जाने के लिए उठ पड़े।  चार कदम बढ़ कर वह रुक गया। फिर मेरे कमर को  अपने हाथों से पकड़ हौले से खींच कर मुझे अपने इतने करीब ले आया जहाँ से मैं उसकी धड़कनों को गिन सकूँ और वही चिर- परिचित अंदाज़ में मेरी आँखों ,गालों और मेरे होठों पे अपने प्रेम की आखिरी मुहर लगा गया। बहुत निराला अंदाज़ था उसका। मैं तो उसके प्यार के गहरे सागर में डूब जाती थी।


वादों - यादों की लम्बी फेहरिस्त लिए हम जुदा हो गए। जल्द अपना शोध कार्य पूरा कर वह मुझे लिवा ले जाएगा ,यह सांत्वना मुझे खुश रखने की एक दवा थी जबकि   उसकी अनुपस्थिति के वे क्षण बेहद बोझिल होते। एक - एक दिन काटना मुश्किल लगता था ,जब भी मैं फ़ोन लगाती ,वह जल्द आने की बात करता और ढेर सारी नसीहतें दे देता ,मसलन ,खाना भरपूर खाना ,सूख न जाना ,बालों की हिफाज़त करना ,पढ़ाई में मन लगाना आदि - आदि। उत्कर्ष  मेरे लम्बे बाल को  मेरी सुंदरता का राज़  बतलाता था।  यह अलग बात है कि उसके अपने बाल तेज़ी से झड़ रहे थे। मैं उससे मज़ाक में कहती ,साइंटिस्ट बनने के सारे लक्षण हैं तुममे ,देखो कैसे गंजे हो रहे हो !  धीरे - धीरे हमारी बातें कम  होती गयीं। अगला साल बीत गया ,फिर अगला भी। पर वह नहीं आया। पापा रिटायर होने जा रहे थे।  उत्कर्ष के पापा भी तक़रीबन उसी समय रिटायर हो रहे थे।  वे अपनी पुश्तैनी मकान में गोरखपुर जाने वाले थे। उनके जाने के पहले पापा ने उनसे  उत्कर्ष के साथ  मेरी शादी की बात चलायी। अंकल को कोई ऑब्जेक्शन   नहीं था पर उत्कर्ष के भारत आने तक मुझे रुकना था।पिताजी ने अगले दो साल तक कहीं भी मेरी बात नहीं चलाई। इस बीच मैंने मास्टर्स कर ली। पर ,उत्कर्ष के भारत आने की कोई गुंजाइश नहीं दिख रही थी। अब तो फ़ोन की घंटी बजती रहती पर वह उठाता भी नहीं। उसकी छोटी- बड़ी उपलब्धियाँ पेपर में आती रहती। मुझे विश्वास नहीं होता कि समय इतना बेरहम भी हो सकता है। अपनी खोजों में कोई इतना कैसे खो सकता है कि सारे अंतरंग रिश्ते टूट जाएँ। उसके परिवार वाले भी उसकी इस आदत से खफा थे। यह मेरे लिए बेहद मुश्किल समय था। पापा मेरे लिए लड़का खोज रहे थे। अपने सारे जज़्बातों को परे हटा कर एक नयी दीपाली का निर्माण करना बहुत कठिन था। मैंने दिल को समझा लिया ,उसे कोई गोरी मेम मिल गयी होगी ,और फिर जब वह मुझे इतनी आसानी से भूल सकता है तब मैं ही क्यों उसकी याद में पागल होती रहूँ।उत्कर्ष ने जाने से पहले कहा भी था कि मुझे अपना जीवन एक स्वाभाविक तौर  पर जीना है ,उसे याद कर आंसू नहीं बहाना है। तो क्या ,उत्कर्ष का मुझसे दूर हो जाना पूर्वनियोजित था ?विश्वास नहीं होता पर अविश्वास जैसा भी कुछ नहीं था।


                       अपने सारे अरमान और अहसास को भूल कर  मैंने नए सिरे से ज़िन्दगी की शुरुआत  की। उसके अनेक कहानी संकलन और रचनाओं की पत्रिकाएं लेकर मैं संजीवन के घर आ गयी। उसके घर में सभी जानते थे कि   मैं पढ़ने - लिखने की शौक़ीन हूँ ,इसलिए अपने साथ लाई  हुई किताबों को करीने से मेरे बैडरूम के  शेल्फ में सजा दिया गया। ससुराल में संजीवन के साथ - साथ सभी मुझे तृषा कह कर  बुलाते। यह नया नाम मुझे अपनी पिछली ज़िन्दगी को भूलने में वरदान सिद्ध हुआ।  मैं केवल अपने मायके वालों के लिए  दीपाली थी। धीरे - धीरे अपनी गृहस्थी में मैं रम गयी।एक मिलिट्री मैन की बीवी कहलाने का बड़ा सुखद अनुभव रहा। ढेर सारे अटेंडेंट रहते।खाना  बनाने से लेकर बाज़ार करने तक अलग - अलग कर्मचारी थे।  बहुत सारा फ्री टाइम मिलने के कारण मैं सोशल वर्क में अपना समय बिताने लगी। बड़ा सुकून मिलता था गरीब और त्यक्तों की सेवा करके। संदीप के जन्म के बाद तो समय जैसे पंख लगा कर उड़ता गया। कोई गिला नहीं ,कोई शिकवा नहीं। जो भी मिला ,जिस हाल में भी ,मैंने उसे गले लगा लिया। अब संदीप बाइस साल का खूबसूरत नौजवान बन गया है। मैंने उसे वह सभी आज़ादी दी जो उसके लिए ज़रूरी  था। उसकी गर्ल फ्रेंड मुझे देख कर पूछती ,"आंटी  आप नेल पोलिश क्यों नहीं लगातीं ,आपके नेल्स तो बड़े अच्छे कटे होते हैं ?मैं कहती ,"मुझे शौक नहीं है। "


"फिर आप बालों में जुड़ा क्यों नहीं करती ?"


मैं कहती ,"मुझे चोटी  या खुले बाल पसंद हैं। "


" आंटी आप कोई श्रृंगार क्यों नहीं करतीं ?"


"जी में आता कह दूँ कि मैंने किसी की बात मानी है " ,पर चुप लगा जाती।  


वह बोलती जाती ,मुझे लगता है आंटी ,कॉलेज में आपके दीवानों की संख्या कम  न होगी ,आप हैं ही इतनी आकर्षक। उसकी बात सुनकर मैं मुस्कुरा देती। कभी- कभी संजीवन इन बातों को सुनकर मुझे बाँहों में भर लेते ," अरे मैं उन दीवानों को पीछे छोड़ इन्हें जीत लिया। आखिर में जो जीता वही सिकंदर। "मैं भी शरमा  कर इनकी बाँहों में सिमट जाती।अपने अतीत को पीछे छोड़े हुए एक लम्बा समय गुजर गया था। पिछले हफ्ते अख़बार के एक  कोने  में  छपा समाचार जिस में उत्कर्ष  को  विज्ञान वर्ग में दी जाने वाली विश्व - विख्यात इस अवार्ड की घोषणा की गयी थी ने मेरी अपनी दुनिया में  सेंध लगा दी थी। बचपन और जवानी के दिनों में उत्कर्ष के साथ बिताये गए दिन अक्सर मेरी आँखों में तैरते रहते। कई बार तो अकेली बैठी मुस्कुरा पड़ती ,कभी सिहर जाती तो कभी उत्तेजित हो जाती। अवचेतन मन में बैठी हुई उसकी यादें पुनः उभर पड़ीं थीं। मन करता उसकी पत्नी को देखूँ जिसके लिए उसने मुझे छोड़ दिया ,वर्षों के कसमें - वादे तोड़ दिए। कुछ तो कारण रहा होगा आखिर ,जिसके चलते मुझसे बात करना उसने छोड़ दिया था। अपने शोध कार्य को अद्वितीय बनाने का जुनून समझ में आता है ,विलक्षण प्रतिभा का धनी था वह ,जिस कार्य में हाथ लगाता ,उसमे डूब जाता। पर ऐसा भी क्या जुनून कि सारे रिश्ते - नाते बेमानी हो गए। आश्चर्य है ,गुस्सा भी करती हूँ उस पर ,फिर बड़ी सहजता से उसकी  मज़बूरी की सफाई भी खुद ही दे डालती हूँ। दिल में ही उसकी सफलता का जश्न मना लेती हूँ। किसी के साथ बगैर शेयर किये। मेरे  माँ - पिताजी अब जीवित नहीं थे और उसके माँ - पापा के साथ कोई संपर्क नहीं रहा था।   अच्छा लगता था सोच कर कि इस सम्मान के भागीदार विरले ही हैं और मेरा उत्कर्ष उनमे से एक है।


रविवार का दिन था। मैंने सुबह में ही शाम के नाश्ते - खाने का इंतज़ाम कर लिया था। रात आठ बजे सम्मान समारोह का सीधा प्रसारण था। कार्यक्रम के दौरान मैं अपने को कहीं नहीं व्यस्त रखना चाहती थी। धीरे - धीरे वह घड़ी भी पास आ रही थी। संजीवन सात बजे क्लब चले गए और संदीप अपने दोस्तों के साथ निकल गया। साढ़े सात बजे से मैंने टी. वी. ऑन कर दिया। जैसे - जैसे समय सिकुड़ रहा था ,मेरी धड़कनें भी तेज़ हो रहीं थीं। गज़ब की बेचैनी …कैसे देखूंगी उसे .... अब तो उसकी दाढ़ी भी पक गयी होगी। आँखों पर मोटा चश्मा होगा ,हलके पके बाल या वैज्ञानिकों की तरह गंजे सिर वाला हो गया होगा वो …ज़रूर  वाइट शर्ट और ब्लैक पैंट में ही आएगा …। फॉर्मल पार्टियों में यह उसका मनपसंद ड्रेस होता था। अट्ठाइस साल पहले के उत्कर्ष में मेरी कल्पनाओं ने रंग भरना शुरू कर दिया था।  अब मैं पचास साल के उत्कर्ष को देख रही थी। बेचैनी के ये पल कहीं मेरी जान न ले ले। नहीं .... मैं नहीं  देख पाऊँगी उसे .... हे भगवान यह लाइट चली जाए .... कोई आ जाए .... मैं अपना आपा न खो दूँ। हे ईश्वर .... शक्ति देना मुझे। मेरे जीवन का पहला प्यार ,जिसके संग स्मृतियों की अनगिन परतें दबी थीं ,जिसकी इच्छाओं को मैंने अपने व्यक्तित्व में ढाल कर खुद को जीवित रखा है .... वो आज  मेरे सामने होगा। टी. वी. स्क्रीन से निकल कर काश मेरे सामने आ जाए ! मैं भी न उलजलूल सोचती हूँ .... !


अरे ,यह क्या हुआ .... मेरी आँखें  बंद होने लगीं। लगता है कोई भारी बोझ रखा है पलकों  पर। मेरा पूरा शरीर उत्तेजित हो रहा है । मैं दीवार से सट कर खड़ी हो जाती हूँ। लगा जैसे मेरे पीछे कोई खड़ा है।   ये पतली - पतली चित्रकार सी  अंगुलियां मेरे कमर पे रेंग रही थीं और वह एक झटके से मुझे खींच कर मेरे बालों के झुरमुट में अपना सर छुपा रहा था। मेरे नाक ,गाल ,गर्दन हर जगह वह बेतहाशा चुम रहा था। मैं उस जानी पहचानी देह - गंध के आगे अपने आप को खो रही हूँ। उस अद्भुत प्यार के सागर में डूब रही हूँ। वर्षों  का गिला - शिकवा उसकी उपस्थिति मात्र से मिट गया। ज़रा भी नहीं बदला था वह..... ज़रा भी नहीं। वही रूप - रंग ,वही हरकतें। मैं पसीने से तर - बतर थी। " हाँ तो बाल नहीं काटे न तुमने ,ठीक किया ,और वैसे ही भरी - भरी हो ,स्लिम होने का भूत नहीं चढ़ा ,अच्छा है। कोई कृत्रिमता नहीं ,वैसा ही नैसर्गिक सौंदर्य है। मेरी दीपाली ,भोर की तरह स्निग्ध ,ओस की तरह शीतल और गुलाब की तरह नर्म है। सचमुच तुम मुझे इतना चाहती हो... मेरी कल्पना से भी ज्यादा।


 यानि पिछले अट्ठाइस सालों से वक़्त आगे बढ़ा ही नहीं। हम जैसे  जुदा हुए थे , वैसे  मिल रहे थे। मेरी साँसें ऊपर - नीचे होती हुई  तीव्र गति से चल रही थी।  मैं धम्म से कुर्सी पर बैठ जाती हूँ। अचानक किसी ने मेरे कन्धों को झिंझोड़ा। " माँ... माँ ,क्या कर रही हैं आप अँधेरे में ?कब से पावर कट हो चुका है और आप इस ठंडक में भी पसीने - पसीने हो रही हैं।  आपने प्रोग्राम देखा? "


 "आ … हाँ … नहीं ,पावर कट हो गया था न ,मैं इन्वर्टर का स्विच भी नहीं ऑन कर पाई। जाने कब मेरी आँख लग गयी, " मैंने अपने आप को सँभालते हुए कहा।


" मैं विदिशा को कह ही रहा था कि माँ जो भी चाहती हैं उन्हें मिलता नहीं। कितने दिनों बाद आज वह किसी प्रोग्राम को लेकर उल्लसित थीं ,तो पावर कट हो गया। तुमने  रिकॉर्डिंग मोड भी ऑन किया होता तो बाद में यह प्रोग्राम देख लेती। " संदीप को मेरी हालत पर तरस आ रहा था।


उत्कर्ष को  न देख पाने का अफ़सोस बना रहा। मुझे अपने आप पर कोफ्फत हो रही थी। संजीवन भी क्लब से आ गए थे। खाने के समय बेटा अपने पापा को बता रहा था ,' माँ तो अपने पसंदीदा कार्यक्रम के इंतज़ार में सो गयी थी। वह तो मैंने आकर इन्हे जगाया और इन्वर्टर ऑन किया। "


रात के सारे काम निबटा कर मैं सोने चली गयी। वैसी सुकून भरी नींद बहुत दिनों बाद आयी थी। पोर - पोर हल्का हो गया था। जाने क्या जादू हो रहा था।


         सवेरे चाय की चुस्कियों के साथ अख़बार देख रही थी। अख़बार के एक कोने पर कल के अवार्ड समारोह की ख़बरें थीं।  वहाँ मौजूद भारतीय पत्रकारों ने उत्कर्ष पर विशेष फोकस किया था।


"प्रोफेसर उत्कर्ष बिनानी  विश्व के पाँच महान वैज्ञानिकों के साथ सम्मानित " इस हैडलाइन के साथ एक लम्बा - चौड़ा उसका साक्षात्कार भी था और एक ग्रुप फोटो। फोटो अत्यंत छोटा होने के कारण स्पष्ट नही था ,पर बाएं से तीसरे वाले स्थान पर उत्कर्ष की फोटो थी। मेरी सोच सही थी ,वह वाइट शर्ट और ब्लैक पैंट में ही था। मैंने  उसके साक्षात्कार को पढ़ना आरम्भ किया। पत्रकार ने बड़ी चतुराई से उसके जीवन की एक- एक  पहलुओं पर उसके जवाब लिए थे। आरंभिक जीवन में परिवार का सहयोग ,स्कूल - कॉलेज की मेधा सूचि में नाम दर्ज़ करने के अनुभव ,विदेशों में भारतियों के साथ होने वाले व्यवहार और हार्वर्ड की अन्य गतिविधियों के बीच समायोजन आदि  बिन्दुओं पर चर्चा थी। साक्षात्कार के जिन प्रश्नों पर उसके उत्तर ने मुझे आकर्षित किया ,वो ये थे …


साक्षात्कारकर्ता - इस कामयाबी का श्रेय आप किसे देंगे ?


उत्कर्ष - मेरे माता - पिता ,गुरुजनों और बचपन की मेरी सहपाठी।


सा. - आपने विवाह क्यों नहीं किया?


उत्कर्ष- मैंने महसूस किया कि विवाह कर के मैं उसके साथ न्याय नहीं कर पाऊँगा। मेरा शोध मेरा पूर्ण समर्पण चाहता था। इसलिए मैं उससे दूर होता गया। पर सच कहूँ आज भी उससे जुड़ा हुआ हूँ ,कभी उसे अपने से अलग नहीं समझा।


सा.- तो अब आप उसे देखना चाहेंगे?


उत्कर्ष - यूँ तो लंदन जाने के  छह साल बाद मैं भारत आया था। मुझे पता चला उसकी शादी हो गयी है और वह अपने परिवार के साथ खुश है। यह सही निर्णय लिया था उसने। उसमे एडजस्टमेंट की गज़ब की क्षमता थी। जिंदगी जीने के  सकारात्मक दृष्टिकोण का मैं सदा से कायल रहा हूँ। वह जहां भी है ,मेरी सफलता की खबर उसे ज़रूर मिल गयी होगी.. और  उसने इस कार्यक्रम को देखा भी होगा। मेरी सफलता उसकी शुभकामनाओं का ही प्रतिफल है। उसे जीवन की बीच राह पर छोड़ देने के लिए उससे माफ़ी माँगता हूँ।


सा. - आपकी मित्र और प्रेरक के बारे में कुछ बताएं।


उत्कर्ष - काफी लम्बे - घने  बाल थे उसके , औसत कद - काठी , मोटी  नहीं, पर पतली भी नहीं। (पढ़ते - पढ़ते मैं मुस्कुरा पड़ी )…और बायीं कान के पीछे कटे का निशान।


अचानक मेरा हाथ बायीं कान के पीछे चला गया उस कटे के निशाँ पर जो बालों से ऐसा ढंका रहता था कि आज तक किसी ने कभी नोटिस नहीं की थी।


सा. - कैसे कटा था वह जगह ?


उत्कर्ष - आर्ट की कक्षा में पेपर काटने वाली कैंची से उसने अपने बाल कुतर दी थी। सामने के बेतरतीब कटे बाल पर पूरी कक्षा में ठहाके लग रहे थे और वह भी इन ठहाकों में शामिल थी। मुझे बेहद गुस्सा आ गया ,मैंने आव देखा न ताव और अपने बस्ते से उसे दे मारा। यह तीसरी कक्षा की घटना थी। वह खूब रो रही थी। उसे टाँके लगे और मुझे सजा मिली। उस के  दर्द को मैं आज भी महसूस कर ग्लानि से भर जाता हूँ। पागल लड़की थी वह....(कहते हुए  चेहरे पर दर्द की रेखाएं उभर गयीं )


मैंने मन ही मन सोचा ,"पागल तो तुम भी थे उत्कर्ष। प्यार में बेहद हो जाना तभी होता है जब दोनों पागल होते हैं। असली प्यार तो तुमने निभाया है। अभी तक मेरी यादों के सहारे जी रहे हो। तुम्हे वादाखिलाफी और मतलबपरस्त माना था ,मुझे क्षमा कर दो दोस्त। 


उसकी विद्वता पर नाज़ हुआ कि बगैर मेरा नाम लिए तमाम एहतियातों के साथ अपना सन्देश मुझ तक पहुंचा दिया उसने। मुझे मेरे अनगिनत सवालों के जवाब मिल गए थे। मैंने जीवन के मीठे - खारे सभी अनुभवों को सागर की भांति खुद में समा लिया था ,पर वह तो सीप था जिसने सागर को खुद में समा लिया था।  संजीवन की ओर पेपर बढ़ाते हुए मैंने कहा ," लो देखो ,ऐसे भी लोग होते हैं दुनिया में। "


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 लेखिका का संक्षिप्त परिचय


नाम -  डॉ. कविता विकास


( स्वतंत्र लेखिका व  शिक्षाविद्)


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कृतियाँ - दो  कविता संग्रह (लक्ष्य और कहीं कुछ रिक्त है )प्रकाशित  । साझा कविता संग्रह (हृदय तारों का स्पंदन ) ,(खामोश ,ख़ामोशी और हम ), (शब्दों  की चहलकदमी) और (सृजक )प्रकाशित । साझा ग़ज़ल संग्रह {परवाज़ ए ग़ज़ल} प्रकाशित।


दैनिक समाचार  पत्र - पत्रिकाओं ,साहित्यिक पत्रिकाओं व लघु पत्रिकाओं में कविताएँ ,कहानियाँ ,लेख और विचार निरंतर प्रकाशित ।ई -पत्रिकाओं में नियमित लेखन ।


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