कहानी - जन्म या मृत्यु


उस रात कड़ाके की ठंड थी। दूर-दूर तक कोहरा पसरा हुआ था।वाचमैन भी कंम्बल में दुबका था। एक तो
ठंड की हद उस पर अमावस की रात, सोने पर सुहागा। हाथ को हाथ सुझाई नही दे रहा था। एक अजीब
सा सन्नाटा था।
दीपशिखा के भीतर एक दुखती सी बेचैनी मचल रही थी, जो लगातार बढ़ती जा रही थी। उसने खिड़की से
बाहर झाँका।सोहलवे माले से नीचे का कुछ खास, साफ दिखाई नही देता।उसने खिड़की को बन्द कर दिया
और वापस बिस्तर पर आकर लेट गई।
अभी लेटी ही थी, कि पेट में एक सिहरन सी हुई। वहाँ उथल-पुथल शुरु हो चुकी थी। ये क्या..?अभी तो
आँठवा महीना है, पूरे पैतिस दिन वाकि है। नही..नही..जरुर खाने से बदहजमी हुई होगी। पर ये दर्द कुछ
अलग ही है, अजीब सा। ऐसा पहले कभी नही हुआ। पहला गर्भ था तो अनुभव तो बिल्कुल भी नही।
इस बार दर्द फिर उठा, मगर पहले से तेज था। पेट पर हाथ रख कर स्तिथि का जायजा लेने का
असफल प्रयास किया था उसने। क्या करूँ...? माँ को जगाऊँ..? या रहने दूँ...? कहीँ ये डिलीवरी पेन,
नही हुआ तो..? खामखाहँ माँ परेशान होंगी। वैसे भी जाड़ो की राते इस उम्र पर भारी होती हैं।
उसने दीवार पर टँगी घड़ी की तरफ देखा, रात का ढ़ेड बजा था। क्या शेखर को फोन करुँ..? नही..
नही..शेखर को इतनी रात गये फोन करना ठीक नही होगा। वो शहर से बाहर हैं। सिवाय घबराहट के वह
कुछ कर नही सकते। सो उसने ये इरादा भी छोड़ दिया।
उसने माँ के कमरें में झाँका। वह गहरी नींद में थीं। सो उन्हे जगाने की हिम्मत न हुई। दीपशिखा फिर
वापस आकर लेट गई। कई करबटें बदली पर नींद का नामोनिशान नही था।
एक बार फिर असहनीय पीड़ा हुई। अब संशय की गुंजाइश नही बची थी। हो -न- हो ये डिलीवरी पेन ही
हैं। वरना तो आज तक कभी ऐसा रह-रह कर दर्द नही उठा।
अचानक माँ के कदमों की आहट ने दीपशिखा को दिलासा दी।परन्तु इस बार की पीड़ा ने जैसे उसके सब्र
को लील लिया और वह लगभग चीख ही पड़ी। उसकी चीख से माँ की अनुभवी आँखें स्तिथि को ताड़
गयीं और उन्होने आनन-फानन में सुरेश को शेखर का छोटा भाई, जो उसी बिल्डिंग के चौथे माले पर
रहता हैं बुला लिया। उनके साथ देवरानी सुमन भी आई और आते ही बच्चे के मोजे, स्वेटर, शाल और
जरुरत का सभी सामान एक बैग में पैक कर लिया। उसने सब कुछ इतनी फुर्ती से किया कि कोई भी
उस पर फक्र करे।
बेशक, दीपशिखा दर्द से तड़प रही थी, मगर सुरेश को ठिठोली सूझ रही थी- "भाभी देखो मुझे तो भतीजी
ही चाहिये।" सुनते ही दीपशिखा लाज से दोहरी हो गयी। तभी माँ ने फटकार लगाई- "जा तू जल्दी से
गाड़ी निकाल...ये वक्त नही है ठिठोली करने का....और हाँ शेखर को भी फोन कर देना। ध्यान रहे वह
घबराये न।"


सुरेश को माँ ने फटकार भले ही लगाई हो मगर कहीँ-न-कहीँ वो भी अपने नाती के लिये बेहद उत्साहित
थी। 'बस सब राजी -खुशी निबट जाये और क्या चाहिए मुझे, नाती हो